शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

काफ़ी है,,,



पहुँच जाता है हूजूम
हर जगह
एक कदमों के निशां
काफी हैं,,,

शहरों में भी होते हैं
कोने सुबुकते
सन्नाटा दिले दरमियां
हो काफ़ी है,,

तलाश ठोंकरे खाती
दर ब दर
नही दिखते पत्थरों पे
निशां,काफ़ी है,,

मंज़िलों के बड़े ऊँचे
चढ़े हैं भाव,
जेबें तार तार हो देती
हैं जवाब,काफ़ी है,,

नसीब फिसलती रेत सा
झरता शबाब,
हथेली में चिपका रहे ज़रा
सा आब,काफ़ी है,,,

उम्मीद की लौ फड़फड़ा
के जले,,
दिख जाए सामने का
सैलाब,काफ़ी है,,,

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