कुछ सोचा नही है
कोई विषय निर्धारित नही है
मन में एक दिशाहीनता लिए
कलम बन गई है -
जीवन पथ पर किधर भी मुड़ जाते..
कहीं भी रुक जाते...पग,
दीठ कल्पनाओं के
सपनीले बादलों पर तैरने के बजाए,
बार-बार फिसल रही है...
किसी ठहरे शैवाल की कलौछ खाई हरियाली पर,
साहित्य बेमकसद...
विचारों की क्रान्ति पस्त और हताश
जीवन किसी शीर्षकविहीन, विचारविहीन, लक्ष्यहीन कविता सा
क्यों हो जाता है कभी-कभी??
हैरान हूँ!!
....आदमी खुले मैदान में
अपने लिए हवाई चौखाने काटता
खुद से जूझता
चेहरे पर झूठी खुशी और आत्मबल का
दंभ लिए
किस क्षणिक सुख के अनंत का जश्न जी रहा है?
वो बार-बार टूट रहा है
बार-बार संवर रहा है
लेकिन हर संवरने में वह
थोड़ा-थोड़ा खत्म हो रहा है...
ये खत्म हो जाना ही मुक्ति है क्या?
क्या मुक्ति ही जीवन का सार है?
मुक्त होने के लिए टूटना चाहिए?
या हर संवरने को जी भर जीना चाहिए?
इस द्वंद का उत्तर खोजती कविता
रुकी है कलम की नोंक पर
अधूरी ....
-लिली
वाह.. अब चलना होगा..
जवाब देंहटाएंकविता लिख कितना दुःख व्यक्त होगा
कैसे ढोयी जाएगी कागज़ पर पीड़ा
मन में घिरी अनिश्चितता की विकलता
उन्निदी रात की बेचैनी
बाएँ अंग में उमड़ा दुःख
अंतत: लेखा होगा
किसकी थाह ज्यादा !!
थाम सारा बवंडर
तटबद्ध होना होगा
मुक्ति की पकड़ उँगली
समय पर दोष मढ़ना होगा।
विदा की घड़ी आयी
अब तो चलना होगा…
सांत्वना श्रीकांत
धन्यवाद सांत्वना
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