बुधवार, 18 अप्रैल 2018

वो झूमती,,किसी गाछ सी,,,


  •                         (चित्राभार इन्टरनेट)


वो किसी,
झूमते गाछ सी ,,,पुरवैया
पछुवा के बयारी झोंकों
से अह्लादित,,,,,,,

अपनी शाखा-प्रशाखाओं
संग पनपती सूखती,,,
कितने विहंगम् विहगों
के नीड़ सहेजे खुद में,,,

रोध,वृष्टि,सहती
छाया,फल-पल्लवन
कर्तव्यों को निभाती,,,

जड़ की पकड़ से
बाधित,वह चेतनापूर्ण
किन्तु  अवचेतन सी,,,,

बस प्रेम कर बैठी
एक सावनी मेघ से,,

वह मेघ भी भर लाता था
प्रेम उदधि के उर से
वाष्पित प्रेम जल बिन्दु
असंख्य,,,,

फिर बरस पड़ता था
अपनी प्रिया पर,,
उसकी अविरल वृष्टि
से सिंचित होती रहा,
उसका शीर्ष से मूल
तक,,,

परन्तु वह जड़ बाधिता,
प्रेमातिरेक पोषिता,,
सोच सावनोपरान्त की,
मनकमल कुम्हलान सी,,,,

मन बिछोह शंकित लिए,,
खुद में कई निर्णय किए
वह द्वंद से लड़ती रही,
दीमक हिये भरती गई,,,,

निष्कर्ष से वो आश्वस्त है,
भय में भी वो अलमस्त है
खुद का जाया खुद ही
में ध्वस्त है,,

अंतर का सब है गल रहा
स्वविलय में व्यस्त है,
खोखला तरू अस्तित्व बन
गिर जाएगी वो एकदिन,,,

प्रेम नियम निभ जाएगा
पूर्णता ना पाएगा,,

वो झूमती
 किसी गाछ सी,,
बिम्ब बन रह जाएगी,,
आभास का परिहास बन
प्रेमगीत दोहराएगी,,

लिली🌿

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