(चित्र इन्टरनेट से)
शान्त दिसम्बर की नीरव रात सोने की पूरी तैयारी कर चुकी थी,तकिये पर सर रख,,नरम कम्बल को ओढ़ रात लेटकर ,आंखों को बंद करने की कोशिश कर रही थी, परन्तु आंखे तो अपलक खिड़की से बाहर आसमान को निहारने लगी। सूनसान वातावरण में अपनी ही सांसों की आवाज़ घड़ी की टिकटिक के साथ ताल मे ताल मिलाती सुनाई पड़ी,,,,,रात हैरान नही है कि उसे नींद क्यों नही आ रही ? वो असल मे जागना चाहती है ,,,कुछ ऐसे पलों को याद कर मुस्कुराना चाहती है,,,,जिन्हे वो 'उस रात' जी कर आई थी। "एक रात जागती,,,एक रात की याद मे" एक रोमांचक शीर्षक ,,,! रोमांचक अनुभूतियों से थिरकती 'वो रात' न जाने कितनी रातों की नींदें उड़ाएगी,,,ये तो राम ही जाने,,,।
सुन लिजिए इसकी अनुभूतियां,,,नही तो यह बिस्तर पर छटपटाती रह जाएगी। ना खुद सोएगी न 'उस रात' को सोने देगी । बड़ी जद्दोजहद के बाद कुछ पल मिले थे ज़िन्दगी से। मानो एक लम्बी कोशिश और विपरीत बहाव में तैरने के बाद कश्ती को किनारा मिला हो।
सर्दियों की धुंध भरी भोर मे,रास्तों को टटोलती,कई अज्ञात क्षणों की रूपरेखा खींचती हुई वह रात बढ़ रही थी। उस दिन मन शान्त,कौतूहल रहित था, विवेक जागृत था ,,,सतर्कता तैनात थी,,,लग रहा था जैसे सोच-विचार कर कोई रणनीति तैयार की गई हो,,एक चूक के,,,,,, घातक परिणाम ।इन सब के बावजूद मन की गहराई मे प्रतीक्षा थी एक खूबसूरत,महकती, थिरकती, बहकती मदहोश रात की,,,।
प्रतीक्षा एक 'एहसास' के प्रत्यक्ष दर्शन की जिसे एक लम्बे अरसे से बस सुना, पढ़ा और शब्दों में अभिव्यक्त किया। अपरिचित नही वह,,,,,पूरी तरह से एक दूसरे में रचा-बसा । कितना रोमांचक था सब कुछ !!!!
भोर की धुंध को चीरती 'प्रतीक्षा' जब अपने गन्तव्य तक पहुँची ऊपर से बहुत शांत और सतर्क परन्तु भीतर से जैसे धरती की तीन परतों के नीचे से हलचल हिडोले मार रही थी।
आखिरकार 'प्रतीक्षा' बहुत ही औपचारिकता और शिष्टाचार के साथ अपने 'परिचित एहसास' के रू-ब-रू हुई। नज़रे एक दूसरे को जी भर देखना चाह रही थीं, स्पर्श एकदूजे को अनुभव करने चाह रहा था,आलिंगन ह्दय का स्पंदन सुनना चाह रहा था,नसिका देह गंध को मन-मस्तिष्क मे भर लेने को आकुल थी,,,समस्त इन्द्रियां तरंगित हो उठी थीं,,,परन्तु सामाजिक बंधनों की मर्यादाओं ने प्रथम मिलन को एक औपचारिक रूप देना उचित समझा। फिर भी मन 'अपने एहसास' को समक्ष पा कर जैसे असीम आन्नद मे मग्न था।
कुछ पल चुराने की कोशिश की थी बंधनो से,,,,,,कुछ कदम साथ चले थे सड़कों पर ,,,एक टेबल के आमने-सामने बैठकर एक एक प्याला चाय पी थी,,, कल्पना मे एक दूजे को लेकर जो रूपरेखा तैयार की थी उससे मिलान करने के लिए थोड़ा समय निकाल पाए थे सामाजिक बंधनों की आंखों मे धूल झोंककर । रात मुस्कुरा रही है,,, उन नीजि क्षणों को अभिव्यक्त कर के। हाथों से छुआ नही पर आंखें छू गई थी हर भाव को,,,,,,,चित-परिचित एहसासों की मिलन बेला,,,,रात को रजनीगंधा सी महका गई।
शाम की प्रतीक्षा थी, लोगों की जमजमाहट के बीच नज़र बचाकर आंखे चार हो जाने की आशा थी,,,उस रात के लिए श्रृंगार करने की भी बड़ी उत्सुकता थी,, बालों का जूड़ा, आंखों मे कजरा,माथे की बिन्दिया ,सब कुछ लगा कर आइने से पूछता सजनी का मन,,,,,बोल ना,,लगती हूँ ना पिया की प्यारी ???? प्रीत का सुर्ख लाल लिबाज़ पहन जब रात सीढ़ियों से नीचे उतरी,,,, सामने ही उनको बैठा पाया,,,उनकी एक नज़र जैसे पल भर मे ह्दय गति को सामान्य से दुगुना कर गई।
बदली मे छुपते चाँद से तुम और चाँद की चितेरी रात की खोजती नज़र,,,,वो मुस्कुरा के देखना,,,अभी भी उच्छावासों की गति को बढ़ा देता है। बिहारीदास जी का दोहा जैसे इसी परिवेश को व्यक्त करता हो,,,,
"कहत नटत रीझत-खीजत मिलत खिलत लजियात,
भरे भौन मे करत हैं नयनन् हूँ सो बात।।"
एहसासों का चाँद अपनी प्रिये को देखकर चमक उठा,उसकी प्रीत की चाँदनी में रात सवंरने लगी,चाँद की चाहत भरी नशीली नज़र रात को मदमस्त करने लगी वह महक उठी,चहक उठी,झूम उठी,थिरक उठी,,, चाँद की हर मुस्कुराती नज़र को अपनी आगोश मे भर गुनगुना उठी,,,,"लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो,,,,,,,!"
अविस्मरणीय यादों के सितारों से झिलमिलाती संगीतमयी रात न जाने कितनी रातों को थिरकाएगी??? ज़बां से कम नयनों से खूब बोली वह रात,,, एहसासों को छू तो न सकी,,,नयनों के आलिंगन मे न जाने कितनी बार खिली वह रात,,,,!!!! उस रात की चमक को पलकों मे बंदकर सो गई आज की रात,,,,शायद सपनों मे फिर से महफिल सजे 'एहसासों' से लिपट फिर से झूम जाएगी रात,,,,,,,,,,!!!!