गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

सृजन,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

सृजन
🍃🍂🍂🍃

सृजन सृष्टि
का चलता
प्रतिपल,,,,
सरिधार बहे
ज्यों निर्झर
कल-कल,,

प्रश्न जुड़े
जब 'कारण'
से,,,,,,
एक नूतन
सिरजन अस्तित्व
लिए,,,
नव शोध,निष्कर्ष,
निर्धारण से,,,

एक सोच
लहर सी आती है
मन चेतन सजग
बनाती है,,
सब इंद्रियां संचालित
हो जाती हैं
एक चक्र सृजन
का चलता है,,
कुछ नवल नया
गढ़ जाती हैं,,,

माटी का मोल
नही होता,,
पर जीवन का
अंत वहीं सोता,,
वही माटी सोना
बनती है
जब चाक कुम्हार
के चढ़ती है,,
कितने रूपों में
ढलती है
और कितने सृजन
गढ़ती है,,,

यह जीवन समझो
माटी सम
मत भूलो अपना
अंत गमन,
तो क्यों ना हम
कुम्हार बनें?
नित सुन्दर कृतियां
चाक ढले,
जो आत्मसंतुष्टि
देता हो,,
सृजन महत्ता
कहता हो,,,

लिली 😊

शशि की संगिनी,,,

                            (चित्राभार इन्टरनेट)

शशि शान्त शिशिर रात्रि में,
नीरव सुप्त व्योम शिविर में,
निस्तेज शून्य सा था घूमता,
कोई प्रिये संगिनी था ढूँढता।

निशा कामिनी बन दामिनी,
अरविंद  लोचन   स्वामिनी,
सघन आरण्य से केशलहर,
चलत छम छम गजगामिनी

कटि लचक सरि प्रवाह सी,
 दीप्त देह  कंचन दाह  सी,
अदम्य गर्वित माधुर्य संग,
दिखे यामिनी बड़ी साहसी।

दृगपात हुआ ज्यों चंद्र का,
हियहरण हुआ त्यों तंद्र का,
रूप निरख  सुध खोय रहे,
फुटित चंदन मन सुगंध का।

रूपरजनी झरे तारिका,
चहक उठी मन सारिका,
कलानिधि कला भूल कर,
मद मस्त मदन श्रृंगारिका।

विधु निशि का मिलन हुआ,
ज्योत्सना का प्रस्फुटन हुआ,
कण कण  सब  दैदिप्तमान,
युग युग्म मिलन युगल हुआ।

व्योम शिविर नही क्लांत है,
पथसंगिनी पा तुष्ट शांत  है,
धरा  गगन  तरू ताल  सब,
विधुज्योत्सनामय अब प्रांत है।।

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

तलबगारी तेरे नाम की,,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)


बेचैन करवटों ने चादरी सिलवटों को गहरा दिया,
रात पिसती रही जागकर  चाँद ने पहरा दिया।।

तलबगारी तेरे नाम की दावानल सी भड़कती रही,
हर सांस बड़ी गर्म थी धड़कनो को ठहरा दिया।।

उम्मीद एक बस छूअन की नस नस में उमड़ती रही,
दूर बहुत वह चाँद था बस आह संग कहरा दिया।।

शय डूबी हुई तेरे जिस्म में रह रह कर मचलती रही
तड़पनो को समेट कर एक ग़ज़ल को बहरा दिया।।

सरदियां मौसमे इश्क़ की तन्हाईयों में ठिठुरती रही
लिहाफ़ मेरे जिस्म का कहीं और था फहरा दिया।

लिली 🌷

रविवार, 3 दिसंबर 2017

लुढ़कता आँसू


                           (चित्राभार इंटरनेट)



दाईं आंख
से लुढ़का नसिका
के उभार को बड़ी
कुशलता से पार करता,
अपना मार्ग खुद प्रशस्त
करता,तेज़ी के साथ
तकियें पर,,,,,,,,
अपने निश्चित गन्तव्य
पर पहुँचने की तस्सली लिए
वह गिर गया,,,,

उसका वह पतन
एक समर्पण लिए,
एक नेतृत्व लिए,कई
पथिकों के लिए राह
बनाता,वह गिर गया
झरते रहे कई और
उसके बाद भी,,
पर नेपथ्य में वह था,
स्रोत बना फूटते झरने
का,वह गिर गया,,,,

कर्णों ने सुनी
वह आवाज़
जिसमें भरी थी
भारी मन की भर्राई
भड़ास,एक 'टप्प्'
का था स्वर,और
निकल गए कितने
अकथनीय विशादों
का आभास,,,,,
लिए वह गिर गया,,

उसके बाद निर्झर
धारा बहती रही,
पर नेपथ्य में वह
था,वह प्रथम बिन्दु
तकियें में समाहित
और खोता अपना
अस्तित्व,,,,,,,
वह दाईं आंख से
लुढ़का 'अश्रु बिन्द',,
वह गिर गया,,,

यह कैसी हसरत लाई है शाम,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

यूँ ही लुकते छुपते
किसी क्षितिज पर
अस्त हो जाने की
हसरत,लाई है शाम

एक दीर्घ स्वास संग
खींच लूँ सब कोहराम
निर्मित हुआ यह कैसा
भंवर दिखाती है शाम।

पूछेगा ना कोई मेरे बाद
ज्ञात है मुझे मेरा अंजाम
फिर भी संचय की चाह
प्रश्न कैसा लाई है शाम।

बेवजह बहती है भावो
की नदि,तृष्णा है बेलगाम
ढूबते सूरज संग गहराती
उदासी क्यों लाई है शाम

अच्छा है नदी रूख मोड़ ले,,


                      (चित्र जिमकार्बेट से, मेरा द्वारा )

अच्छा है नदी
रूख मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे

अपने किनारों
को छोड़,हुई
जाती है कृषगात
बड़े पथरीले लगते
हैं आने वाले हालात्

तक्लुफ़ो कों जगह
ही क्यों देना?
फिर उन्हे प्रेम की
नई परिभाषाओं का
रूप देना!!
यह कैसे मरूस्थल में
आ पहुँची है नदिया की
धार,,
मुश्किल हैं खींच पाना
उष्ण बहुत है ये तपता
रेतीला कगार,,

बेहतर है वह खुद को
यहीं से मोड़ ले,
खनिज-लवणों से भरे
खादानों को
खुद में पनपता ही
छोड़ दे,,,

बहुत कुछ संजों कर
लाई है,उन जंगली
पहाड़ों से,,
एक संगीत के स्वर में
बलखाई है,मैदानी
कछारों में,,,
चंचलता की उन उन्मुक्त
धाराओं को,,
रेगिस्तानी ताप में सुखाना
नही चाहती,,

अच्छा है अपने स्वर्णिम
खज़ाने को खुद में
छुपाए
वह चुपचाप
एक मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे।




शनिवार, 2 दिसंबर 2017

वह सुबह दिसम्बर की,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

याद है वह
दिसम्बर की भोर
घने कोहरे को चीरती
बस तुम्हे करीब से
देखने की कसमसाती
तड़प,ठिठुरती ठंड में
नरम कम्बल के आवरण
सा सुकून देगी,,,,

कोई और ख्याल फटकता
नही था दिल के दरवाज़े पर
ना जाने क्यों पहली बार महसूस
किया तंरगे सागर के सतह पर
बहुत चंचल थीं,
अंतस की गहराइयों
में एक असीम सा ठहराव था,,,,
ठहरावी उन्माद अधिक हठीला
होता है,
एक ज़िद के पूरा होने
तक खुद को बंध लेता है,,,,,

एक बेहद हठीले उन्माद को
बंधे मन,चीरता चला था,हर
घने कुहासे के दौर को,,,,
देखिए परिवेश भी कैसे मन
के भाव भांप जाता है,उसी के
मुताबिक समा बनाता है,
रेडियो पर लगातार मिलन गीतों
की धुन लहराता है,,,,

जैसे-जैसे तुम्हारे और मेरे बीच
भौगोलिक दूरियों का फासला
घटता चला,
मेरे अंतस का ठहराव
गहराता चला,,
कहाँ लगता था तुम्हे इतने करीब
देख,दबे अंगार फट के छितर
जाएगें,
बेखुदी में बहकी लड़खड़ाहट
से कदम मचल जाएगें
पर ऐसा तो कुछ भी ना हुआ
ऐसा लगा की चेतनाएं शून्य में
पहुचँ गई हैं,
और हम पूरे दौर को एक शून्य
में जी आए,,

होश पता नही कब आया,,??
अब हर घटनाक्रम को सोच
संवेदनाओं की शिराएं
गुदगुदाती हैं,
गुलाब पर पड़ी शबनमी बूँदों
सी,स्मृतियों को तरो-ताज़ा
बनाती हैं,,

आज फिर सुबह है
दिसम्बर की,,
तारिख में लिपटी
हमारी स्मृतियों को
गुनगुनाते धूपीले अम्बर की,,
रह रह कर स्मृतियों के पटल
पर तुम साक्षात् अवरित हो
रहे हो,
गुलाब पर गिरी इन शबनमी
बूँदों से मुझे भिगो रहे हो,,

लिली🌹