शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

अलमारी का 'वो कोना'

                           (चित्र इन्टरनेट से)

  दिल करता है तुमको अपनी अलमारी के किसी कोने मे
  अच्छे से सहेज कर रख दूँ,और
  मशगूल हो जाऊँ रोज़मर्रा की भाग दौड़ मे।

  मशरूफियत इतनी हो कि अलमारी का 'वो कोना'
  दिल के किसी कोने मे दफ्न हो जाए,
  कोई साज़ कोई आवाज़ वहाँ तक न पहुँच पाए।


  मेरी सुबह बालों का जूड़ा बड़ी बेतरबी से बनाते हुए
  किचन की तरफ दौड़ते हुए शुरू हो,और
  रात जूड़े के क्लचर को तकिए के नीचे खोंसकर सो जाए।

  इतवार की अलसाई सुबह,चाय का प्याला,मोबाइल मे
  तुम्हारी पुरानी 'चैट' को पढ़ते हुए शुरू हो
  फिर 'सन्डे स्पेशल ब्रेकफास्ट' की तैयारी मे धूमिल पड़ जाए

  कुछ साल बाद अस्त-व्यस्त अलमारी को करीने से लगाने बैठूँ
  'उसी कोने 'मे मेरा हाथ चला जाए, मैं धीरे से तुम्हे निकालूँ
   मुस्कुराते होंठों और सजल नयनों से जीभर देखूँ।

  साड़ी के आंचल से तुम्हारे चेहरे को पोछू,हृदय से लगाऊँ
  भारी मन से वापस उसी कोने में सहेज कर रख दूँ।
  आंखों के आसूँ गालों तक आकर सूख जाए

   एक गहरी सांस के साथ फिर से मशगूल हो जाऊँ
   अलमारी का 'वो कोना' दिल के किसी कोने में खोजाए
   कोई साज़, कोई आवाज़ वहाँ तक ना पहुँच पाए।

  

2 टिप्‍पणियां:

  1. काव्यात्मक अभिव्यक्ति निजी जीवन के अछूते पहलू के प्रति गज़ब की प्रतिबद्धता और आकर्षण दर्शा रही है। बहुत सहेजकर शब्दों में आलमारी का वह कोना सजाया और छुपाया गया है जिसका एकमात्र गवाह व्यस्त और मेहनती जुड़ा है। प्रभावशाली लेखन जिसने मन को आलमारी के कोने की तरफ सफलतापूर्वक खींच लिया।

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  2. काव्यात्मक अभिव्यक्ति निजी जीवन के अछूते पहलू के प्रति गज़ब की प्रतिबद्धता और आकर्षण दर्शा रही है। बहुत सहेजकर शब्दों में आलमारी का वह कोना सजाया और छुपाया गया है जिसका एकमात्र गवाह व्यस्त और मेहनती जुड़ा है। प्रभावशाली लेखन जिसने मन को आलमारी के कोने की तरफ सफलतापूर्वक खींच लिया।

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