क्यों लगा आज की घनत्व बढ़ जाए तो फैलाव ,,ईश्वरीय प्रावधान का एक अति आवश्यक नियम है,,एक दर्शन है,,जो विज्ञान की तार्किक दृष्टि की बारीक़ छलनी से गुजर कर भी अपनी प्रामाणिकता को अक्षुण्य रख पाया!!!!
आज मैने भी एक कुशल वैज्ञानिक की भांति इस 'नियम'को अपने जीवन की प्रयोगशाला में सेंककर,उबालकर, तर्कों के बीकरों में भर व्यवहारिकता के वैज्ञानिक तोलकों से तौलकर,मापकों से नापकर,, कई नये-पुराने अनुभवों और घटना क्रमों की भिन्न-भिन्न आकारीय एंव प्रकारीय परखनलियों में डाल कर सिद्ध करने का प्रयास किया। और पाया,,,,,कि ईश्वरीय नियम पूर्ण रूप से परिष्कृत, नि:शंक, वैज्ञानिकता के हर मानदंडों पर खरा एंव विशुद्ध हैं।
निष्कर्ष की उद्दीप्तता के बावजूद मैने इसे पुनः अपने विवेक-बुद्धि के अनुसार जांचने का प्रयास किया,,,एक सहज स्वाभाविक मानवीय-गुण के तहत। क्योंकि मैने अनुभव किया है,,,जब कोई हमें नेक सलाह देता है या उचित मार्गदर्शन कराने का प्रयास करता है अपने विघटित पूर्व अनुभवों को संज्ञान में रख,,,,,,,,, फिर भी सलाह लेने वाला या भटका पथिक एकबार अवश्य उसके विपरीत दिशा जाता है। कहते हैं ना जब तक ठोकर ना लगे पता नही चलता कि मदमस्त होकर नयनाभिराम को गगन के नीलाभ पर टिका कर चलने वाला तब तक नज़रें अपने पथ पर नही जमाता,,जब तक राह पर पड़े प्रस्तर-खंड से आघातित नही होता।
खैर यहाँ बात आघात खाकर सम्भलने की नही ,,बात जीवन में आए परिवर्तनों से प्रभावित मनःस्थिति को समझने की है परखने की है। 'घटित' सदैव किसी ब्रह्मांडीय नियम के अनुगत ही होता है।
बादल को देखा,,,और कविमन बोला,,,
"घनीभूत वेदनाओं का घनत्व सम्भलता नही अब,
चल फट के बरस और विस्तार पा,,,"
और 'घनत्व' 'फैलाव' की तरफ अग्रसर हो गया,,,,,!!!
स्वर्ण का खनन कर उसे एक 'स्वर्ण ईंट' का आकार दे,संरक्षित किया गया,,!!! पर यह घनीभूत स्वर्ण की उपयोगिता तिजोरियों में पड़ी रहने से उसी स्थिति में पुनः पहुँच गई ,,जैसी वह खनन से पहले धरती के गर्भ में थी।तब इस 'घनत्व' को पिघला कर फैलाव दिया,,, ये जितना बारिकी से फैला,,आभूषणों का श्रृंगार उतना ही लोभनीय और आँखें चौंधियाने वाला होता गया।
ये एक अलग तथ्य की जब तक किसी सेठ की तिजोरी में रहा,,सेठ स्वयं के वैभव से स्वयं ही पुलकित होते ना थका होगा। पर वह चाहकर भी उस घनत्व के फैलाव को रोक ना पाएगा,,क्योंकि वह एक 'शाश्वत नियम'।
नलके के नीचे घट को भरते देखा,,,वह उतना ही भरा जितना घट में उस जल को घनीभूत करपाने की क्षमता थी,,, फिर वह भी ना समेट पाया और जल उथल कर,,,नालियों में बह गया।
आकाश का नीलाभ विस्तार पाया,,,क्यों?????
क्यो नही ब्रह्म ने एक बिन्दु नीले रंग की धर दी ???? क्या उस नील बिन्दु में इस विश्वरूप सी विराट कल्पनाओं के कोटिशः असंख्य खग-विहग विचरण कर पाते,,,,? असंख्य आकाश गंगाएं, ग्रह-नक्षत्र,,, कहाँ स्थान पाते?????
अग्नि का एकमात्र धधकता ब्रह्मांडिय वृत्त 'सूर्य' ,,,,,, इसकी अकल्पनीय ऊर्जा क्या इस वृत्त में घनीभूत हो कर चिरता को प्राप्त कर पाती,,,?????
कभी नही,,,,,कभी नही,,,!!
यह सम्भव ही नही हो पाता,,,सूरज पिघल कर बह जाता,,,,और आग का समन्दर लहराता !!!!
इसीलिए तो आकाश के घनत्व को एक "नील-बिन्दू" सा ना आंक,,,, अपनी तूलिका को जल में डुबो कर इसे इतना फैला दिया,,,,,कि इसका विस्तार "सूरज"" की घनीभूत ऊर्जा को फैलाव दे पाई,,,,!!! और सृष्टि सृजन के नित नए आयाम गढ़ने में सक्षम हो पाई!!!!!!
पर ऐसा क्यों होता है हम मनुज योनि की प्रजातिय सोच के साथ,,,,कि वे,,, एक व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व में पूरी तरह से एकाधिकार कर एक घन रूप में चिरता पाने के लिए,,,,,,जोड़-तोड़,, करने का कोई भी मौका नही छोड़ती,,,??
क्यों इस कटु सत्य को अस्वीकारने के लिए दर्शन और विज्ञान की मिश्रित प्रयोगशाला ही बना डालती है,,,,????
मोह के ये धागे,,,संवेदनशीलता के नरम-नाज़ुक तंतुओं से निर्मित,,,, परन्तु इतने ज़िद्दी,,,!!!
इतने सशक्त,,,,!!!
बाबा रे बाबा!!!!!!
एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी प्रकृति के नियमों से लड़ा नही जा सकता!!!!!
स्वीकार करना ही विद्वता,,,!!
स्वीकार करना ही जीवनोंपयोगी,,,,!!
स्वीकार करना ही शाश्वत नियमानुगत॥!!
बर्फ के विशाल शिलाखंड भी कोई ना कोई बहाना लेकर पिघल जाते हैं,,,,और हम मनुज उसे "ग्लोबल वार्मिंग" की संज्ञा से विभूषित कर चिन्तित होते हैं,,या फिर एक गूढ़ खोज का उद्घाट्य करने वाले विद्वान बन जाते हैं। परिवर्तन नियति निश्चित है,, वह जल को बर्फ,,बर्फ़ को जल,,जल से घन और घन से पुनः जल ,,,इसी चक्र को चलाता रहता है,,,और सृष्टि के नियमानुसार घनीभूतता सतत फैलाव पाती रहती है।