मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

डायरी

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

                   कहानी
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डायरी के पन्नों मे छुपी मन की कोमल अनुभूतियां !!!!! निश्चित रूप से किसी फूल को हाथ में पकड़,, ऊँगलियों से उसकी हर एक पंखुड़ियों को पूरी तन्मयता के साथ,,उसे अनुभव करने जैसा लगता है,,। अतीत के गलियारों का जैसे कोई कोना,,अपनी तरफ खींच लेता हो,,,। एक आलिंगन एक चुम्बन के लिए,,,,,,,। कुछ पल की यह सिहराती अनुभूति,,लम्बे समय तक मुस्कुराहट बिखराती रहती है। 
       आज पता नही कैसे याद आ गई प्रिया को अपनी 'डायरी',,,जो सालों से दबी थी 'बाॅक्स बेड' की गहराइयों में।
      'अपना समय' 'अपने साथ' गुज़ार रही थी। बच्चे- पति सब स्कूल आॅफिस जा चुके हैं। प्रिया तल्लीन होकर एक-एक पन्ने को पढ़ रही है,,,,अपने अतीत से रूबरू हो रही है।
     कभी आंखें नम हो रही हैं,,कभी लाज से गुलाबी हो रही हैं,,,,। कितने भाव समेटे हुए है हर पन्ना,,,,,,!!!!!!!
      15 जनवरी के एक पन्ने पर आंखें अटक गईं,, एक कौतूहल लिए। प्रिया ने पढ़ना शुरू किया,, पंक्ति के हर भाव उसके चेहरे पर तैरते हुए,,,जैसे एक बार फिर जी रही हो,,,,,,,,
    ' आज 'मूड' कुछ ठीक नहीं था। शनिवार के दिन बाज़ार जाने का कार्यक्रम था,,,। पर किन्ही कारणों से हो नही पाया,,,( प्रिया ने ज़ोर डाला,,क्या हो सकता होगा वो कारण,,,,? )खैर वह आगे बढ़ी,,,,,,,,।
      इतवार के दिन जाने का मुकर्र हुआ। पर नीरज की कार में कुछ समस्या आ गई और वह कार को दिखाने के लिए चले गए,,,,। 
     बोल कर गए की दोपहर का खाना खाने के बाद निकलेगें। खाना खाने के बाद 'पूल' खेलने चले गए,,,,,
( छुट्टी के दिन 'पूल' खेलने जाना भी एक नियम था,,,, प्रिया अपने आपसे ही बोलने लगी,,,चेहरा ऊपर उठाकर सामने देखते हुए,,,अब तो नीरज ने जाना ही बंद कर दिया है) मन ही मन बुदबुदाई,,,कितना कुछ बदल गया है,,,,,हाआआआआआ,,एक गहरी सांस छोड़ते हुए,, आगे बढ़ी।
       छुट्टी के दिन भी चले जाते हैं,,,,पता नही क्यों मुझे बहुत खराब लगता है,,। बस लगता है आंखों के सामने बैठे रहें ,,,,,,!! मुझे इसी बात पर बार-बार रोना आ रहा था,,,,तो कभी ये ख्याल के -" कितने खराब हैं,,पूरे हफ्ते ऑफिस जाते हैं,, सारे दिन में बस 2-3 घंटें मिलते हैं,,साथ रहने को,,,।छुट्टी के दिन तो साथ रहें,,,।
     माँ- बाबा से कितनी बातें करूँ मैं,,? वैसे भी वह इतने बड़े हैं मुझसे के समझ नही आता क्या बात करूँ,,,??
      फिर लगता है,,मैं क्यों अपना मूड खराब करती हूँ,,? सप्ताह भर ऑफिस का तनाव भरा काम,,एक दिन अपनी इच्छानुसार उसे बिताया तो क्या गलत है,,????
      दोनो तरह की विचारधाराओं की उठा पटक जारी थी,,पर मेरा स्वार्थ मुझपर पूरी तरह हावी था,,।
     इसीलिए मैं सो गई,,,,, हलांकि मै सोई नही थी,,,,हर आने वाले स्कूटर की आवाज़ पर चौकन्नी हो जाती,,,और खिड़की से झांक कर देखती,,,नीरज तो नहीं,,,,,,,?(प्रिया हंस पड़ी अपनी इस पंक्ति को पढ़)
        4 बजे आकर नीरज मेरे करीब आए,,और बाजार जाने के लिए बोला,,,मैने गुस्से को छुपाते हुए,,'नही जाने का मन है' का बहाना बना दिया,,,,। 
      वो समझ गए थे के मेरा मिजाज़ उखड़ा है,,,,। बेचारे बार-बार 'माफी' मांगते रहे,,,,। पर मैं पूरी कोशिश के साथ गुस्से को अंदर दबोच कर लेटी रही।
       नीरज फिर किसी काम से बाहर चल दिए। नीरज के जाते ही बिजली की तरह मेरा हृदयपरिवर्तन हो उठा,,,। मुझे अब खुद पर गुस्सा आने लगा,,, नीरज अब मेरे मन को 'बेचारे' लगने लगे,,,,(प्रिया हंसी रोक ना पाई) । बिचारे मेरे लिए जल्दी-जल्दी आए और मैं मुहँ फुलाए बैठी रही,,,,।
     उस समय लगने लगा,,काश कहीं मिल जाएं नीरज,,,,और मै उनको गले से लगा लूँ,,,,,,। अपनी हरकत पर पछतावे का उफान आ रहा था।
    लौटकर आते ही वह मेरे पास आए,,,मैं लेटी ही थी,, झट से उठी और नीरज को गले से लगा लिया,,,,,।(प्रिया आह्लादित भावों से भर उठी)
       नीरज मेरे पास आकर बैठ गए,,,,और बार-बार पूछने लगे-" बताओ तो सही हुआ क्या है?" लेकिन मै उतनी ही बार -"कुछ नही,,कुछ नही " करती रही,,,,, धीरे से उनके कंधे पर सिर रख दिया,,,और लगा सब कुछ भूल गई,,,। 
      न जाने कौन से सुख की अनुभूति होती है,,जब मैं नीरज के कंधे या सीने पर सिर रख कर आंखें बंद किए पड़ी रहती हूँ,,,,,,,,! लगता है,,,मेरा सर्वस्य यहीं समाया है।
     नीरज को पति रूप में पा अपने भाग्य को सराहती हुई,,,एक पल को खुद को कोसने भी लगी थी,,,,मै कितनी बुरी हूँ,,,अब से कभी भी ऐसे इनको कष्ट ना दूँगीं।"
        प्रिया ने बड़े मुस्कुराते हुए,,,पूरी नज़ाकत के साथ अपनी डायरी को बंद कर साइड टेबल पर रख दिया,,,,।
      थोड़ी देर सामने का खुला आकाश देखने लगी,,और ना जाने किन भावों में डूब गई,,,,,,। तभी पास रखा मोबाइल बज उठा,,और प्रिया की तंद्रा भंग हो गई ,,।
     'हैलो',,,, "जी शायद आपने गलत नम्बर डायल कर दिया है,,,आप कृपया नम्बर जांच लें।"
थोड़ा झुन्झलाई सी प्रिया रसोई की तरफ बढ़ चली
  

    सोफे से किचन तक के सफर में,,, यही सोचती रही,,,अब ऐसे क्षण नही मिलते,,,,कितना कुछ बदल गया है,,। अब रूठती हूँ तो नीरज बार-बार नही पूछते,,,"हुआ क्या है,,बताओ ना?"
      या फिर मेरे एक बार "कुछ नही" बोलने पर मेरे पास आकर नही बैठते,,,,,,,,। 
        शायद अब हम बिना बोले ही एक दूजे को अच्छी तरह समझने लगें हैं,,,,,समय के साथ परिपक्व हो गए हैं,,

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