सोमवार, 2 अप्रैल 2018

सुनो मेरे वट,,,,!!!!

                    (चित्राभार इन्टरनेट)

उरभूमि,,
मरूभूमि तो नही थी,,,,
कुछ बीज बोए थे अपने हाथों से,,,
तो कुछ,,
खुद ब खुद उग आए थे,,,
शायद चिड़ियों की करतूत
या थी गिलहरियों की
उछल-कूद,,,
देखते-देखते अंदर,
एक जंगल खड़ा था,,,,
कहीं ऊचें चिनार,,
तो कहीं देवदारों का
झुंड बना था,,
उनपर लिपटी लता-वल्लरियां,,
इतराई हुई सी फैल रही थीं,,,,,
और
मैं,,,,,,
इन झुरमुटों के
 बीच की पगडंडियों पर,,
बस चलती चल रही थी,,,

विगत वर्षों में कुछ
अलग सा पाया था,,,,
किसी रीते से उरखंड पर
एक अंकुर
में होते प्रस्फुटन ने,,,,,,
कौतूहल का वलय चक्र घुमाया था,,,,,
धीरे-धीरे वह नन्हा सा
अंकुर फैलाव पाता गया,,
उस रीते से खंड पर,
एक वट-वृक्ष का आकार
विस्तार पाता गया,,,,,
उसकी जड़ों की पहुँच,,
पाताल की
अथाह गहराइयों को जकड़ती गईं,,
और,,,,,ऊपर धरातल पर,,,,,,,,
निकलती उसकी बाह्य जड़ें,,,,,
बड़ी मजबूती से,,,
रिक्त माटी को अपनी
मुट्ठियों में कसती गई,,,,,,
उसकी घनी छांव में
 इच्छाओं का
कोई वनस्पति,,,कोई पादप,,,,
अब नही पनपता है,,,
उरखंड की समस्त
शिराओं में ,,,,,, उस
घनीभूत वट-वृक्ष
का रस,,,
रुधिर कणिकाओं सा
धनकता है,,,,
जंगलों के झुरमुटों
से विलग,,
जब एकान्त में वट-वृक्ष
की छांव तले,,,, सुस्ताती हूँ,,
खुद को वट की
बाह्य जड़ों की आगोश
में जकड़ा पाती हूँ,,,
मेरे पाताल तक फैला
तुम्हारा असीम विस्तार,,,,
मुझे  उलझे कानन से
दूर ले जाता है,,
तुममें ही मेरा
समस्त,,,,,
मेरा समग्र,,सब घुल जाता है,,,,,,

सुनों मेरे वट!
मेरी माटी के हर
रोम छिद्र में तुम्हारा मूल
समाया है,,,,
मेरे आनंद और वियोग
का वृष्टि जल,,,
तुमसे ही होकर,,,मेरे
भूगर्भ में रिसता है,,,
उसी जल से मेरे अंतस
की संवेदनाओं का तरल
बनता है,,,
और,,,,,,,,,,
मेरे ऊपर का प्राकृतिक संतुलन
चक्र निरंतरता से
चलता है,,,,,
मेरा बाह्य चाहे जो भी कहता हो,,,
पर मेरा अंतर बस,,,,,,,,
तुममे ही गहता है,,,,,,
तुमको ही कहता है,,,
तुमसे ही बहते है,,,,

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