आवारा बेलगाम काल्पनाएं कितनी भयावह हो सकती हैं,इसका पूर्वानुमान नही लगाया जा सकता।
जब तक आप उस ब्लैक होल में खींच नही जाते
तब तक वीभत्स अंधकार और अनिश्चित पतन की
की ओर किस तेज़ी से गिर रहें हैं,,
उसकी गति,रूप, आकार का अंदाज़ा नही लगाया जा सकता।
परन्तु कुछ होता है हमारे अंदर जो रह रह कर हमे अनेक माध्यमों से चेताता रहता है। परन्तु हम किसी मदमस्त हाथी से महत्वाकांक्षी कल्पनाओं के रूपहले पाश में बंधे,आँखों को चौंधिया देने वाले प्रकाश से अनंत अंधकार की ओर खींचे चले जाते हैं।
कुछ ऐसा ही सफर पर है शामली । अपने कंधों पर अपने अपूरित सपनों की खंडित देह लादे बैठी थी उनका अन्तिम संस्कार करने। मृत आकांक्षाओं के मुख पर मरणोपरान्त भी एक लोभनीय आकर्षण स्पष्ट दिखता था। जैसे कह रही हो -"मुझे मृत मत समझ, आ एकबार फिर मेरी आवारगी की चपेट में , थथार्थ की शुष्कता में कुछ नही धरा। जीवन का स्वर्ग मेरी पनाहो में है।"
"आजा ! क्यों मेरी मृत देह को अग्निकुंड में झोक रही मूर्ख?'
आ एकबार चूम ले मेरे मुखारविन्द को मैं पुनः जीवित हो तुझे फिर उड़ा ले चलूं, बादलों के पार आसमान के नीले समन्दर में। जहाँ धूप सुखाती नही है।
पुष्प झरते नही हैं।
बसंत जाता नही है । आ ना,,,,क्यों कान बंद कर रखें हैं तूने?
पर शामली पूरी तरह से श्राद्ध कर्म के अनुष्ठानों में मग्न थी।
सब सम्पन्न होने के उपरांत शान्ति जल का छिड़काव हुआ,,,और उसकी आँखें खुल गईं।
वो अपलक अंधकार में कमरे की छत तलाशती, स्थिर शरीर में धड़पड़ाती दौड़ती दिल की धड़कनों को लिए शून्य सी पड़ी रही।
किसी तरह मध्यरात्रि की उचटी निद्रा को पुनः सुला कर । प्रातः हुई। बहुत कुछ देखा सुबह की टहल वाले वही चित परिचित मार्ग पर। सूखी पात पथिकों के पांवों तले कचर कर धूल संग एकाकार हो गईं हैं। सूखी घास अब सींचने पर भी हरितिमा ना पाएगीं। कोयल की कूक खिसियाई सी लगी। धूप ने सुबह की हवा में लू सा असर कर दिया। सबकुछ जैसे शुष्क हो चुका है। स्वप्न में बेलगाम कल्पनाओं का श्राद्ध अपने हाथों कर जैसे शामली अब यथार्थ के असल धरातल पर चल रही थी।
कुछ वर्ष पूर्व देव के उसके जीवन में आने के साथ उसने इस धरातल पर चलना छोड़ दिया था। वह उड़ रही थी।
आत्म के अंश पाने के उन्माद में बावरी सी अपने परमात्म की आवाज़ को भी अनसुना करती बस उड़ रही थी,,,बस उड़ रही थी। उसे खुद पर दंभ हो चला था कि- सच और स्वप्न का सही मिश्रण करना उसे आता है। परन्तु महत्वाकांक्षाएँ अट्टाहास कर रहीं थी उसके इस नादान दंभ पर और विजयी महसूस कर रही थीं अपने मासूम नादान शिकार पर।
तमाम संकेतों को नज़र अंदाज़ करते हुए आखिर वह ब्लैक होल के अंधेरों में आ फंसी। उसे अपनी उत्कट बेलगाम कल्पना जगत का श्राद्ध आज करना पड़ा।
जब तक आप उस ब्लैक होल में खींच नही जाते
तब तक वीभत्स अंधकार और अनिश्चित पतन की
की ओर किस तेज़ी से गिर रहें हैं,,
उसकी गति,रूप, आकार का अंदाज़ा नही लगाया जा सकता।
परन्तु कुछ होता है हमारे अंदर जो रह रह कर हमे अनेक माध्यमों से चेताता रहता है। परन्तु हम किसी मदमस्त हाथी से महत्वाकांक्षी कल्पनाओं के रूपहले पाश में बंधे,आँखों को चौंधिया देने वाले प्रकाश से अनंत अंधकार की ओर खींचे चले जाते हैं।
कुछ ऐसा ही सफर पर है शामली । अपने कंधों पर अपने अपूरित सपनों की खंडित देह लादे बैठी थी उनका अन्तिम संस्कार करने। मृत आकांक्षाओं के मुख पर मरणोपरान्त भी एक लोभनीय आकर्षण स्पष्ट दिखता था। जैसे कह रही हो -"मुझे मृत मत समझ, आ एकबार फिर मेरी आवारगी की चपेट में , थथार्थ की शुष्कता में कुछ नही धरा। जीवन का स्वर्ग मेरी पनाहो में है।"
"आजा ! क्यों मेरी मृत देह को अग्निकुंड में झोक रही मूर्ख?'
आ एकबार चूम ले मेरे मुखारविन्द को मैं पुनः जीवित हो तुझे फिर उड़ा ले चलूं, बादलों के पार आसमान के नीले समन्दर में। जहाँ धूप सुखाती नही है।
पुष्प झरते नही हैं।
बसंत जाता नही है । आ ना,,,,क्यों कान बंद कर रखें हैं तूने?
पर शामली पूरी तरह से श्राद्ध कर्म के अनुष्ठानों में मग्न थी।
सब सम्पन्न होने के उपरांत शान्ति जल का छिड़काव हुआ,,,और उसकी आँखें खुल गईं।
वो अपलक अंधकार में कमरे की छत तलाशती, स्थिर शरीर में धड़पड़ाती दौड़ती दिल की धड़कनों को लिए शून्य सी पड़ी रही।
किसी तरह मध्यरात्रि की उचटी निद्रा को पुनः सुला कर । प्रातः हुई। बहुत कुछ देखा सुबह की टहल वाले वही चित परिचित मार्ग पर। सूखी पात पथिकों के पांवों तले कचर कर धूल संग एकाकार हो गईं हैं। सूखी घास अब सींचने पर भी हरितिमा ना पाएगीं। कोयल की कूक खिसियाई सी लगी। धूप ने सुबह की हवा में लू सा असर कर दिया। सबकुछ जैसे शुष्क हो चुका है। स्वप्न में बेलगाम कल्पनाओं का श्राद्ध अपने हाथों कर जैसे शामली अब यथार्थ के असल धरातल पर चल रही थी।
कुछ वर्ष पूर्व देव के उसके जीवन में आने के साथ उसने इस धरातल पर चलना छोड़ दिया था। वह उड़ रही थी।
आत्म के अंश पाने के उन्माद में बावरी सी अपने परमात्म की आवाज़ को भी अनसुना करती बस उड़ रही थी,,,बस उड़ रही थी। उसे खुद पर दंभ हो चला था कि- सच और स्वप्न का सही मिश्रण करना उसे आता है। परन्तु महत्वाकांक्षाएँ अट्टाहास कर रहीं थी उसके इस नादान दंभ पर और विजयी महसूस कर रही थीं अपने मासूम नादान शिकार पर।
तमाम संकेतों को नज़र अंदाज़ करते हुए आखिर वह ब्लैक होल के अंधेरों में आ फंसी। उसे अपनी उत्कट बेलगाम कल्पना जगत का श्राद्ध आज करना पड़ा।