(चित्राभार इन्टरनेट)
याद है वह
दिसम्बर की भोर
घने कोहरे को चीरती
बस तुम्हे करीब से
देखने की कसमसाती
तड़प,ठिठुरती ठंड में
नरम कम्बल के आवरण
सा सुकून देगी,,,,
कोई और ख्याल फटकता
नही था दिल के दरवाज़े पर
दिसम्बर की भोर
घने कोहरे को चीरती
बस तुम्हे करीब से
देखने की कसमसाती
तड़प,ठिठुरती ठंड में
नरम कम्बल के आवरण
सा सुकून देगी,,,,
कोई और ख्याल फटकता
नही था दिल के दरवाज़े पर
ना जाने क्यों पहली बार महसूस
किया तंरगे सागर के सतह पर
बहुत चंचल थीं,
अंतस की गहराइयों
में एक असीम सा ठहराव था,,,,
किया तंरगे सागर के सतह पर
बहुत चंचल थीं,
अंतस की गहराइयों
में एक असीम सा ठहराव था,,,,
ठहरावी उन्माद अधिक हठीला
होता है,
एक ज़िद के पूरा होने
तक खुद को बंध लेता है,,,,,
एक बेहद हठीले उन्माद को
बंधे मन,चीरता चला था,हर
घने कुहासे के दौर को,,,,
होता है,
एक ज़िद के पूरा होने
तक खुद को बंध लेता है,,,,,
एक बेहद हठीले उन्माद को
बंधे मन,चीरता चला था,हर
घने कुहासे के दौर को,,,,
देखिए परिवेश भी कैसे मन
के भाव भांप जाता है,उसी के
मुताबिक समा बनाता है,
रेडियो पर लगातार मिलन गीतों
की धुन लहराता है,,,,
के भाव भांप जाता है,उसी के
मुताबिक समा बनाता है,
रेडियो पर लगातार मिलन गीतों
की धुन लहराता है,,,,
जैसे-जैसे तुम्हारे और मेरे बीच
भौगोलिक दूरियों का फासला
घटता चला,
मेरे अंतस का ठहराव
गहराता चला,,
कहाँ लगता था तुम्हे इतने करीब
देख,दबे अंगार फट के छितर
जाएगें,
बेखुदी में बहकी लड़खड़ाहट
से कदम मचल जाएगें
भौगोलिक दूरियों का फासला
घटता चला,
मेरे अंतस का ठहराव
गहराता चला,,
कहाँ लगता था तुम्हे इतने करीब
देख,दबे अंगार फट के छितर
जाएगें,
बेखुदी में बहकी लड़खड़ाहट
से कदम मचल जाएगें
पर ऐसा तो कुछ भी ना हुआ
ऐसा लगा की चेतनाएं शून्य में
पहुचँ गई हैं,
और हम पूरे दौर को एक शून्य
में जी आए,,
ऐसा लगा की चेतनाएं शून्य में
पहुचँ गई हैं,
और हम पूरे दौर को एक शून्य
में जी आए,,
होश पता नही कब आया,,??
अब हर घटनाक्रम को सोच
संवेदनाओं की शिराएं
गुदगुदाती हैं,
गुलाब पर पड़ी शबनमी बूँदों
सी,स्मृतियों को तरो-ताज़ा
बनाती हैं,,
अब हर घटनाक्रम को सोच
संवेदनाओं की शिराएं
गुदगुदाती हैं,
गुलाब पर पड़ी शबनमी बूँदों
सी,स्मृतियों को तरो-ताज़ा
बनाती हैं,,
आज फिर सुबह है
दिसम्बर की,,
तारिख में लिपटी
हमारी स्मृतियों को
गुनगुनाते धूपीले अम्बर की,,
रह रह कर स्मृतियों के पटल
पर तुम साक्षात् अवरित हो
रहे हो,
गुलाब पर गिरी इन शबनमी
बूँदों से मुझे भिगो रहे हो,,
दिसम्बर की,,
तारिख में लिपटी
हमारी स्मृतियों को
गुनगुनाते धूपीले अम्बर की,,
रह रह कर स्मृतियों के पटल
पर तुम साक्षात् अवरित हो
रहे हो,
गुलाब पर गिरी इन शबनमी
बूँदों से मुझे भिगो रहे हो,,
लिली🌹
किसी भी अनुभव को, किसी भी कल्पना को
जवाब देंहटाएंबांध लेती हैं
मीठे शब्दों के बस्ते में
अनुभूतियां फफक उठती हैं
वाक्य में बुने शब्दों से
जैसे
उबल उठता हो खौलता दूध
धरा को चूम लेने को
जैसे दौड़ पड़ती हैं
सागर की लहरें
तट को छू लेने को।
कुनकुनी धूप सर्दियों की
एक खयाल
शब्दों का ताल
भावनाओं का जाल
खुश्बुओं का कमाल
प्रशंसा करती हैं
इस रचना की
आपके लेखन की
झूम के
जी हां धूम से।