बुधवार, 30 अप्रैल 2025
लौट जाना चाहती हूँ
बुधवार, 26 मार्च 2025
कविताओं का एक प्रकाशित संग्रह
देखती हूँ नीला आकाश
तो दिखता है उसका अथाह नीलापन
उड़ते पक्षी, तैरते बदल
और उगते सूरज के साथ रंग बदलता
कैनवास...
नहीं दिखती कोई कविता
तैरती हुई बादलों पर...
उड़ती हुई पक्षियों संग...
सुबह से लेकर रात तक सूरज संग
रंग बदलते कैनवास पर...
अब सब वैसा ही दिखता है जैसा वो है
मैं भी नहीं देना चाहती उन्हें बिंबों
का भुलावा...कल्पना का स्वप्नलोक
अब कविता ने मुझे ओढ़ लिया है
वो अब दिखती है मेरे जैसी...
मैं दिखती हूँ अब-
कविताओं का एक प्रकाशित संग्रह
लिली
सोमवार, 3 मार्च 2025
प्रेम का विस्तार
पलाश
सुनो मेरे पलाश...झर गए हो तुम मेरी हृदयभूमि पर लेकर अपनी रक्तिमा, मेरी हरित संवेदनाओं को रंग रहे हो फाल्गुनी गुनगुनाहट से। बांध ली है मेरी मन मयूरी ने पग शिंजिनी। राग फाल्गुन में बजने लगी है ऋतु की सितार । कज्जल नयन हो रहें हैं चंचल। हस्तमुद्राएं बन गईं है अंग भंगिमा आमद के लिए है तैयार। प्रकृति दे रही है संगत मन के उल्लास को। गूंज उठे हैं पठन्त के स्वर... थई तत् ता..आ थई तत् आ...
मंगलवार, 21 जनवरी 2025
खंडहर
(साभार गूगल)
बहुत मुश्किल होता है तबाही के बाद
फिर से बसना
बहुत कुछ बिखरा होता है आसपास
अतीत के अवशेषों के साथ
कुछ अनमना सा अचकचाया सा
अंगड़ाई लेता...बहुत नाजुक
बहुत कच्चा, डरा हुआ...
ज़रा सी आवाज से चटख जाता है
छुप जाता है
भूल जाता है आरम्भ का 'अ'
और अंत का 'त'
घुमड़ती रहती है तो बस बीच की बेचैनी
वॉन गॉग की पेंटिंग के गहरे नीले सलेटी
घुमावदार बादलों की तरह
जो न बरस पाती है न गरज पाती है
अपने ही भीतर चलने लगती है - - - बखिया की तरह
सी देती है अभिव्यक्ति का मुख
कस देती है उंगलियों को ।
आदमी के भीतर बस जाता है
एक अभिशप्त 'कुलधारा'
अपने इतिहास को प्रेतात्माओं के रुदन
से बयान करता।