मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

कविताओं को बंधन मुक्त कर दिया,,,,

                      ( तमाम विषमताओं को समेटे  मशीनीयंत्रों सी उपमाओं और बिम्बों से सजी 'कविता' आज भी भावाभिव्यक्ति का सुकोमल साधन,,, चित्र मेरे द्वारा 😊)

                 
चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं
को विधाओं के
बंधनों से मुक्त
कर दिया,,,,,

ये जीवन की
विषमताएं,सड़कों
सी उबड़-खाबड़
हो चली हैं,,,
कहीं गड्ढे तो
कहीं असमान उभार
मरम्मतें भी
पैबंदों सी
हो चली है,,,

कैसे कोई इन
खबड़ीले उछलते
रास्तों पर अपने
भावों की स्कूटर
चलाए?????

चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं को
विधाओं के बंधनों
से मुक्त कर दिया,,,,

सुकोमल पुष्पों
की उपमाओं
चांद,तारों के
आंचल में अब
नही लहराते बिम्ब
मशीनी यंत्रों सी
शब्दावलियों का
है प्राचुर्य,,,,,

कैसे इस शुष्क
परिवेश को रसायुक्त
गीतों का मधुपान
कराया जाए,???

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त
कर दिया,,।

मात्राओं,तुक, लय
की कीलों पर,
चुभती मोटी नारियल
की रस्सियों सी
सामाजिक विद्रुपताओं
को कैसे अटकाया जाए??

भरे पड़े हैं मनोद्गार
गागर में सागर से
बहुत तेज प्रवाह
बह रहे हैं अतुकान्त
स्वतंत्र,निर्बाध, निर्झर,

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त कर दिया।

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

अधरन से मुरली ना लिपटाओ घनश्याम

                         (चित्राभार इन्टरनेट)
         

🍃🌺 अधरों पर बड़े प्रेम से सजाकर अपनी बांसुरी को जब कान्हा मगन हो तान छेड़ते रहे होंगें,,,, कभी ना कभी तो राधा के मन में ऐसे भाव अवश्य उपजे होंगें 😊🍃🌺


अधरन से नहि लिपटाओ,
मुरली  मोरे   घनश्याम।
सूखी पाती ज्यो जरती,
मोरि सूरत की मुस्कान ।

पलक मुंदि के तुम  छेड़ों,
जब मनोहारनि   सुरतान।
मुँह बिरावत  सौतन सी,
 यह मुरली बनी शैतान।

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे घनश्याम,,,

भरि के नेह ऊँगलिन मे,
छुवो मुइ काठी निष्प्रान।
जरि-जरि जाव देह मोरिे,
 ज्यों जेठी के अपराहन। 

अधरन से नहि लिपटाओ
 मुरली मोरे घनश्याम,,,

हरखि निरखि के तकत रही,
      मोहे  कनखियन     के तान।     
      न सुहाए लगन       तुम्हारी,   
औ इहि बँसुरियाँ के  गान। 

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे   घनश्याम,,,

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

निज जीवन तुम पर वारा है,,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


हृदय  कुंड में  प्रेम  सरीखे ,
जल की  अविरल  धारा  है ।
भाव  समर्पण  के   पुष्पों से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

तुम कहते  हो   मैं बँट जाऊँ,
व्यवहार कुशलता दिखलाऊँ।
तो सुन लो सिरजन हार मेरे!
यह बात तुम्हारी ना रख पाऊँ।
कोई प्रस्तर खंड सी धंसी हुई,
हिल जाऊँ तनिक ना गवारा है।
भाव    समर्पण   के  पुष्पों  से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

जलधार हुई कभी बाधित तो,
अश्रुधारा से उसको भर दूँगीं।
प्रीत सुमन सब रहे सुवासित,
मन बंसत क्षणों से भर लूँगीं।
व्यथित हृदय ,रूधिर कंठ हो,
सब कुछ मन ने स्वीकारा  है।
भाव समर्पण   के   पुष्पों  से,
निज जीवन  तुम  पर वारा है।

हृदय   कुंड   में  प्रेम  सरीखे,
जल की  अविरल    धारा  है।
भाव   समर्पण  के  पुष्पों  से,
निज जीवन  तुमपे  वारा   है।

🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
🌺लिली 🌺

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

तुम टिप्पणी रच दो,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मेरे शरीर के भूगोल का
मानचित्र तुम रच दो,,
हर उभार हर ठहराव पर
अपने पथचिन्ह रच दो,,
उभरे पहाड़ों को अपनी
हथेलियों से मथ दो,,
मेरी गहराइयों में अपने
प्रेम का सागर भर दो,,
आहों का बवंडर तुम्हे
ले कर उड़ जाए ,,
दो खंडों का मिलन
एक धरातल कर दो,,
गीत कोई गा उठे
तुफान उच्छावासों का
तुम झूमकर उस पर
अपनी टिप्पणी रच दो,,,,,।

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

कोना भी जगमगाया है,,,,,

             (" किसी कोने को भर दिया उजाले से
              एक बाती,थोड़ा सा तेल,एक माटी के दियाले से")

     🌺🍃इस सुन्दर चित्र के लिए मेरी मित्र 'सोनू' को हृदयातल से आभार,, चित्र देखकर ही मन में एक रचना जल उठी🌺🍃

वो रात अंधेरी थी,,,पर बहुत उतावली थी। घर के उस कोनें की,,धड़कने बेचैन थीं। छत की खुली एक फांक से आसमान भी कुछ खोजती निगाहों से ताक रहा था।
         बेसब्री से शाम को विदा कर 'कोना' फिर से बैठ गया दिल को दबोचे,,के शायद धड़कनों को थोड़ा सुकून मिले,,,! तभी पूजा घर से आने वाली धूप, कपूर की भक्तिपूर्ण सुगन्ध ने किसी के आने का शंखनाद कर दिया था।
       एक सुर में गूंजते आरती के स्वर, शंख,घंटी की आवाज़,,अब उस कोने को उतावला बना रही थीं। सब स्वर धीरे धीरे वातावरण में धूप की गंध से विलीन हो गए।
      तभी गृहलक्ष्मी एक थाल में कई प्रज्जवलित दीपों को सजाए ,,आभामंडित मुख मंडल लिए दीपकतार सजाने लगी।
      प्रतीक्षारत् उस कोने पर रूकी और दो जलते दीपों को बड़े प्रेम के साथ वहाँ सजा दिया। दीपों के प्रकाश से 'कोना' असीम आनंद के प्रकाश से जगमगा उठा।
       वर्ष भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज वह 'कोना' भी झिलमिलाया है,,,मिलन के प्रकाश ने अमावस की रात को चांदनी रात सा सजाया है। दीपों की शिखाएं हल्के हवा के झोंकों से थर्राती थीं,,,कभी एक विपरीत दिशा में मुड़ती,,,तो  कभी आपस में चिपक जाती थीं। रह रह कर उजाला आस-पास को सहलाता था,, उस कोने के हृदय को एक गर्म एहसास से छू जाता था।
      आसमान भी उस ऊर्जा के प्रकाश को पेड़ों की आड़ से ताकता है,,,,जैसे हल्की सरदी से ठंडे पड़े हाथों को तापता है।
         ना जाने कितने ऐसे अन्दर और बाहर के कोने एक दिये के प्रकाश से चमके होंगें,,,,,तम के हरण और अंतस के उजास की दीपावली में चहके होंगें।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

एक शाम प्रतीक्षारत,,,,

                           (चित्राभार इन्टरनेट)
दिन बीत गया बेचैन खामोशियों के साथ,,,।
शाम की हवा भी बड़ी उदास,,,, एक झलक तो मिले नज़रों में छुपी एक यही आस,,,,,,,,। पर तुम तो जैसे अमावस के चांद से छुप गए हो,,,,। एक हल्की सी आवाज़ भी शोर लगती है। बस तुम्हारे तस्व्वुर में तन्हाइयां बजती हैं,,।
      चुपचाप सा चीत्कार सुनाई देता हैं,,,,पर अधरों पर गहन मौन का पहरा है। उदास हवाओं ने तुम्हारी यादों के पुष्प पग पग पर बिखराए हैं,,,,,। मैने चुनकर इन पुष्पों का एक गजरा बनाया है,,,अपनी वेणी में गुथ तुम्हारे सानिध्य को पाया है।
        तुम्हारी बातें सुनकर ही मेरी चंचलता बन तितली मंडराती है,,बिन तुम्हरी बतियां सूनी रात के झींगूरों सी झीनझीनाती हैं। सब कुछ बेरंग,,,स्याह रात सा काला है,,आ जाओ बस तुम्हारे आने में ही चरागों सा उजाला है।
          दो शब्द तुम्हारे , मेरे एकान्त का तम हर लेगें,,,,वरना अंतर का वीराना हम आमावस की रात से भर लेगें। कितना निष्ठुर हैं प्रियतम तुम्हारा व्यस्तता भरा दिन!! एक पल भी लेने नही देता मेरे नाम का पल-छिन,,,,!!
           डूबते सूरज के संग मेरा मन भी डूबता जाए ,,,भेज दो कोई संदेस के अब रहा ना जाए। मन करता है हर दीप बुझा दूँ,,,,,चुपचाप अपने अस्तित्व को अंधकार में गुमा दूँ। कुछ पल की प्रीत भरी बतिया ही तो मांगू,,,, इन्ही एहसासों की महक लिए सोऊँ और जागूँ,,,।
      एक शाम प्रतीक्षारत,,,,,,,

खामोशियों में खुसफुसाहट सुनती रही

                   (चित्राभार इन्टरनेट)

खुद ही मना कर
उसके आने की राह
तकती रही
लम्बी खामोशियों
में उसकी खुसफुसाहट
सुनती रही।

बंद पलकों से
अश्कों की धार
टपकती रही
मै अपनी हथेलियों
में उसकी लकीरें
तकती रही।

गहरी उदासियों में
उसकी खनक
बजती रही
मेरी पेशानियों
पर उसकी तस्वीर
उभरती रही।

पहचानी गलियों में
उसकी धूल सी
उड़ती रही
हर आहट पर
नज़र खिड़कियां
झांकती रही

उसके इश्क की
गलियां गुलाबों से
महकती रही
दूरियां बीच की
काटों सी
चुभती रही।