मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

भूडोल,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


अंदर
तक थर्राई थी,
वो खुश थी,
या घबराई थी???
शायद भूडोल
का कारण
आज जान पाई थी!!

संवेदनाओं का तरल
कहीं अनंत
गहरे आत्म-पातल में
दबा होता है,
कई परतों के मोटे
आवरणों में
छिपा होता है,,,

कोई भेद जाता है,
अपने अगाध
प्रेम चुम्बित
स्पर्श से,,,
और,
कर जाता है
समस्त अभिव्यक्तियों
को अवाक्,,,
तरल की हलचल
फिर किसी
तूफानी समन्दर
से होती नही कम
डोल जाता है
भूगर्भ,,
फट पड़ती है
ऊपरी सतह
लिए गहरे फांक,,

नही पता खुश थी?
या
घबराई थी?
पातल की गहराइयों
से बाह्य तक
'वो'
किसी भूडोल की
चपेट में आई थी,!!

होता है कोई
'अतिविशिष्ट' जो
पातल के तरल
तक को देख
पाता है,,
सामान्य को तो
अचला का
आँचल ही
नज़र आता है,,,

शायद अपने
गर्भीय रहस्यों को
उसके मुख से
सुन तनिक नही,
अधिक भावुक
हो आई थी,,
पातल की गहराइयों
से बाहर तक
भूडोल की
चपेट में आई थी,,,



शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

मैना रानी,,,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

👶#बालकविता👶

🐦🐦🐦मैना रानी🐦🐦🐦

आँखों में सब करती कैद,
मैना रानी   बड़ी   मुस्तैद।

नपे पगों   से चलती डेढ़,
जैसे   फौजी  करे परेड।

एक अकेली फिरे दुखी,
दो दिखे तो मिले खुशी।

मीठे सुर में  गाती    गान,
पीला अंजन आँख मे तान।

दल में रहती हैं ये साथ
भूरी काली इनकी गात।

कभी घास कभी बैठी तार,
भिन्न रंग और कई प्रकार।

लिली🐦

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

🐴अड़ियल टट्टू🐴

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

👶बालकविता👶




भोंदू भाई   अड़ियल टट्टू,
अपनी ज़िद के बने हैं रट्टू।

रत्ती भर ना   हड़िया ठेलें ,
दिनभर सोवें बड़े निखट्टू।

अड़ जाएं जब बात पे अपनी,
टस्स से मस्स ना होते गट्टू ।

भोंदू भाई अड़ियल टट्टू,
अपनी ज़िद के बने हैं रट्टू।

लिली 🐴

🐦🐦 अपने मुँह बनते मियां मिट्ठू🐦🐦



ये मेरे नन्हे दोस्तों के लिए❤

👶बालकविता👶



अपने मुँह बनते
मियाँ मिट्ठू,,
लेकर तारीफों
के पिट्ठू।

मुस्कान भतेरी
मुख पर आए,
जब होते अपनी
बातों पे लट्टू।

अपने मुँह बनते
मियाँ मिट्ठू,
लेकर तारीफों
के पिट्ठू।

लिली🐦👶

कुछ यूँ था,,,अपना अफ़साना

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कुछ यूँ था,,,
उनके लिखने,,
और,
मेरे पढ़ने का
अफसाना,,
बात कलम
की स्याही से
काग़ज पर
नही,
मेरे दिल पर
लिखती गई,,,
ना जाने कब,,,?
मै उनकी कविताओं
में अनुभूतियों
सी घुलती गई,,,

सूरत
तुम्हारी तब
देखी नही थी,
हमारे संवादों
के रंग से ही
तुम्हारी सीरत मैं
रंगती गई,,,
मै कब,कैसे
आभासी कल्पनाओं
के स्वप्न
बुनती गई,,
क्षितिज के पार
भावनाओं के
उड़नखटोले पर
तुम संग उड़ती गई,,,

देखो ना!!!
अब मै भी
तुम्हे शब्दों में
लिखने लगी हूँ,,
रचनात्मकता की
नई कृतियां
गढ़ने लगी हूँ,,,

दृढ़ विश्वास
है मेरा,,
समाज ना सही
साहित्य हमें
स्वीकारेगा,,
हमारे सृजन
का हार,
उसके लालित्य
को संवारेगा,,

तब देखना!!!
कैसे हमारी प्रीत
किसी पताका
सी साहित्य पथ
पर फहराएगी,,
हमारी अभिव्यक्तियां
सृजन सागर की
सच्ची काव्यांजली
कहलाएगी,,,

तो कुछ ऐसा था,,,,
उनके लिखने
और
मेरे पढ़ने का
अफ़साना
रचनात्मकता की
डगर पर,
एक दूजे का
हाथ थाम,
हमे अमरत्व है पाना,,,

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

पक्षी बिच मन या मन बिच पक्षी ,,,!!!


                       (चित्राभार इन्टरनेट)

अब डाल-डाल फुदकने का जी नही करता,,,। मेरी चंचल उड़ान को गाम्भीर्य की ठौर रास आने लगी है,,,। देखती हूँ अपनी बालकनी से पंक्षियों के जोड़े को,,,किसी शाख पर बैठे हुए,,,,,तो मन भर उठता है।
      जाती ठंड जैसे फिर पलट कर आ गई है। हवाएं तेज़ और एक बर्फीली छुअन लिए हैं। कानों में तोतों के झुंड की आवाज़ घुल रही है,,,कभी शान्त तो कभी एकदम से बोल उठते हैं,,,।अक्सर बिजली के तार पर ना जाने कहाँ से उड़कर आ बैठ जाते हैं और आपस में संवाद करते हैं। ऐसा लगता है मानों तोता परिवार की किसी गम्भीर मुद्दे पर सलाह मशवरा चल रहा हो।
   बुलबुल जैसे पुचकार के अपने साथी से पूछ रहा-" कह ओ गुइयां चलिहे उह पार,,?" और उसकी संगिनी ने नकारते हुए कहा हो-" बइठो ना बलम दो घड़ी पास बड़ा भावे मोहें तुम,ये सुबह,और ठंडी हवाओं का साथ,,,,।"
      वो हल्की सी धूप में गौरैया,,,,अपने परों को फूला कर किसी रुई के फाए सी गोल-मटोल होकर बैठी है,,,,। शरीर की गरमाहट से आराम पा कर उसी पलके मुंद रही हैं,,,,। उसके छोटे से चेहरे पर एक सुकूनी आभा है,,,पर एक आहट से चौंक कर पलकें खुलती भी हैं तीव्रता से,,,,।
         एक पूरा दल सतबहनियों का,,,,,कितना शोर मचाता हुआ,,,,उफ्फ,,!! जैसे कक्षा में टीचर के ना आने से पूर्व सारे बच्चे अपनी धुन में चिल्लाते हुए,,,कोई इधर दौड़ता हुआ,,तो कोई पीछे की बेंच पर अपने प्रिय दोस्त के साथ बतियाता हुआ,,,कोई बेवजह ही झगड़ता हुआ,,,तो कोई उकसाता हुआ,,,। मिट्टी में दंगल लड़ता हुआ सतबहनियों का दल,,, पीली चोंच और गुस्सैल आँखों वाले,,ये पछी कितने लड़ाका से दिखते हैं शक्ल से,,,,।
        सब कहते हैं,,सतबहनियों का दल एक साथ रहता है,,एक मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति स्वरूप मैं इनके दल को देखते ही पहले गिनती करती हूँ,,,। अक्सर सात पाया,,कभी कभी संख्या अधिक भी लगी,,,हो सकता है दो दल एक साथ हों,,,,,। मेरी माँ इन सतबहनियों के दल की चांय-चांय सुनकर खुश नही होती थीं,,,। इन्हे देखते ही बोलती थी,,"उड़ाओ इनको,,,नही तो आज झगड़ा होगा तुम्हारे बाबा से"। कैसी-कैसी किवदंतियां!!!!!
          मैना चिड़िया,, बड़ी मुस्तैदी से सड़कों पर टहलती हुइ सब तरफ गरदन घुमा कर जैसे निरीक्षण कर रही हों,,। इसको देखते ही अपने स्कूल के दिनों की एक कहावत दिमाग में दस्तक देने लगती है,,,,। शायद बहुत से लोग मेरी तरह इस तथ्य पर विश्वास करते हों,,,,! अंग्रेज़ी की कहावत,,,, "वन फाॅर साॅरो,,, टू फाॅर जाॅय,,, थ्री फाॅर लेटर,,,,,फोर फाॅर बाॅय,,,,,,।" पता नही कितना सत्य है,,,।
       अपने हाॅस्टल के दिनों में,,,,'मैना' चिड़िया पर बनी कहावती संख्या पर एक विचित्र सा आलम्बन था,,,।
हाॅस्टल से यूनिवर्सिटी जाते समय यदि एक मैना दिखी तो मन वहीं से उदास हो जाता था,,,,और दूजे पल दूसरी मैना की तलाश निगाहें करने लगती थीं,,,। तीन मैना दिखीं तो एक अनजानी सी खुशी होती थी,,,,शायद मेरी स्कूल की सहेली गुंजन का या नेहा का पत्र आएगा,,,,। चार मैना कभी नही दिखीं😃😃😃😃😃 ।
        ये मैं कहाँ अतीत में पहुँच गई,,,! वापस आती हूँ,,,मयूर बहुत हैं यहाँ,,,कल बैठी थी बाल्कनी में तो एक मेरे बगल वाले घर के छज्जे पर आकर बैठा,,,,,,। मैं भी बिना कोई हरकत या आवाज़ के बैठ उसको निहारने लगी,,,,,। कितना सुन्दर होता है यह पक्षी,,,,गरदन की गहरा नीला रंग,,,,कभी नीला तो कभी हरा दिखता है,,,सर पर कलगी क्यों बनाई होगी ईश्वर ने,,,,??? यह प्रश्न भी आया,,। फिर लगा होगा कुछ कारण ,,,।
       मयूर के लिए उड़ना बहुत परिश्रम साध्य होता है,,,कल महसूस किया,,,। छज्जे से छत तक उड़ने से पहले उसे खुद को बहुत तैयार करना पड़ता है,,,। मैने ग़ौर किया कि मयूर कई बार छज्जे से छत तक की दूरी का आंकलन कर रहा था। फिर उसने अपने बड़े और अन्य पक्षियों की अपेक्षा भारी शरीर को एक 'क्ग' की ध्वनि के साथ उड़ाया,,,ठीक वैसे ही जैसे,,हमारा भारी शरीर जब बैठा होता है,,और उठते वक्त ,,'उऊम्ह' की आवाज़ करते हुए अपने घुटनों पर हाथ टिका खड़ा होता है।
       मयूर का चटखीले रंगों का मखमली सुन्दर शरीर और उसके पंख उसे मोरनी से अधिक आकर्षक बनाते हैं,,और मोरनियों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है,,,पर मैने एकबार मोरनी को बहुत करीब से देखा,,,उसकी सफेद और भूरे परों वाले शरीर और गरदन पर गाढ़े हरे रंग के चमकीले पंख  जो कि,,एक अलग रंगत बिखरते हैं,,,जो बहुत सौम्य सी होती है,,भड़कीली नही। मोरनी की आंखें बहुत खूबसूरत होती हैं,,,,जैसे किसी श्रृंगार काव्य की मुग्धा नायिका के कजरारे नयन!!!! मोर की कलगी की अपेक्षा मुझे मोरनी की कलगी अधिक सुंदर लगी ।मोरनी का सौन्दर्य वर्णन सहानुभूति परक नही था,,,गौर से देखी गई स्वाभाविक प्रतिक्रया के वशीभूत निकला।
        नीचे के घरों के बागीचों में लगी 'झाड़ियों की बाड़' और उसकी घनी झाड़ में अचानक से फुदकती दिखती हैं,,,छोटी-छोटी 'टेल बर्ड' और 'हम्मिंग बर्ड' कितनी फुर्तीली,,,,,,!!!!!! और लगातार चूँईं चूईं करती हुई,,,,। इनकी बोली के ताल पर इनकी उपर की तरफ उठी हुई पूँछ,, क्या खूब थिरकती है,,,,,!!! पल में इधर फुदकी पल में उधर,,,,,, और मुंडी तो घुटुर घुटुर हिलती ही रहती है,,,,। बड़ा आनंद आता है झाड़ में चुहलबाज़ी करती हुई इन नन्ही चिड़ियों को देख।
          जब इतने सारे पक्षियों के बारे में बात कर रही तो,,, 'सफेद उल्लूओं' को कैसे छोड़ दूँ,,,अक्सर गर्मियों की मध्यरात्रियों में मेरे घर के सामने खड़े दो ऊँचे पाम ट्री पर उल्लूओं का दल बहुत ज़ोर ज़ोर शोर मचाते हैं,,,कि अक्सर नींद टूट जाती है। कहते हैं लक्ष्मी जी के वाहन को यदि कोई देख ले तो धन लाभ होता है,,,,। एक दो बार ऐसा हुआ है कि इनकी आवाज़ सुन मैने भी 'उक्त कहनी' को जांचने के लिए,,,अपनी खिड़की से बाहर के तिमिर को चीर उल्लू की तरह आँखें फाड़ फाड़ कर सफेद उल्लूओं को देखने का प्रयास किया,,,,,पर दिखे नही कभी।
        अब इसे अपनी उत्कंठा का फल कहूँ या क्या कहूँ पता नही,,? परन्तु एक दिन सुबह ऊपर की छत पर कपड़े सुखाने गई तो देखती हूँ के एक सफेद रंग के आकार में अच्छे खासे विराट 'उल्लू महाराज' छत की दीवार पर विराज मान थे,,,। मेरी प्रसन्नता अब मध्यरात्रि में चिल्लाते उल्लूओं सी शोर मचाने लगी। आश्चर्य का विषय था,,के दिन में उल्लू देव ने कैसे दर्शन दिए,,क्योंकि दिन में इस पक्षी को दिखता नही है,,। खैर मेरे पदचाप कि खसखसाहट को सुन उन्होने 180° तक गरदन घुमाकर मेरा इस्तकबाल किया,,पर टस्स से मस्स ना हुए अपनी जगह से। उस वर्ष पतिदेव को पदोन्नति सह वेतनवृद्धि अच्छी हुई,,,। खबर जब फोन पर मिली तो पहला वाक्य यही निकला,,, लक्ष्मी जी के वाहन का आशीष मिल ही गया।
      मै लिखने कुछ और ही बैठी थी पर देख रही हूँ कि मैने कुछ और ही लिख डाला है,,,अतः शुरूवाती पंक्तियां आगे के वृत्तांत से मेल नही खा रही अब,,,। विचारों का प्रवाह स्वयं ही मुड़ता गया और टाइप होता गया। मैने भी धारा के प्रवाह से छेड़-छाड़ ना करते हुए उभरते विचारों को लिखते रहना उचित समझा,,, परन्तु मै उसी शुरूवाती मनोभाव की ओर पुनर्गमन करना चाहती हूँ,,,। चाहती हूँ,,किसी बुलबुली जोड़े सी एक बिजली के तार से आधार पर जाती ठंड की चुभन का एहसास पाना,,,,,,,,। चाहती हूँ,,,ठंड से खुद को बचाने के लिए रुई के फाए सी गौरैया की तरह गुनगुनी धूप में अलसाना,,,,,,। जीवन दंगल को अपने लड़ाका रूख से जीतती सतबहनी दलों की चांय-चांय के शोर को सुनना।
       मेरी मन मैना किसी प्रचलित कहावत की पात्र नही बनना चाहती,,,वह तो अब नर्म हरी घास पर मुस्तैदी से टहलना चाहती है।  मेरे मन का मयूर भी किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी क्षमता और काम की दुरुहता का सटीक आंकलन कर अपनी उड़ान भरे,,,।
     मै अपने मन के उपेक्षित कोने को भी मोरनी के उपेक्षित सौन्दर्य की तरह सराहना सीखूँ। जीवन की कोंचिली झाड़ियों में किसी हमिंग बर्ड या टेल बर्ड सी कुशलता से चहकती हुई निकल सकूँ।
         दुर्लभ दर्शनीय सफेद उल्लुओं सी दबी अभिलाषाएं रोज़ ना सही एक बार तो साक्षात् दर्शन दे मुझे आनंदोल्लासित कर जाएं,,,और मैं उसी उल्लास के रस को एक ठौर पर बैठ पीती रहूँ।
        सच में,,,,,,, अब मन पक्षी  चंचलता की उड़ान तज गाम्भीर्य की एक सशक्त शाख पर बैठना चाहता है,,,,,,,,,,,
भावों को कलमबद्ध करते करते,,,,मन पक्षियों के बीच बैठ गया या मन बिच नाना भावों के पक्षी बैठ गए यह कह पाना मुश्किल लग रहा,,,,,,,,
       
      

गुब्बारे,,,,, (लघुकथा)

                      (चित्राभार इंटरनेट)

"भाभी आज कौन सा दिन है?"

ज़मीन, पर अपने कौतुहल को दबाते हुए,,बड़े अनमने ढंग से झाड़ू फेरते हुए हेमा ने सरिता से पूछा,,,।

सरिता ने यह सोचते हुए कि, यह गरीब इंसान क्या जानेगी के आज पूरा ज़माना प्रेमोत्सव में ढूब 'वेलनटाइन डे' मना रहा है,,,
 जवाब दिया-  "शिवरात्रि है आज",,।

सरिता के जवाब से संतुष्ट ना होते हुए हेमा ने फिर पूछा-- 'शिवरात्रि के अलावा क्या दिन है आज,,??'

बाहर वाली मैडम कि नई बहू आज पूरा घर 'दिल आकार के गुब्बारों से सजा रही हैं,,।
मैने पूछा उनसे तो खूब हंसीं,,, और कुछ अंग्रेजी में नाम बताया,,,,

तभी सरिता ने हंसते हुए जवाब दिया,,, वैलनटाइन डे !!!

हेमा के चेहरे पर भी एक हंसी की आभा फूट पड़ी और बोली-- " हाँ वही बे-ल-न-टा-इ ,,,पता नही मेरे तो मुँह से निकल भी नही रहा,,, बोलकर हंसने लगी ,,।

सरिता ने भी पूरे प्रसंग का आनंद लेते हुए बोला - " हाँ आज प्यार का दिन है,,,"

हेमा ने हंसते हुए अपनी कुर्ते की पाॅकेट से कुछ लाल-सफेद दिल आकार के गुब्बारे निकाल मुझे दिखाते हुए बोली,, -"नई वाली भाभी ने ये गुब्बारे मुझे भी दे दिए,,

बोली हैं- 'तुम भी लगा लेना',,, और अपने पति को भी -"है-प्-पी,, बे-ल-न-टा-इ -डे बोल देना,,,,,,
बोल हेमा थोड़ा लजाते हुए हंस दी।

फिर हेमा नई भाभी से प्राप्त 'बे-ल-न-टा-इ दिन की हतप्रभ करती विशिष्टताओं को बड़े उत्साह के साथ बताने लगी,,,।

"भाभी बोल रही थी-" आज के दिन गुलाब बहुत महंगें मिलते हैं,, एक गुलाब,, 50- 60 से कम नही,,और कैसे उसकी बाहर वाली मैडम की नई पुत्रवधु,, नानाप्रकार के 'प्रेमसूचक सजावट समाग्रियों से घर सजा रही थी।

सरिता पूरे वृत्तांत को बड़ी रोचकता के साथ सुन कर आनंदित हो रही थी।

सरिता ने पूरे प्रंसग का मज़ा लेते हुए थोड़ा हेमा को छेड़ते हुए उससे पूछा-
' तो हेमा,,तुम ये गुब्बारे अपने घर पर सजाओगी,,?"

"अब नई वाली भाभी दीं हैं इतने गुब्बारे ,,, तो घर जा कर मै भी सजा लूँगीं ,,,,
रोज़ कि वही घिसी-पिटी कामकाजी भागदौड़ से ऊबी उसकी आत्मा,,,क्षणिक ही सही परन्तु एक आकर्षण पूर्ण नवीन पल को जीने के मनोभाव को छुपाने का प्रयास करते हुए,,बड़ा भोला सा जवाब दे गई,,।

सरिता ने भी उसके मन को भांपते हुए ,हल्के से मुस्कुराते हुए कहा-"हाँ अब दिया है तो सजा लेना",,, और अपना काम करने किचन में चली गई।
****समाप्त****