मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

कुछ यूँ था,,,अपना अफ़साना

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कुछ यूँ था,,,
उनके लिखने,,
और,
मेरे पढ़ने का
अफसाना,,
बात कलम
की स्याही से
काग़ज पर
नही,
मेरे दिल पर
लिखती गई,,,
ना जाने कब,,,?
मै उनकी कविताओं
में अनुभूतियों
सी घुलती गई,,,

सूरत
तुम्हारी तब
देखी नही थी,
हमारे संवादों
के रंग से ही
तुम्हारी सीरत मैं
रंगती गई,,,
मै कब,कैसे
आभासी कल्पनाओं
के स्वप्न
बुनती गई,,
क्षितिज के पार
भावनाओं के
उड़नखटोले पर
तुम संग उड़ती गई,,,

देखो ना!!!
अब मै भी
तुम्हे शब्दों में
लिखने लगी हूँ,,
रचनात्मकता की
नई कृतियां
गढ़ने लगी हूँ,,,

दृढ़ विश्वास
है मेरा,,
समाज ना सही
साहित्य हमें
स्वीकारेगा,,
हमारे सृजन
का हार,
उसके लालित्य
को संवारेगा,,

तब देखना!!!
कैसे हमारी प्रीत
किसी पताका
सी साहित्य पथ
पर फहराएगी,,
हमारी अभिव्यक्तियां
सृजन सागर की
सच्ची काव्यांजली
कहलाएगी,,,

तो कुछ ऐसा था,,,,
उनके लिखने
और
मेरे पढ़ने का
अफ़साना
रचनात्मकता की
डगर पर,
एक दूजे का
हाथ थाम,
हमे अमरत्व है पाना,,,

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