कुछ अलग हटके।
आज एक खत कविताओं के नाम
आज कविताओं की एक कविता
लाजवाब कवयित्री लिली मित्रा के कविता संग्रह "अतृप्ता" की सशक्त कविताओं की एक कविता।
यह संग्रह 51 बेशकीमती मोतियों की एक ऐसी माला है जिसका प्रत्येक मोती अपनी एक अलग ही आब लिए हुए है। उन 51 कविताओं के शीर्षकों को क्रमशः गूँथ कर मैंने भी एक माला बनाने की कोशिश की है। पर इनका असली आनन्द तो आपको "अतृप्ता" पढ़कर ही प्राप्त होगा।
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ऐे मेरे देव!
#मेरी_कविताओं_के_कवित्व
नमन तुम्हें।
#हे_साहित्य_मैं_तुम्हें_आत्मसात_करती_हूँ"
सत्य की तरह।
क्योकि ये
#शिव_सम_साहित्य_मेरा
जो सर्वाधिक सुन्दर है।
मैं अपने भीतर भी
अपनी कविताओं की तरह
#बंधन_मुक्त_कविता" हूँ।
नही चाहती मैं किसी भी तरह की
#सीमाओं_का_बंधन"
न कविता में, न खुद में।
जानती हूँ
#कुछ_यूँ_था_अपना_अफ़साना"
कि
#मैं_गीत_हूँ_उसके_लिए"
उसके प्यार में
#कुछ_शब्द_यूँ_ही_गिर_जाते_हैं
मेरे प्रिय
#तुम्हारी_यादों_की_रजनीगंधा
से महका ये मेरा
#मन_गिलहरी" सा हो गया है।
तुम्हे
याद होगी
#वो_दिसम्बर_की_भोर
जब,
चंद पलों के बिछोह से भी
अनायास निकला था मेरे भीतर से
#आई_मिस_यू
ओ
#मेरे_आत्मसंगी
#सुनो_मेरे_वट
मैं जब भी सोचती हूँ तुम्हे
#समुद्री_लहर_सा_पाती_हूँ
इस
#मैं_और_तुम" में
तुम ही तो हो
जो मैं हूँ।
तुम
#तुम_टेसू_के_जंगल"
मेरे लिए।
मेरा
भूगोल भी
मेरा
#भूडोल" भी।
सुनो देव!
इस
#अपराजिता_की_अभिलाषा" है
जान सकूँ कि
#खुशबू_क्यों_अदृष्यमान?"
#सुनो_सजना
तुम
#यूँ_सताया_न_करो"
तुम
जब भी चाहोगे
जहाँ भी चाहोगे
#मुझे_पाओगे
कहते है
#प्यार_को_पूर्णता_कहाँ?
सच ही कहते है।
ये तो अनन्त है, अपार है।
और
एक सवाल
तुझसे भी
#ऐ_ज़िन्दगी!
तूने ये
#मेरे_हाथों_की_लकीरें"
किस तरह से लिखी हैं?
मुट्ठी में बंद ही नही होती।
तूने तो
मेरा
#मन_गौरैया_बना_डाला
जो
आ जाती है चहकती हुई
शयनकक्ष में
और बैठ जाती है
सिरहाने
#तकिये" पर।
और तकिया
मुझे कहता है
#हौले_से_सरक_जा"
ये
मेरा ममत्व,
#मेरे_मन_का_मधुमासी_कोना"
फिर चल दिया
एक अजाने
"सफ़र" पर।
एक बार
फिर लगा
"न जाने कैसा हो मेरा अवसान"
फिर बन गया
मेरा
"दिल एक अंतहीन मैदान"
जिसमें कोई
"ठहराव" ही नहीं है।
इसलिए
अब
"मुझे विषय मत बनाइए"
मैंने
"निज जीवन तुम पे वारा है..."
तुम्हारे संग
बस ये
"एक ख़्वाहिश" रही है मीत
कि ये
"नदी रूख़ मोड़ लें"
ये
"फुसफुसाती ख़ामोशियाँ"
दोनों मिलकर सुनें।
इसलिए
मेरे देव
"लो फिर हाज़िर हूँ" मैं।
"मेरी निराशाओं के अंधकार"
रौशनी चाहते हैं तुमसे।
मेरे
"दास्तानी परिंदे"
परवाज़ करना चाहते हैं
तुम्हारे खुले आकाश में।
हाँ प्रिय हाँ
"हाँ यह मेरा ही जलाया अग्निकुंड" है
जिस में तप कर
कुंदन होना चाहती हूँ मैं।
तुम्हारी
"वो झूमती, किसी गाछ-सी" लड़की
शिला होना चाहती है
जिसपर तुम जीवन-तप कर सको।
मेरे साथी
ये
"मेरे रोज़नामचे"
कड़ियाँ हैं
तुम्हारे और मेरे बीच की।
सत्य की।
बीच में कोई और
"मुखौटा" नहीं है।
ना ही इनमें कोई
"निष्कर्षविहीन आत्म-मंथन" है।
सब
मेरे "मन की मथनी" का मथा हुआ
नवनीत है।
ये
जो
"एलीफेंटा के भित्तिचित्र"
मेरे वजूद में उभर आए है
मुझे समझने के लिए
"काफी हैं" तुम्हारे लिए।
समझो
तो तुम्हारी
"अतृप्ता"
~~ताराचन्द 'नादान'