बुधवार, 13 मार्च 2019

पतझड़


                    (चित्राभार इन्टरनेट)

हल्की बारिश होगई
लगता है मेरी कविता पढ़ ली होगी,,
'शुष्क आँसू' हवा के
पतझड़ को खुश्क़ बनाते हैं,,,,,!
खैर,,
धूल ज़मीन की सतह पर बैठी मिली,,
पर हवा तब भी बह रही है,,
बहुत रोने के बाद
आवाज़ में जैसे हिचकियों सा स्वर है,,
सड़क पर टपक रहे बड़े-बड़े पीले पत्तों की
ठप्पप् सी आवाज़ में
ज़मीन की दुनियां पर अनजान पथिक से,,ये सूखे पत्ते!
 किसी वाहन की तेज़ गति के बहाव में
दूर तक लुढ़क कर सरकते,,,
देख कर लगा जैसे ,,,,,,,,
हरी पात की उम्र में टहनियों  से चिपके,,
दूर से बस इन वाहनों को आते-जाते
देख ही पाते थे,,,,
क्या पता इनका मन करता हो,,इन दौड़ते-भागते
शोरगुल करते वीरान शहरों को
जीवन्त बनाते वाहनों को करीब से देखें,,,
एक स्कूटर का पीछा करता
एक पीपल का पीला पत्ता,,,
दूर तक गया पर स्कूटर को छू भी ना पाया,,,
और फिर थक कर वहीं पड़  गया सड़क पर,,
ऐसे ही ना जाने कितने वाहनों का
पीछा करने के विफल प्रयास करता,,
किसी के पैरों तले कचर गया,,,
या किसी पहियें के तले मसल गया,,
तो कुछ पीले पात,,,उसकी तरह
चंचल प्रवृत्ति के नही थे,,,
सो पेड़ के इर्द-गिर्द ही घास पर
ढेर से इकट्ठे होते गए,,,
किसी म्यूनिसिपल के सफ़ाई-कर्मी
द्वारा झाडूं से समेट ,, आग की आहूति
चढ़ा दिए गए,,,,,
और इस तरह पत्तों के एक जीवन-काल
का दौर,,,,पूर्ण हुआ,,पतझड़ के रूप में,,,
नई कोपलें तैयार हैं,
एक नए जीवन-क्रम का आगाज़ लिए,
एक नए मौसम के साथ,,,

सोमवार, 11 मार्च 2019

पतझड़ की हवा

हवा की आवाज़ में
एक कराहट सी सुनी
दर्द पुराना अरसे बाद
उभरा है शायद,,
सांय-सांय में टीस
इतनी की,,, टसक से
पेड़ बदहवास से डोलते दिखे
हवाओं की पीर
दरवाज़ों को खड़काती
तो कभी खिड़कियों
से टकराती,,
गुहार लगाती फिरीं
दर्द की चीख से
चीरती वेदना को जब
कुछ ना मिला तो
वह बहा चली सड़कों पर पड़े
सूखे पत्तों को मुट्ठियों में
दबोच कर,,,
पतझड़ की  हवा
आद्रता आँसुओं की सूख चुकी है
खुश्क,कराहती सांय-सांय,,
कोई दर्द पुराना
उभरा है शायद


रविवार, 10 मार्च 2019

कालचक्र

                      (चित्राभार इंटरनेट)


कभी-कभी कुछ
नही लगता
बस सब कुछ 'चल'
रहा होता है
क्योंकि 'चलते जाने' ही
नियम है,,,
ना ही कुछ अच्छा है,,,ना ही कुछ बुरा,
बस 'है' क्योंकि उनका 'होना' ही
नियम है,,,
एकान्त में जब सामना होता है
स्वयं से,,
सवाल उठते हैं और उठ के
शान्त हो जातें हैं,,
क्योंकि प्रश्नों का उठना और शान्त
हो जाना ही नियम है,,
ना खोने दुख, ना पाने की खुशी,,
सब लगता है एक छलाव
खुद को बनाए रखना है
अंत तक
क्योंकि बनाए रखना ही
नियति है,,
ना अधूरे होने का गम ना पूर्णता
का एहसास
सब कालचक्र की चाल
घूम रहा है क्योंकि 'घूमना' ही
नियम है,,
लिली😊

गुरुवार, 7 मार्च 2019

अतृप्ता,,,,महिला दिवस पर एक महिला की अभिव्यक्ति



#अतृप्ता 😊

लिखते-लिखते कभी-कभी अंदर से एक हूंक उठती है ,,के मैं इस भाव को शब्द नही दे पा रही। काश के, मुझे चित्रकारी करनी आती! काश के मुझे रंगों की भाषा समझ आती! मै कागज़ पर मन की बात लिखने के साथ-साथ हथेली भर के अपने भावों के अनुकूल रंग भर कर कागज पर फैला पाती! वो फैले हुए रंग अपने वृहदत्तम और अपने सूक्ष्मतम् रूप के हर भाव को ,विभिन्न आयामों को परिलक्षित करते हुए मेरी अनुभूतियों का सम्प्रेषण कर पाते।
        तो कभी लगता है स्वर लहरियों की एक छोटी सी तरंग मेरे उर में भी होती जो कंठ की स्वर ग्रन्थियों से निकल मेरे मन के संगीत को सरगम रूप में संप्रेषित कर पाते। ऐसा भी कई बार पाया की कुछ अभिव्यक्तियाँ पाँवों को थिरका कर ,,अपनी ग्रीवा,नेत्र,भुजा, कटि, को मटका कर भावभंगिमाओं के माध्यम् से स्व अनुभूतियों को प्रेषित कर सकूं।
      कभी कभी लगा कि मैं एकदम शान्त होकर सुनूं,,,वह सब जो सुन्दर है ,या असुन्दर है मेरे आसपास । सुन कर उसे नापूं,तौलूं,आंकू। स्वीकार करूं अस्वीकार करूं । निहारूं अपलक बिना किसी लज्जा,भय,बाधा के।
      बहुत कुछ अभेद्य है। कितना अपूर्ण पाती हूं खुद को। कोई एक कैसे किसी जीवन वजूद को पूर्णता प्रदान कर सकता है? अचम्भित होती हूं सोचकर। खुद को अलग कर के जीने का सोचा तो हर पल निर्भरता को तरस उठी। निर्भरता के साथ पोषित करना चाहा तो शोषित महसूस करने लगी। फिर अचानक एक निष्कर्ष खड़ा कर लिया, जीवन की सार्थकता समग्रता को समेटते हुए आत्म की एकाग्रता में ही निहित है। क्या नारी ?क्या पुरूष ? जीवन सबके लिए चुनौतीपूर्ण । अधूरापन हर तरफ़। लगता है फेंक दिया गया है इस भवसागर में। जाओ सीखो! तैर कर पार लग जाना या डूब कर तलहटी की रेत बन जाना।
       सम्प्रेषित करने के लिए इतना गहन,,,,कोई एक माध्यम् कैसे चुनूं? बहुत अपूर्ण हूं! बहुत अतृप्त हूं !
लिली😊

बुधवार, 6 मार्च 2019

गज़ल तुम सुनाओ,, गीत




किसी शाम कोई गजल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ
मै बिखरा ज़ुल्फ़े बैठूं बगल में
तुम चाँद बनकर उनमें समाओ

किसी शाम कोई गज़ल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िज़ा को मनाओ

तलब कोई भूली लहरा के झूमे
खड़कते से पत्ते टहनी को चूमें
बंद जज़्बात बह जाऽऽए हवा संग
तुम पुरानी वही नज़म गुनगुनाओ

किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फिज़ा को मनाओ

झरने लगे फिर से बातों के मोती
तुम तकते मुझे मै तुमको पिरोती
आँखों आँखो में बनने लगे सूत कोई
महकी सी तुम कोई माला बनाओ

किसी शाम कोई ग़जल तुम सुनाओ
मेरे दिल की रूठी फ़िजा को मनाओ

शनिवार, 2 मार्च 2019

शब्द ध्वनि खो जाते

                    (चित्राभार इंटरनेट)

बंधन जब उच्छृंखल बन जाते
मार्जित रेखा पर टिक ना पाते
वृथा लगे कागज सा जीवन
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते

क्षितिज लगे भ्रम का विस्तार
अस्तित्व प्रयोजन बिन आधार
मिथ्या सारे बंधन हो जाते
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते

नैराश्य  लगे सबसे प्यारा
हृदय झुलसाए उजियारा
रक्त प्रवाह शिथिल हो जाते
शब्द भी निज ध्वनि खो जाते
लिली😊



शुक्रवार, 1 मार्च 2019

प्रतिक्रिया अजय जी द्वारा

रजनीगंधा,,मै गीत हूं उसके लिए

हम हमारे हर अनुभव में सर्वथा अकेले होते हैं...अपनी ही परिधि में कैद ..हम हर चीज को पहचानते भी अपनी ही तरह है...हर अवधारणा हमारी अपनी समझी हुई व्याख्या है...बस प्रेम ही एक माध्यम है जब हम खुद पर किसी दूसरे को प्राथमिकता देते हैं हमें अपने अहम् और अपनी पहिचान से बाहर निकलना होता है ..हम होते तो हम है पर हमारी वल्गा दूसरे के हाथों में चले जाते हैं...आपकी दो कविताएं "मैं गीत हूं उसके लिए"और "तुम्हारी यादों की रजनी गंधा" इसी भाव इसी उत्सर्ग और समर्पण के भाव को लिए  हुए हैं...एक बात और सतही प्रेम की पहली कोशिश ये होती है कि वो अपने को देने की बजाय दूसरे पर काबिज होने का प्रयास करता है यानि पजैशन का भाव पर दिव्यता या प्रेम का अमरत्व है जब है कि वो खुद को दे कर और खुद को ही पाता है एक निर्मलता और नयी परिभाषा के साथ जिसमें प्रेम अपनी उत्कृष्टता तक पंहुचता है...बस इसी भाव का विस्तार है इन कविताओं में....


सीमा का बंधन,,,
सीमाओं का बंधन...पढ़ी...ये हमारे असतित्व की चाह है...होने की...ये साबित करने की कि हम हैं..सभ्यता...वर्जना है..कल को संवारने की इच्छा है..एक के लिए नहीं सब के लिए करने की सबसे जुडे रहने का सलीका है...पर हमारा क्या..हमारी आदिम लालसा का क्या..जो सभ्यता से हर बंधन से हर रिश्ते से अधिक पुरानी और शाश्वत है...और तुरंत हमें सुख देती है...ये एक यक्ष प्रश्न है...और इसका उत्तर आसान नहीं है..हम एक क्षण के लिए जिएं या एक युग के लिए...
आपकी ये कविता उसी दर्शन का उच्छवास है जिसका मैं भी विद्यार्थी हूं...बांध कर रखती है ये कविता...

हर कवि के समक्ष ये समस्या है कि वो शब्द चुन सकता है,अपने को अलंकृत रूप में प्रस्तुत कर सकता है..भाषा का एक मायावी जाल भी रच सकता है पर वो मौलिक तब होता है जब वो खुद को लिखता है..बेलाग वस्त्रहीन प्रस्तुत होता है सबके समक्ष...आपकी पहली तीन कविताएं पढ़ी..पहली में आप स्वयं आहूत करती हैं कावित्व को की वो आपके जीवन में भी प्रवेश करे...बस यही बात खास है..शब्द छल हैं...उनका आयोजन भी छल है..और वो नश्वर भी हैं..जब तक आप स्वयं उनमें सहज भाव  प्रस्तुत न हों...वही बात वही पीड़ा मुखरित है आपकी पहली कविता में...दूसरी और तीसरी कविता में भी..
          कविता रचना आसान है उसका हो जाना और कठिन और उस भाव को जीवन का व्यवहार और आधार बना लेना सर्वाधिक कठिन...आप उस तरफ जाने की बात करती हैं तो आपकी ये यात्रा स्वयमेव एक साधना बन जाती है...
        आपने कहीं लिखा था कि चित्रलेखा को पढ़ कर आपका मन बदल गया उसमें एक अत्याधिकता से अघायी एक नगरवधू एक योगी से अधिक वैराग्य को समझती है और अपनाती है
आप में ये भाव कविता के प्रति समर्पित होते दिखता है
        ये नहीं कहूंगा कि आपकी कविता शिल्प और
आधुनिक कविता के आजकल के कलेवर में बहुत ऊपर या समकक्षी है पर आपका ये भाव निसंदेह आपको अलग करके दिखाता है...
        पहला जोश दिखा दिया है..बहुत उत्सुक था आपकी किताब के लिए पर अब आराम से चबा चबा कर आगे लिखू़गा..जल्दी जल्दी लिखा है कोई शब्द इधर उधर हो तो देख लीजिएगा.....