बुधवार, 11 अप्रैल 2018

अंधकार,,,,,




आज अंधकार से बहुत गहरा सम्बंध पाया,,,,और अपनी इस नई खोज से विस्मृत हूँ या उत्साहित हूँ ?नही मालूम,,,पर हाँ इतना ज़रूर है कि,,उजाले के दाह से जनित पीड़ा को बहुत ठंडक पहुँच रही है।
        जब भ्रूण रूप में मनुष्य माँ के गर्भ में होता है,,,वहाँ भी स्याह अंधकार होता है,,,तो,,,मैने पाया के ये साथ तो जन्मजात है,,,,। गर्भ से बाहर आने पर अचानक जब इस बाहरी दुनिया के प्रकाश में आंखें खुलती हैं नवजात शिशु की तो वे एकदम चौंधिया कर फिर से पलकों की चादर ढांक लेता है।,,,नवजात को समय लगता है इस उजाले का आदी होने में।
     जब माँ उसे सुलाती है तो,,कमरे की सभी प्रकाश माध्यमों को बुझा देती है,,ताकी उसके शिशु को,,वही गर्भ के भीतर का परिवेश अनुभूत हो,,और वो खुद को निश्चिंत समझ सुकून से सो जाए,,।
       यही आदत आजीवन कहीं ना कहीं ,,किसी ना किसी रूप में अपना अस्तित्व बजाए रखती है। स्थूलता भौतिक परिवेश के साथ स्थूलता से और सूक्ष्म संवेदनात्मक परिवेश के साथ बड़ी सूक्ष्मता से यह अंधकार जुड़ा रहता है।
   मानवीय संवेदनाओं का हर पक्ष चाहे वो सकारात्मक हो या नकारात्मक,,अंधकार में सब प्रकाशमान होता है।
हृदय की गहराइयों में अंधकार,,जहाँ कुलुष,कपट,छल,झूठ,विकार,प्रेम,दमित कुंठाएं,आशा,निराशा,दोष,गुण,,,,सब एक ही तरल में तैरते हैं।
विवेक और बुद्धि की छलनी लगी नलियों से होकर हमारे शरीर या मस्तिष्क से बाहर कदम निकालते हैं।
     आक्रोश,भय,पीड़ा,वेदना,,या इन जैसी संवेदनाओं की अन्य समकक्ष भावनाएं केवल एकान्त के अंधकार में प्रकट होकर हमसे खुलकर रू-ब-रू हो पाती हैं। जिन्हे हम कभी शिष्टाचार वश,,तो कभी कई अन्य कारणों से सबके सामने उजागर नही कर पाते।
        तभी तो व्यक्ति जब आन्तरिक रूप से अत्यंत चोटिल
होता है,,तब अंधकार खोजता है,,एकान्त खोजता है,,खुद को खोजता है,,,,या कहें के,,,माँ के गर्भ के भीतर का वहीं सुकूनी परिवेश खोजता है।
       इच्छाएं मत रखो,अपेक्षाएं मत रखो,झूठ मत बोलो,पाप मत करो,अन्याय मत करो,,,ये मत करो,,,वो मत करो,,,मर्यादाओं में रहो,,सामाजिक बनो,,,तमाम जंजीरों में बंधें रहो,,,,,अरे बाबा पर कहाँ से आए इतना संयम,,,??? इतना नियंत्रण,,,??? जब मनुष्य योनि में जन्म लेने के साथ ही सभी अच्छे बुरे मनोविकार से हमारा आत्म भरा है,,,,,!!!!!
     तब कुछ तो करना पड़ेगा,,,,सब थाली में सजाकर दुनिया के सामने परोस दें,,,,,?? यह भी नही सम्भव,,,,।
    शायद इसीलिए दिन बने,,इसीलिए रात बनी,,,!! इसीलिए स्थूल रूप से देखें तो शरीर के भीतर अंधकार,,,और बाहर प्रकाश,,,,, सूक्ष्म रूप से भी आत्म के भीतर अंधकार में ही प्रकाश छुपा रहता है।
       जब हम अपनी दमित ना दिखा पाने योग्य मनोभावों से जी भर के मौन द्वंद कर लेते हैं अंधकार में,,, तभी सशक्त रूप से प्रकाश की सकारात्मकता की चमक हमारी अन्तर और बाह्य आंखें झेल पाने में सक्षम हो पाती हैं।
     अंधकार को आज समझने का प्रयास कर रहा है मेरा अंतर।अंधकार में स्वयं के अवशिष्ट,,विशिष्ट,,और शिष्ट से साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है। जीवन में आने वाली चुनौतियों के लिए रसद जुगाड़ करने की योजनाएं बनाई जा सकती हैं। अतः जीवन के अंधकार पक्ष से भी प्रेम करना आना चाहिए,तभी हम प्रकाश की सकारात्मकता का मोल जान पाएगें।

लो हाज़िर हूँ,,,



लो फिर हाज़िर हूँ
वक्त और हालात की
फैक्ट्री में,,,,

तोड़ दो मुझे,,
मरोड़ दो मुझे,,
और,,
एक नया आकार
दे दो,,,

इस बार भी
बोलूँगीं कुछ नही,,
हाँ,,, कुछ आहहह
और कुछ आंसू निकलेगें,,,

विचलित हो
कोई इनसे,,,,
यहाँ,,,,कोई ऐसा नही
आस-पास,,,,,,,
जो हैं सब चपेट में हैं,,
बेरहम पकड़ की
मजबूत जकड़ में,,

मशीनों के शोर
में सब दब जाता है,,,,
कुछ क्षणों बाद,,
एक नया आकार,,
नई 'पैकिंग' के साथ,,
जगमगाता हुआ,,,
बाहर आता है,,,
~लिली🌿

मेरी निराशाओं के प्रिय अंधेरे,,,

मन के आकाश
की ये अंधेरी रातें ,,,,
प्यार होने लगा है,,,
,इनसे एकबार फिर,,,

कितना उदार होता है
इनका हृदय,,,,
ये छुपा लेती हैं
मेरी पीड़ा,मेरी खुशी,
मेरा विरोध,मेरा समर्पण,

मेरी जीत,मेरी हार,,
मेरे कुलुष,,मेरे विकार,,
मेरा क्रोध,,मेरी पुचकार

मेरी आशा,मेरी हताशा,
मेरी जिजिवषा,मेरी कर्मनाशा,

मेरे समग्र व्यक्तित्व को
ओढ़ाकर अपनी,
स्याह चादर,,,,
ले जाता है मुझे,,
प्रकाश की हर उस सूक्ष्म किरण से
परे,,,
जो मुझे मेरी हार के स्मृति-चिन्हों
की झलक दिखलाते हैं,,,

मेरी निराशा के ये अंधेरे,,
मेरे रीते हाथों के खाली से घेरे,,
जाओ !!!!! ले जाओ
इन आशाओं की
टिमटिमाती डिबरियां,,,

मेरी महत्वाकाक्षांओं की
प्रतिमा बहुत विशाल है,,
इस लुकभुकाती सी लौ में,,
पूरी दिखाई नही देगी,,,,
जाओ ले जाओ,,,,,!!!!

आज मेरा,,'मैं',,जागा है,,,,
यह गौरी सा शान्त नही,,,
चंडी सा प्रलयकारी है,,,,
इसकी प्रचंडता को
तिनके की ढाल से
रोकने का प्रयास ना करो,,,,
जाओ,,,!!!

मुझे खुद में जलने दो,,,
बहुत छला है स्वयं को,,
छल के उस छद्म को,,,
मुझे इस मोटी अंधेरी
चादर से ढकने दो,,,

शीतलता मिलती है मुझे इस अंधकार से,,,
हल्के से  प्रकाश की ऊष्मा भी अब सह्य नही,,,
मुझे रहने दो मेरे अंधेरों में,,
यही मेरे सच्चे साथी,,,,

हे मेरे आशाओं के प्रकाश!!!
अभी तुम मेरे करीब ना आओ,,,




मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

हयात-ए-ग़ज़ल,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

हयात-ए-ग़ज़ल जब उठा की पी,
थोड़ी छलकी,तो थोड़ी बचा के पी।

मापनी की नापनी भी आज़मा के देखी,
मज़ा आया बहुत जब,सब हटा के पी।

काफ़िर सी फ़ितरत,फ़कीरी अदाएं
ये निखरी बहुत जब,सब लुटा के पी।

महफ़िल की रौनक ,ना बने,,ना सही,
करार आया जब, बत्तियां बुझा के पी।

नही फिक्र हो मुक्कमल हर शे'र इसका,
सनम तेरा नाम लेकर,बस लहरा के पी ।
~लिली🌿






गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

प्राकृतिकता बनाम कृत्रिमता,,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

प्राकृतिकता ईश्वर की देन है,और कृत्रिमता मानव की।
वह ईश्वर प्रदत्त हर स्वाभाविक वस्तु को अपनी सुविधानुसार काट-छांट कर एक नया रूप दे देता है।
      पैरों के नींचे नरम दूब का मखमली एहसास,,,किसको नही प्रिय!!!! तो दीजिए इंसानी सोच को दाद,,ऐसी ,हवाई चप्पलें बना दीं जिस की सतह पर कृत्रिम हरी घास उगा दी😃😃😃😃😃।
      पहाड़ों पर छुट्टियां बिताना,,,प्रकृति के स्नेहिल अंचल में मन का सुकून खोजना,,हम सभी को प्रिय!! पर पहाड़ों की तलहटियों तक  पैदल चल के जाना,,,तौबा!!!! फिर किया कमाल इंसानी सोच ने,,और काट कर पहाड़, वहाँ पहुँचने की राह बना डाली,,,। अब तो डर हैं कहीं सारे पहाड़ सपाट मैदान ही ना बन जाएं,,,और मनुष्य अपनी बुद्धि बल पर कृत्रिम पहाड़ बनाने की युक्ति भी ना खोज निकाले,,,,😜 वैसे दिल्ली के 'ओखला डंपिंग ग्राउंड' अब पहाड़ी इलाके जैसा ही आकार पा रहा है,,,,🙊।
               गरमियां आ रहीं,,, पहले बच्चे ननिहाल/ददिहाल जाते थे माँ के साथ,,वहाँ ताल-तलैया,नदी देखने को मिलती थी। अब तो नानियों/दादियों के ननिहाल/ददिहाल भी आधुनिक,,,, वहाँ अब 'वाॅटर पार्क' दिखते हैं,,,,(अब अपनी ही कहूँ तो,,भावी भविष्य की आधुनिका दादी बनने की कतार में कतारबद्ध हूँ😜)
 कहने का तात्पर्य ये कि,,, धीरे-धीरे कृत्रिमता प्राकृतिकता पर हावी होती जा रही। यह कृत्रिमता मात्र हमारे प्राकृतिक परिवेश में ही नही अपितु मानवीय आचरण पर भी अपना वर्चस्व स्थापित करती जा रही है।
     कार्य-कारण पर प्रकाश नही डालना चाहती क्योंकि,,जब हम इतने अधिक बुद्धिमान हो चुके हैं एंव लगातार और अधिक बुद्धिमान होने के लिए  विकासशील हैं,,,,,उस एवज में 'कार्य और कारण' क्या हैं,,,,इससे भी भली-भांति अवगत हैं। अतः इसपर व्यर्थ चर्चा ना कर अपनी अनुभुतियों को लिखना श्रेयस्कर।
          अरावली की पहाड़ियों को काटकर चौड़ी सड़के बन गई हैं और बन भी रही हैं,,,,उन्ही सड़कों पर अपनी कार से कई बार गुजरी हूँ,,। एक तरफ अनछुआ अनगढ़ अरावली का बीहड़ है,,,,जहाँ टेसू के तथा अन्य जंगली पादप-वनस्पतियों के खुशनुमा से बेतरबीब जंगल हैं,,,,, तो दूजी तरफ मानव निर्मित बड़ी खूबसूरती से तराशे हुए उपवन।
           इन उपवनों की सैर करने पर मन सदा विस्मृत ,,आंखें अचम्भित,दिमाग उलझा हुआ रहता है। इस का कारण अवश्य बताना चाहूँगीं,,,,!!!  बरगद का विशालकाय वृक्ष एक रोटी खाने वाली परात में उगा हुआ ,,,, केले का पेड़,,, गोल तने के बजाए फव्वारे दार निकलते पत्तों को लिए,,,,नाना प्रकार की झाड़ियां कहीं हाथीं के आकार की छंटी हुई तो कहीं जिराफ के आकार में ढली,,,। उस पर हरियाली देखनेऔर स्वच्छ वायु खींचने के लिए उमड़ता लोगों का विशाल झुंड,,,,!!!
            अब यहाँ के कृत्रिम परिवेश में आकर,,मन विस्मृत,,आंखे अचम्भित,,और दिमाग़ उलझा हुआ ही रहेगा ना,,?
       इसके विपरीत अरावली की अनछुई प्राकृतिकता की ओर देखने मात्र से मन शान्त,,नयन मुदित और दिमाग सुलझ सा जाता है। परन्तु आशंकित हूँ,,, कृत्रिमता की बेलगाम होती प्रवृत्ति से। कहीं ऐसा ना हो,,, कि मानव सोच इन प्राकृतिक पहाड़ियों के,बीहड़ों के 'बॅनशाई' बना दें और इनका नाम रख दें,,,,'द अरावली हिल्स' ,,,,,! लोगों का हुजूम यहाँ छुट्टियां बिताने पहुँचे,,,, शांति और सुकून की तलाश में परन्तु विस्मृत,अचम्भित और आन्दोलित मन लिए वापस लौट आए।
         अरावली की पहाड़ियों को एक उदाहरण के तौर पर लेकर मैने अपने भाव व्यक्त किए।,,,
     तूफानी गति से अपने मद में मदमाती कृत्रिमता की बुलेट-ट्रेन पृथ्वी की कइयों अनछुई अनगढ़ प्राकृतिकता को रौंदती आ रही। मन आशंकित है,,, कहीं निकट भविष्य में "प्राकृतिकता" शब्द को परिभाषित करने के लिए हमारे पास उदाहरण भी बचेंगें या नही,,,,,,???????????

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

ओ बूँद आखिरी,,, (ग़ज़ल)

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

एक शेर अर्ज़ है,ग़ज़ल से पहले,,,

"ज़िन्दगी की हर शय में छुपी होती है कोई ग़ज़ल,
 कब अल्फ़ाज़ों में बिखर जाए,और पता भी ना चले।"


हौले से सरक जा,ओ बूँद! आखिरी,
तू टपक जाए ,और पता भी ना चले।

कौन रखता है बूँदों का हिसाब,
वो सूख जाए,और पता भी ना चले।

खुली आंखों से सजाए, झूठे से ख्याब़,
हट जाए भरम का नक़ाब,और पता भी ना चले।

बादलों को तराशा,,?ये कैसा है मज़ाक!
हवा से छटक जाए,और पता भी ना चले।

रेत के घरौंदों में भी कोई रहता है जनाब?
लहर के थपेड़ों से ढह जाए,और पता भी ना चले।

ठोकरों के जानिब ज़िन्दगी दिखा देती है औक़ात,
मग़रूरियत का उतर जाए सैलाब,और पता भी ना चले।

सम्भल जाने का अब दिल करता है आग़ाज़,
रहे मशरूफ़ सफर,और पता भी ना चले।

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

सुनो मेरे वट,,,,!!!!

                    (चित्राभार इन्टरनेट)

उरभूमि,,
मरूभूमि तो नही थी,,,,
कुछ बीज बोए थे अपने हाथों से,,,
तो कुछ,,
खुद ब खुद उग आए थे,,,
शायद चिड़ियों की करतूत
या थी गिलहरियों की
उछल-कूद,,,
देखते-देखते अंदर,
एक जंगल खड़ा था,,,,
कहीं ऊचें चिनार,,
तो कहीं देवदारों का
झुंड बना था,,
उनपर लिपटी लता-वल्लरियां,,
इतराई हुई सी फैल रही थीं,,,,,
और
मैं,,,,,,
इन झुरमुटों के
 बीच की पगडंडियों पर,,
बस चलती चल रही थी,,,

विगत वर्षों में कुछ
अलग सा पाया था,,,,
किसी रीते से उरखंड पर
एक अंकुर
में होते प्रस्फुटन ने,,,,,,
कौतूहल का वलय चक्र घुमाया था,,,,,
धीरे-धीरे वह नन्हा सा
अंकुर फैलाव पाता गया,,
उस रीते से खंड पर,
एक वट-वृक्ष का आकार
विस्तार पाता गया,,,,,
उसकी जड़ों की पहुँच,,
पाताल की
अथाह गहराइयों को जकड़ती गईं,,
और,,,,,ऊपर धरातल पर,,,,,,,,
निकलती उसकी बाह्य जड़ें,,,,,
बड़ी मजबूती से,,,
रिक्त माटी को अपनी
मुट्ठियों में कसती गई,,,,,,
उसकी घनी छांव में
 इच्छाओं का
कोई वनस्पति,,,कोई पादप,,,,
अब नही पनपता है,,,
उरखंड की समस्त
शिराओं में ,,,,,, उस
घनीभूत वट-वृक्ष
का रस,,,
रुधिर कणिकाओं सा
धनकता है,,,,
जंगलों के झुरमुटों
से विलग,,
जब एकान्त में वट-वृक्ष
की छांव तले,,,, सुस्ताती हूँ,,
खुद को वट की
बाह्य जड़ों की आगोश
में जकड़ा पाती हूँ,,,
मेरे पाताल तक फैला
तुम्हारा असीम विस्तार,,,,
मुझे  उलझे कानन से
दूर ले जाता है,,
तुममें ही मेरा
समस्त,,,,,
मेरा समग्र,,सब घुल जाता है,,,,,,

सुनों मेरे वट!
मेरी माटी के हर
रोम छिद्र में तुम्हारा मूल
समाया है,,,,
मेरे आनंद और वियोग
का वृष्टि जल,,,
तुमसे ही होकर,,,मेरे
भूगर्भ में रिसता है,,,
उसी जल से मेरे अंतस
की संवेदनाओं का तरल
बनता है,,,
और,,,,,,,,,,
मेरे ऊपर का प्राकृतिक संतुलन
चक्र निरंतरता से
चलता है,,,,,
मेरा बाह्य चाहे जो भी कहता हो,,,
पर मेरा अंतर बस,,,,,,,,
तुममे ही गहता है,,,,,,
तुमको ही कहता है,,,
तुमसे ही बहते है,,,,