(चित्राभार इन्टरनेट)
एक शेर अर्ज़ है,ग़ज़ल से पहले,,,
"ज़िन्दगी की हर शय में छुपी होती है कोई ग़ज़ल,
कब अल्फ़ाज़ों में बिखर जाए,और पता भी ना चले।"
हौले से सरक जा,ओ बूँद! आखिरी,
तू टपक जाए ,और पता भी ना चले।
कौन रखता है बूँदों का हिसाब,
वो सूख जाए,और पता भी ना चले।
खुली आंखों से सजाए, झूठे से ख्याब़,
हट जाए भरम का नक़ाब,और पता भी ना चले।
बादलों को तराशा,,?ये कैसा है मज़ाक!
हवा से छटक जाए,और पता भी ना चले।
रेत के घरौंदों में भी कोई रहता है जनाब?
लहर के थपेड़ों से ढह जाए,और पता भी ना चले।
ठोकरों के जानिब ज़िन्दगी दिखा देती है औक़ात,
मग़रूरियत का उतर जाए सैलाब,और पता भी ना चले।
सम्भल जाने का अब दिल करता है आग़ाज़,
रहे मशरूफ़ सफर,और पता भी ना चले।
एक शेर अर्ज़ है,ग़ज़ल से पहले,,,
"ज़िन्दगी की हर शय में छुपी होती है कोई ग़ज़ल,
कब अल्फ़ाज़ों में बिखर जाए,और पता भी ना चले।"
हौले से सरक जा,ओ बूँद! आखिरी,
तू टपक जाए ,और पता भी ना चले।
कौन रखता है बूँदों का हिसाब,
वो सूख जाए,और पता भी ना चले।
खुली आंखों से सजाए, झूठे से ख्याब़,
हट जाए भरम का नक़ाब,और पता भी ना चले।
बादलों को तराशा,,?ये कैसा है मज़ाक!
हवा से छटक जाए,और पता भी ना चले।
रेत के घरौंदों में भी कोई रहता है जनाब?
लहर के थपेड़ों से ढह जाए,और पता भी ना चले।
ठोकरों के जानिब ज़िन्दगी दिखा देती है औक़ात,
मग़रूरियत का उतर जाए सैलाब,और पता भी ना चले।
सम्भल जाने का अब दिल करता है आग़ाज़,
रहे मशरूफ़ सफर,और पता भी ना चले।
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