(चित्राभार इन्टरनेट)
शशि शान्त शिशिर रात्रि में,
नीरव सुप्त व्योम शिविर में,
निस्तेज शून्य सा था घूमता,
कोई प्रिये संगिनी था ढूँढता।
निशा कामिनी बन दामिनी,
अरविंद लोचन स्वामिनी,
सघन आरण्य से केशलहर,
चलत छम छम गजगामिनी
कटि लचक सरि प्रवाह सी,
दीप्त देह कंचन दाह सी,
अदम्य गर्वित माधुर्य संग,
दिखे यामिनी बड़ी साहसी।
दृगपात हुआ ज्यों चंद्र का,
हियहरण हुआ त्यों तंद्र का,
रूप निरख सुध खोय रहे,
फुटित चंदन मन सुगंध का।
रूपरजनी झरे तारिका,
चहक उठी मन सारिका,
कलानिधि कला भूल कर,
मद मस्त मदन श्रृंगारिका।
विधु निशि का मिलन हुआ,
ज्योत्सना का प्रस्फुटन हुआ,
कण कण सब दैदिप्तमान,
युग युग्म मिलन युगल हुआ।
व्योम शिविर नही क्लांत है,
पथसंगिनी पा तुष्ट शांत है,
धरा गगन तरू ताल सब,
विधुज्योत्सनामय अब प्रांत है।।
शशि शान्त शिशिर रात्रि में,
नीरव सुप्त व्योम शिविर में,
निस्तेज शून्य सा था घूमता,
कोई प्रिये संगिनी था ढूँढता।
निशा कामिनी बन दामिनी,
अरविंद लोचन स्वामिनी,
सघन आरण्य से केशलहर,
चलत छम छम गजगामिनी
कटि लचक सरि प्रवाह सी,
दीप्त देह कंचन दाह सी,
अदम्य गर्वित माधुर्य संग,
दिखे यामिनी बड़ी साहसी।
दृगपात हुआ ज्यों चंद्र का,
हियहरण हुआ त्यों तंद्र का,
रूप निरख सुध खोय रहे,
फुटित चंदन मन सुगंध का।
रूपरजनी झरे तारिका,
चहक उठी मन सारिका,
कलानिधि कला भूल कर,
मद मस्त मदन श्रृंगारिका।
विधु निशि का मिलन हुआ,
ज्योत्सना का प्रस्फुटन हुआ,
कण कण सब दैदिप्तमान,
युग युग्म मिलन युगल हुआ।
व्योम शिविर नही क्लांत है,
पथसंगिनी पा तुष्ट शांत है,
धरा गगन तरू ताल सब,
विधुज्योत्सनामय अब प्रांत है।।
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