शनिवार, 5 अगस्त 2017

धूल,,,,,,,,,

       
           (चित्राभार इन्टरनेट से)

'धूल 'उड़ती है जब तो सबको संक्रमित कर देती है,,,, क्योंकि वह खुद किसी स्थूलता से खंडित हो,,टुकड़े-टुकड़े मे विभाजित हो चुकी होती है,,,। दर्द होता है बहुत जब अस्तित्व बिखरता है। आंखें दुखती हैं पर आंसू नही टपकता है। आज समझ पाई मैं धूल जब उड़ती है तो क्यों आसपास धुंध कर लेती है,,,,विभाजितता की पीड़ा से सबको संक्रमित कर देती है,,,,,,,,,


पता नही कब अपनी ज़मीन छोड़,,, आवारा हवाओं में धूल के कणों सी बिखर गई थी। अपनी स्थूलता का त्याग कर,,,कतरा कतरा उड़ा रखा था,,इन हवाओं के संग।
     तब आश्रु निकलते थे आंखों से,,पर तेज़ हवाओं में आद्रता बन घुल जाते थे। और लोग कहते थे,,,आज हवाओं मे कुछ नमीं सी है,,,,,,,,,,।
      पता नही कब सावन आया,,बरस गया मुझपर,,,और मैं रूखी धूल,,बहुत जद्दोजहद करती रही खुद को यूँहीं तैरता कायम रखने की,,,,,,,,,। पर रख ना पाई,, उन नेह भरी बूँदों के भार समेत नीचे आ गिरी।
     अपनी ज़मीन से जा मिली। ये जो पहली बारिश के बाद,,,आप कहते हो ना,,'मिट्टी की सोंधी' महक अच्छी लगती है,,,,,,,! क्यों ना अच्छी लगे,,??? कितनी मुझ सी बिखरी हुई धूल की कणें,,,नेह की बारिश से आलिंगनबद्ध हो अपने असल वजूद से जुड़ जाती हैं,,,,,,। महक जाती हैं,,,,,। सोधीं खुशबू फैलाती हैं,,,तन्द्राओं को सम्मोहित कर जाती हैं।
      ये सावनी बादल,,ये सावनी बारिश,,,,एक मौसम की मेहमान,,आएगी हर बरस,,और फिर चली जाएगी। वो धूल एक मौसम के लिए ही अपने वजूद से जुड़ेगी,,,,,।
      फिर वही भादों की चिलचिलाती धूप,,,अधगीली धरती को सुखाएगी।अपनी गरमी से धरती के सीने में उमस उठाएगी।
      धरती से नमी सोखता सूरज और तिलमिलाएगा,,। फिर हर तरफ की हरियाली इस तिलमिलाती ऊष्मा से सड़ती-गलती नज़र आएगी,,,दुर्गन्ध उठाएगी,,,,।
      वो आवारा धूल की कणें,,, बादलों से 'इकबार बरस जाओ' की गुहार लगाएं गीं,,,,,,। बरस जाएगें भादों के अनमने से बादल,,,। पर क्या इस अनमनी बारिश से धूल की कणें,,वही प्रथम बारिश का अविस्मरणीय आलिंगन आभास पुनः पाएगीं,,,,!!!!!!!
        अब आंखों से आश्रु नही झरते,,,, वह तो अब दुखती हैं। भादों की बारिश के जैसे,,, अनमनी बरसात,,चिलचिलाती धूप,,,और असहनीय उमस के अहसास,,,,की पीड़ा लिए।
       बिखर कर जुड़ गया वह धूल का कण,,, फिर से तैयार हो रहा है बिखरने को,,,,। आवारा हवाओं के संग पहले सा उड़ने को।
        बादलों को क्या दोष दें,,,! जितनी आद्रता थी धरा पर उतना ही तो भर पाएगें,,,,,,। फिर सावन की रहेगी प्रतिक्षा,,,,वह एक बार फिर धूल के कणों को गले लगाएगें।
        प्रकृति सिखाती कितना व्यवहारिक है,,,सिखने वाले ही बहक जाते हैं। एक दूजे पर दोषारोपण कर इंसानी फितरत को दर्शाते हैं,,,,,,,,,,।

      सावनी बादल की प्रतीक्षा में,,,,,एक धूल फिर से उड़ चली,,,, दुखती हैं आंखें,,,पर वह बह चली,,,,,,,,,,,,,,,

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