मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

गौरैया,,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

कहानी

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सोफे की गद्दी को फर्श पर रख कर,, औंधे मुँह बड़ी फुरसत से लुढ़की पड़ी है,,लता । बरामदे के जाल के दरवाजें से आसमान की तरफ अपनी दृष्टि जमाए।
      मौसम आज अच्छा है,,बादल छाए हैं और हल्की-हल्की हवा चल रही है। आज कोई काम नही है,,। वरना शाम का समय बच्चों को ट्यूशन, खेल के मैदान,माँ के घर आने-जाने मे कैसे कट जाता है,,वह खुद ही नही समझ पाती।
       आने वाले चार दिनों की छुट्टियां हैं ,,एक अजीब सा सुकून है,,भाग दौड़ से राहत है। शायद इसी लिए मन की गौरेया थोड़ी अपनी मस्ती मे है,,,,,।

     गौरैया बहुत भाती हैं लता को,,छोटी सी,,काया,,भोली सी सूरत,,और चंचलता अपार,,। उसके काॅलोनी में गौरैया का झुंड अक्सर मिट्टी में चहचहाता हुआ,,बिजली के तारों और खिड़कियों पर फुदकता हुआ दिख जाता है।
     इन सबके अलावा एक विशेष लगाव है लता को गौरैया से,,,,। किसी का 'आह्लादित सम्बोधन' याद आ जाता है,,,इस नन्ही सी फुदकती चिड़िया को देखकर,,,और लता रोक नही पाती अपने चेहरे पर छा जाने वाली शरमाई,,गुलाबी आभा को।
      ऑनलाइन मुलाकात हुई थी सुमित से,,उसकी स्वाभाविक रचनाओं  ने बहुत प्रभावित किया था लता को। अक्सर लता सुमित से कुछ लिखने का आग्रह कर जाती थी। रोज़ ऑनलाइन मुलाकतों का सिलसिला बढ़ने लगा था। दोनो ही एक दूजे की प्रतीक्षा में रहते,,,,परन्तु बात करने की प्रबल चाहत होते हुए भी एक हिचकिचाहट रहती थी लता में,,वह थोड़ी देर के लिए आती,,,सुमित से बात कर के चली जाया करती थी,,।
     इतवार की छुट्टी थी,,। सुमित अपने परिवार से दूर दूसरे शहर में एक रूम लेकर अकेला रहता था। लता से ऑनलाइन परिचय होने के पश्चात छुट्टी के दिन,,बेसब्री से उसके आने की प्रतीक्षा में ढेरों कविताओं की रचना कर पोस्ट करता रहता,,। हर कविता जैसे पुकार रही हो,,,,, "आ जाओ अब",,,,,,!
      लता भी छुप-छुपकर उसकी कविताओं को पढ़ ,,बेचैनी का आनंद लेती,,मन ही मन मुस्कुराती। सुमित से बात करने की अपार इच्छा होते हुए भी वह खुलकर सामने नही आती थी। एक दिन सुमित की कुछ पंक्तियां आईं,,,
  
"यूँ आती हैं पल भर में चली जाती हैं
जैसे गौरेया मुंडेर पर फुदक जाती है

कई रंगों में गौरेया भी ढल जाती है
चहकती है और दिल मे उतर जाती है

यूँ फूदक कर  हर तनाव हर जाती है
होकर आकर्षित नित मुंडेर पर आ जाती है

गौरेया से मुंडेर की भावना की बंधी डोर है
शोर न चिल्लाना बस आती है फुदक जाती है"

बस इन पंक्तियों की गौरैया उसके व्यक्तित्व की पहचान बन गई,,। धीरे -धीरे हिचकिचाहट के बंधन लता को नही बांध पाए,,। कब लता सुमित की गौरैया बन गई वह खुद भी ना जान पाई।
अक्सर बड़े लाड़ से सुमित उसे 'मेरी प्यारी गौरैया!' बोलता था,,,और लता जैसे उदकती फुदकती सुमित के दिल की मुंडेर पर चहचहाने लगती थी।
       यह सिलसिला आज भी चल रहा है,,,,। गौरैया जैसे छत की मुंडेर या खुली खिड़कियों के पल्लों पर ही चहचहाकर ,,फुदक कर फुर्र हो जाती हैं,,। किसी ने प्यार से दाना-पानी  रख दिया तो दिन में कई बार आकर फुदक जाती हैं। वह उस मुंडेर से परच जाती हैं। पर उसकी  सीमा बस वहीं तक होती है।
        कभी घर के अंदर नही आतीं। ठीक उसी तरह लता भी सुमित की गौरैया है। उसकी मुंडेर से परची हुई,,।सुबह शाम आती रहती दाना चुगनें।
     कभी-कभी ऐसा भी होता है,,मुंडेर का मालिक दाना नही रख पाता,,व्यस्ता के कारण,,फिर भी गौरैया आती है,,,,परची हुई है ना,,,,,,,,। सूखे पानी के पात्र,,और कुछ पहले के पड़े दानों पर अपनी चोंच पटक कर,,,,इधर-उधर कूद जाती है,,,,। थोड़ी मायूसी दिखती है उसकी चहक में,, बेचैनी दिखती है उसकी फुदकन में। पर गौरैया आती है फिर भी मुंडेर पर।
    
      सुमित की गौरैया भी आती रहेगी उसके घर की मुंडेर पर,,,,,,। इन्ही ख्यालों मे खोई लता की आंखे छलक उठीं,,,,। कैसा अनुराग है यह,,,? जानती है कि कभी चाहकर भी मुंडेर लांघ कर अंदर नही आ सकती,,,पर एक आसक्ति है,,दोनों के बीच एक अदृश्य सा बंधन है,,,। इस बंधन में कसाव नही है,,किनारों का बंधन ही सही,, पर नदी सा बहाव है।
       तभी दरवाज़े की घंटी बजती है,,,,सुमित की मुंडेर से उसे उड़ना पड़ा ,,, और गौरैया का रूप तज लता दरवाज़ा खोलती है। बेटा खेल कर आ गया है,,,। लता जुट जाती है,,अपने कामों में,,,। जीवन का यथार्थ सुमित की मुंडेर से उसके घर के भीतर तक कभी नही ले जाएगा लता को। इस दर्द की टीस के साथ ही जीना है,,,।
      सुमित का 'मेरी प्यारी गौरैया' ! सम्बोधन एक मखमली सहलाहट सा सुकून दे जाता है। लता को कुछ पल फुदकने के लिए एक मुंडेर दे जाता है,,,,,,,,,।


*******समाप्त********

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