मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

तू मत आया कर ऐ शाम!!


मत आया कर रोज़ रोज़,,,,
ऐ शाम!!!
तू छीन ले जाती है मेरी भटकन
भी अपने साथ,,,
जिसके संग थकना मुझे बेहद
भाता है,,
मेरे 'दिन'की बाहों में डालकर
बाहें
ना जाने किन-किन गली-कूचों
से होकर गुज़रती हूँ,
कभी फिक्र तो कभी बड़ी
बेफिक्री लिए,
कभी ढेरों जिक्र तो कभी शून्य
सी ख़ामोशी लिए,,
बड़ी बेरहम लगती है तेरी
सिन्दूरी चौखट,,
बड़ा आधिपत्य हैं तेरी
संध्या आरती में,,,
बस यहीं मैं खुद से हार
जाती हूँ,,,
मेरी भटकन में ठहर का
तो सुकून नही,,
पर उसकी बाजुओं को कसती
मेरी हथेलियों में एक ज़िद है,,,
उसे थामें रखने की,,,सदा
के लिए अपने पास,,
मत आया कर शाम तू रोज़ रोज़
ऐ शाम!
तू छीन ले जाती है मेरी भटकन
का सुकून भी अपने साथ,,

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