प्रस्तर की दमघोटू वर्जनाओं को
तोड़ अपने खुले लहराते केशो में
टांक कर स्वप्निल तारे
अपनी जमीन और अपना आसमान
खुद तराशती - मैं अब तुम्हारी देवी नहीं हूँ...
मुझे नहीं चाहिए -
आराधना के अभिमंत्रित पुष्प
होम की शुद्ध की गई वेदी
नैवेद्य का दान
क्योंकि मैं जान चुकी हूँ
पूजा में छुपा पाखंड
दान में छुपा दोहन
लोबान के सुगंधित धूम्र का
भ्रमजाल...
मैने जान लिया है
मानवीय इच्छाओं के उचकने कौतूहल
छलकती संवेदनाओं को बहा देने का मर्म
दबी कुंठाओं को उलीच देने का सुकून
अपने लिए जीने का आनंद
मैं मुक्त हूँ संस्कृति और मर्यादा के
बोझिल दायित्व से क्योंकि -
मैं अब देवी नहीं हूँ तुम्हारी
मैं अब देवी नहीं हूँ तुम्हारी
लिली
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