शुक्रवार, 31 मई 2019
इश्क,,
गीली रेत पर फिसलती मछली,
आसमान की दाहिनी पीठ पर
दो जलते सितारों से तिल
समन्दर नहलाता है
ज़ार-ज़ार
ना मछली की तड़प कमती है
ना तिल की जलन धुलती है,,
दो पाटों पर इश़्क
भींगता सा
पर सुलगता हुआ,,,,
लिली😊
आसमान की दाहिनी पीठ पर
दो जलते सितारों से तिल
समन्दर नहलाता है
ज़ार-ज़ार
ना मछली की तड़प कमती है
ना तिल की जलन धुलती है,,
दो पाटों पर इश़्क
भींगता सा
पर सुलगता हुआ,,,,
लिली😊
गुरुवार, 23 मई 2019
अजय कुमार जी की समीक्षा 'अतृप्ता' पर,,
लिली जी की अतृप्ता अब मैंने भी पढ़ ली है.. आद्योपांत... और इस किताब पर लिखी गयी कुछ समीक्षाएं भी...यूं तो बहुत कुछ कहा जा चुका है इस बहुचर्चित किताब के बारे में... पर फिर भी मैं इस पुस्तक के संदर्भ में कुछ बातें रखना चाहूंगा...
पहले एक बात कविता के बारे में मेरी समझ को ले कर...हर अंतस का एक मौलिक और एक निर्दोष आईना होती है एक सच्ची कविता...जिसमें कोई पाठक भी बरबस ही अपना चेहरा , अपना मन और स्वयं के जीवन को देख सकता है...
और अब उनकी किताब अतृप्ता..जिसके आवरण पर स्वयं उन्होंने लिखा है.."अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को विकसित करने का प्रयास है ये"....मैं कहूंगा और कि लेखिका के द्वारा ये अपने मन और अनुभव से खुद को ही टटोलने का एक तटस्थ और बेबाक प्रयास है...जिसके आईने में हमें अपनी जानी पहिचानी लिली जी अपनी पूरे गांभीर्य और एक स्पष्ट सोच के साथ परिलक्षित होती दिखती हैं...
अपने 'स्व' की हर मुमकिन सींवन को स्वयं बेरहमी से उधेड़ना...अपने मन के एकान्त विवर में जो भी भाव छुपा बैठा हो उसको कविता दर कविता उद्घाटित करना
सचमुच एक प्रशंसनीय और ईमानदार कार्य है...किताब का शीर्षक 'अतृप्ता' ही जैसे ये किताब हर कविता के पढ़ने के बाद हर बार
एक सिक्के की तरह आपके जेहन में छन्न से उछाल देती है...पर इसके बारे में भी एक बात कहना चाहूंगा...एक स्त्री की अतृप्ति का आयाम केवल सामाजिक और आर्थिक ही नहीं होता...बल्कि एक सभ्य शालीन महिला से ये भी अपेक्षा की जाती है कि वह शारारिक तौर पर भी हर संयम और हर मर्यादा को बरते ..किसी किस्म की भी प्रगल्भता या वाचालता को चाहते हुए भी न दिखाए...ये केवल और केवल पुरूषों का युगों से क्लासिक क्षेत्र है..पर बस इसी आयाम में ये किताब सर्वाधिक मुखर सर्वाधिक निर्भीक दिखाई पड़ती है...इसी बात को रेखाकिंत करती हैं इस किताब की ये तीन कविताएं...वो दिसंबर की भोर...भूड़ोल और शीर्षक कविता अतृप्ता...पर यही प्रेम एक पूर्णता एक अध्यात्म और अपने ही अस्तित्व को भी तलाशता नजर आता है..मेरे आत्मसंगी...सुनो मेरे वट और समुद्र लहर सा पाती हूं...कविताओं में...
किताब की पहली चार कविताओं में लिली जी ने अपनी इस काव्य यात्रा अपने शिल्प और शैली पर आत्मकथ्यात्मक कविताएं लिखीं हैं जो हर कवि का बेहद निजी और अनुसंधान का क्षेत्र है...इस बारे मैं कुछ भी नहीं कहना चाहूंगा...पर हां एक और कविता है...एलिफैंटा के भित्तिचित्र ..जिसमें कवयित्री विस्मित है एलिफैंटा की गुहाओं के प्रस्तरों पर उकेरे गये भित्तिचित्रों को देख कर...पर मेरे ख्याल से सायास ये कार्य उन्होंने स्वयं कर डाला है हमारे समक्ष अपने मन के भित्तिचित्रों को एक काव्य संकलन के् रूप में प्रस्तुत कर के...और उनको नये सिरे से समझने का हमें एक मौका दे कर...
इस किताब के लिए मेरी उनको हार्दिक बधाई और उनकी इस कमाल की निड़र रचनाक्षमता पर मेरा उनको सलाम और उनके कावित्व के सतत उज्ज्वल भविष्य के लिए सादर शुभकामनाएं....
शुक्रवार, 10 मई 2019
पिय तुम्हरी अंजुरी में भर जाऊं
मन भटके, या
हो बोझिल,,
प्रीत हिया की
तब हो झिलमिल
पिय तुम्हरी अंजुरी में
भर जाऊं
सब तज मोह जाल
इह जग का
स्नेहिल थपकी पा
सो जाऊं
हो तृप्त आत्म का हर
स्नायु
अतृप्त लगे यह
लम्बी आयु
किल्लोल करे तेरे
संग का स्पंदन
सांस सांस जैसे
हो चंदन,
तृष्णा साजन से
मिलने की,
ले अंतस में ही
गोता खाऊं
प्रेम मणिक से
कर खुद को प्रज्जवलित
जनम जनम
तेरी हो जाऊं
प्रीत हिया की
जब हो झिलमिल
पिय तुम्हरी अंजुरी
में भर जाऊ,,
लिली😊
बुधवार, 8 मई 2019
सड़कें
सड़कें
चित परिचित सी सड़कें,
वही राहें,वही ख्याल
बस वक्त बदला..
ये 'बस वक्त का बदलना'
इतना सरल भी नही था,
एक कठिन सफ़र तय हुआ था
खुद का खुद तक...
परिवर्तन हुआ
सड़कें गवाह रही हैं।
ये बहुत अच्छी श्रोता हैं,
तब भी सुनती थीं मेरे मौन संवाद
आज भी सुनती हैं,
कंकरीटों की फाँकों और
तारकोल की तहों में
सहेज कर रख रखी थीं उन्होने
मेरी नितान्त अपनी बातें..
स्कूटर के पहियों नें
उन फाँकों को कुरेदकर..
और खोजा
मैं बस कौतूहल लिए
अपने सफर के पन्ने
पलटती रही,
कुछ भींगे थे,कुछ खिलखिलाते से थे
कुछ सिहरे से थे..आज भी मौजूद
उसी ताज़गी के साथ,
शायद मैं उन्हें कहीं दर्ज ना कर पाऊं,
आज लगा वो बहुत सुरक्षित हैं
कंकरीटों की फाँको में।
वर्तमान को जीना है
और जिए वर्तमान को
इन सड़कों की..
कंकरीटों की...फाँकों और
तारकोल की तहों में
सहेजते जाना है।
क्योंकि भविष्य में जब
वक्त और बदल जाए,
खाटी शुष्क यथार्थ को
वर्तमान मान जीना पड़ जाए
तब..
अपने इतिहास की भीगी
नितांत अपनी बातों को
पुनः जी सकूँ,
बदलते वक्त के साथ
नए वर्तमान को आत्मसात
करने का नया सफ़र
इन्ही सड़कों संग तलब कर सकूँ
लिली😊
बुधवार, 1 मई 2019
प्रेम मत खोजना
(चित्राभार इन्टरनेट)
अब प्रेम मत खोजना
क्योकि वो अब 'परिपक्व' हो चुका है
और 'परिपक्वता'
प्रर्दशनलोलुप नही होती,,
'प्रेम' शब्द के 'ढाई' में
जो 'आधा-अधूरा' सा है
वह वहीं है,,,
अब प्रेमाकुल हृदय को
प्रेमरंजित प्रत्येक अनुभूति को
एकान्त में घूंट-घूंट
गटकना प्रिय हो चला है,,
वो गटकन का स्वर, कंठ से निकल
दोनो कानों तक टंकार लगाता
हृदय प्रशान्त में
घुल जाता है,,,,,
इस असीम परमान्द
की अमृतानुभूति
की,,,,,मैं अब प्रदर्शनी लगाने की
इच्छुक तनिक भी नही हूं,,,,
इसलिए,,,,
सुनो हे!
मेरी कविताओं में अब 'प्रेम' मत खोजना,,,
वो परिपक्व हो चुका है अब
लिली🌷
क्योकि वो अब 'परिपक्व' हो चुका है
और 'परिपक्वता'
प्रर्दशनलोलुप नही होती,,
'प्रेम' शब्द के 'ढाई' में
जो 'आधा-अधूरा' सा है
वह वहीं है,,,
अब प्रेमाकुल हृदय को
प्रेमरंजित प्रत्येक अनुभूति को
एकान्त में घूंट-घूंट
गटकना प्रिय हो चला है,,
वो गटकन का स्वर, कंठ से निकल
दोनो कानों तक टंकार लगाता
हृदय प्रशान्त में
घुल जाता है,,,,,
इस असीम परमान्द
की अमृतानुभूति
की,,,,,मैं अब प्रदर्शनी लगाने की
इच्छुक तनिक भी नही हूं,,,,
इसलिए,,,,
सुनो हे!
मेरी कविताओं में अब 'प्रेम' मत खोजना,,,
वो परिपक्व हो चुका है अब
लिली🌷
सपनों_का_श्राद्ध
सपनों से प्रेम किया
,,,,और,,
हकीकत से दुनियादारी
सपने सरल थे सरस थे
भोले भाले थे,,
ना जाने कब उनके दिल
की दीवारों पर महत्वाकांक्षाओं
की बेल पनपने लगी,,
ना जाने कब वे बंद आँखों
से निकल खुली आँखों की
दुनिया में शाखाएं फैलाने लगीं,,,
हकीकत से अक्सर ईर्ष्या खाने लगीं
और दुनियादारी पर भी
अपना अधिकार जताने लगीं,,
ये दो अलग-अलग ध्रुवों का
टकराव ले डुबा,,
वजूद अस्मंजस में
के अब करना क्या है?
सपनों के साथ दुनियादारी निभानी है
या ,हकीकत को आसमान
पे सजाना है?
एक वजूद के
दो ध्रुवों की जंग में
किसी एक को वीरगति पा नी थी,,
हकीकत के वार तगड़े थे
सपनों की महत्वाकांक्षाएं खोखली,,
वे ढेर हो गई कुछ ही वार में,,
बस आज उनका श्राद्ध कर दिया गया,,
अब हकीकत का एकछत्र साम्राज्य है,,
लिली🌷
नारी हूं,,,,,घर सजाती हूं
नारी हूं
घर सजाती हूं
सारा संसार सजाती हूं
सजा कर रखना मेरी प्रकृति है
अस्त-व्यस्त कमरे,अलमारियां
टेबल,ऑफिस,फाइलें
घर-बाहर
सब व्यवस्थित कर सकती हूं
किसी भी जगह की
शांत सौम्य सुसज्जा मेरी मौजूदगी
का प्रमाण होती है,,
सीमित साधनों में
असीमित आशाओं का पूरण
करना मेरा गुण है
सबकी नज़रों से छुपा कर
रक्खी मेरी 'चोर-गुल्लक'
मेरी मितव्ययता का प्रतीक है
खाली जेब को बाहर निकाल
सिर पकड़ के माथे की
बल पड़ी पेशानियों को छुपाते
हाथों पर
हमेशा मैने उम्मीद की खनक
इन्ही 'चोर-गुल्लकों' से निकाल
कर रखी है,,,
भले ही 'बहुत ख़र्चीली' कह कर
हास-परिहास का विषय बनती रही हूं,,
बच्चे अक्सर कहते हैं
-"माँ तुम घर पर नही रहती तो खाने का मन नही करता,
पर तुम्हे देखते ही हमेशा भूख लगती है"
सुखद है ये अनुभूति
मै भूख को भी वात्सल्य से पकाती हूं,,,
जो मिलेगा मुझे मै सब
सजा दूगीं,,,
व्यथा,अवहेलना,उपेक्षा,दुत्कार सबकुछ
और इतने व्यवस्थित रूप में संवारूगीं,
के देखने वाले सोचेगें ,,,,,,,
अरे वाह! अद्भुत!
पीड़ा,वेदना,अवहेलना,उपेक्षा ,तिरस्कार भी
इतने सौन्दर्यपूर्ण होते हैं!!
सुनिए! ये मैं आपको सुना नही रही,
ये सब मैं खुद से कहती हूं,,
मैं स्वयं से सिंचिंत
मै स्वयं से चालित
मैं स्वयं से ऊर्जित होती हूं,,,
बस इसीलिए हर बात जैसी भी हो
बस कह कर हल्की हो लेती हूं😊
लिली मित्रा💁♀️
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