तुम जाने को हो..विदाई की बेला है। मैं देख रहीं हूँ बैठकर अपने कोने से, तुमको अपना बिखरा सामान समेटते हुए। कमरे की हर अलमारी की ताखों दराजों को टटोलते, झाँकते। कुछ उठाते हो, उलट-पलट कर देखते हो...कभी मुस्कुराते हो तो कभी आत्मग्लानि से चेहरा झाईं पड़ जाता है। कभी दृग से अनायास ही लुढ़क पड़ता है कोई बहुत करीबी आँसू तो कभी एक जिद्दी संकल्प की ठोस दीवार से टकराकर लौट जाता है अपने तट से वापस...आँसू।
मुझे पता है सब छोड़ जा रहे हो तुम मेरे लिए... कहने को अब कुछ भी शेष नही बचा है तुम्हारे पास...और..फिर पूरे बरस भी तुमने कहा ही क्या? बस तुम घटते रहे कभी स्याह रात बन कर कभी उमसते दिन और प्रतीक्षारत सांझ बनकर। कभी उम्मीद की भोर तो कभी टूटती दोपहर बनकर। जाते वक्त एक गहरी साँस भर कर, अपनी शीत,धूप, बरसात, उमस, गरमी, दिन तारीखें सब छोड़ जाओगे ... मेरे लिए।
जोड़ दिया है तुमने खुद को मुझमें लेकिन मैं घटा रहीं हूँ तुमको मुझसे। घटाऊँगीं नहीं तो जगह कैसे बनाऊँगीं आने वाले के लिए? उसे भी तो बसाना है...न जाने आने वाला आशा-निराशा, सुख-दुख, खोने-पाने के कितने दिन, कितने महीने, कितने चढ़ते-ढलते मौसम बाँधकर लाने वाला है। मुझे पता है कितनी ही बातें वो तुम जैसी ही दोहराएगा.. बस फ़र्क बदले परिवेश का होगा। मुझे मान लेना पड़ेगा 'ये कुछ नया' हुआ। और मैं मानूँगी ना मानने का कोई विकल्प तब थोड़े होगा... वो तो बहुत बाद में समझ आएगा...जैसे मैं आज, तुम्हारी विदाई बेला पर, अपने कोने में बैठकर सोच रही हूँ- मुझे तब ऐसे नही वैसा करना चाहिए था। ये नही वो कहना चाहिए था... कुछ अफसोस... कुछ सोज़...कुछ शाबाशी के साथ पूरी पिक्चर का रिव्यू करती हुई मैं। हाथ से फिसली मछली की वापस पानी में खो जाती हुई देखती.......
एक बार गले नहीं लगाओगे क्या? मैं चाहती हूँ एक आखिरी बार तुम्हारे स्पर्श को महसूस करना, तुम्हारी गंध को एक सेंट की छोटी सी शीशी में बंद कर लेना। फिर बनाऊँगी एक बक्स यादों का रखूँगी सब कुछ...जो तुमसे पाया अनायास, जो तुमने दिया खुश होकर, जो तुमसे माँगा मैंने ज़िद कर के।
अलविदा नहीं कहूँगी...क्योंकि तुम जा ज़रूर रहे हो ना लौटकर आने के लिए लेकिन तुम अपना बहुत कुछ मेरे साथ रख जा रहे हो...बतौर तुम्हारी अनुपस्थिति में सार्थक उपस्थिति की तरह..।तुम मुझसे कहोगे- 'खुश रहना', 'जो गलतियाँ की उन्हे ना दोहराना', 'नये के लिए शुभकामनाएँ' जैसा कितना ही कुछ...पर मैं तुमसे क्या कहूँ? पता नहीं....
बस एक बार फिर से लिपट जाने दो तुमसे...शब्दों की भाषा का अभाव सदा ही रहा है मेरे पास शायद मेरा स्पर्श वो कह दे तुमसे जो तुम्हे भी मेरे साथ गुज़ारी हर खुशनुमा याद पर मफलरी गरमाहट और दुखदायी पलों पर फूलों सा कोमल मरहम फेर जाए....
विराम नहीं दूंगी क्योंकि तुम समय हो, बस बहते रहो.....
लिली