(साभार: गूगल)
खड़े क्यों हो?
बैठ जाओ...
नज़रे जमाकर उसके चेहरे पर
कहा मुस्कुराते हुए...
पर वो टिका नही
पलक झपकने तक भी
ओझल हो गया कहीं
किसी गिलहरी की पीठ पर होकर सवार
या फिर किसी ठंडी हवा के झोके संग
उड़ गया बादलों के पार
सूरज उतार रहा था जहाँ गोधूलि के रजकण
लगता है खड़ा हो गया होगा धुंधले चाँद के पास
जो बटोर कर रोशनी सूरज से दिन भर
कर रहा होगा ज्योत्सना का रजत श्रृंगार
मेरी तरह चाँद ने भी उठाकर नज़र कहा होगा-
बैठ जाओ...खड़े क्यों हो?
और उसने लगा दी होगी छलांग
और बैठ गया होगा किसी बहती नदी पर
तैरती हरी पात पर
-लिली
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें