मंगलवार, 29 अगस्त 2017
शनिवार, 26 अगस्त 2017
भक्ति के मापदंड क्या,,,,,,?
(चित्राभार इन्टरनेट से)
मंदिरों के बाहर पड़े भगवान को चढ़ाए पूजा पुष्प,,,जिनको भक्तगण आंख बंद कर कचर के चले जातेहैं,,।पूरी श्रृद्धा के साथ भगवान की प्रतिमा के मुहँ में ठूंसा हुआ मिष्वान्न ,,, मतलब जब तक भक्त द्वारा चिपकाई गई बरफी प्रभु-प्रतिमा के मुहँ से चिपक ना जाए,,,भक्त को संतुष्टि नही होती। बाद में वही मिठाई का टुकड़ा ज़मीन पर गिर जाता है और लोग उसी पर पैर रख कर बेखबर हो चले जाते हैं,,,। यह सब मैं कई सालों से देखती आ रही हूँ। मन में हमेशा यह प्रश्न आता है,,,,,, क्या भक्तों की भक्ति बस अपनी पूजनथाल का प्रसाद या पूजा समाग्री भगवान को अर्पण करने तक ही सीमित होती है,????
शिव रात्रि के दिन,,भगवान के श्री लिंग पर चढ़ाया जाने वाला दूध,,,निकासी की उचित व्यवस्था ना होने के कारण कई छोटे मंदिरों में,,रास्ते पर बह कर आता रहता है,,,,भक्त भक्ति में तल्लीन इन्ही पर पैर धर मंदिर में प्रवेश करते रहते हैं।
इसे उनकी किमकर्तव्यविमूढ़ता भी कहा जा सकता है। अक्सर पूजा के बाद भगवान पर चढ़े फूल-फल को विसर्जित करने की यथोचित व्यवस्था ना होने के कारण मंदिर के बाहर ही फेंक दियें जाते हैं,,,फिर उस पर कुत्ते-बिल्ली जो चाहे मुँह लगाए, कोई फर्क नही पड़ता,,,भक्त अपनी भक्ति जता कर जा चुके होते हैं।
आज अपने बेटे को ट्यूशन छोड़कर आ रही थी,,,तो किसी के घर के सदस्य बड़ी श्रृद्धा-भक्ति के साथ गणपति प्रतिमा को विसर्जन हेतु ले जा रहे थे। विसर्जन प्रायः हमारे निवास स्थान के पीछे, बायपास सड़क के समानान्तर बनी नहर में किया जाता है। यह नहर कहीं-कहीं शहर का कचड़ा डालने का एक कचड़ाखाना सा बन गई है। लोग अक्सर बेबाक हो हर प्रकार का अवशिष्ट विसर्जन कर चले जाते हैं।
मेरे बेटे ने मुझसे प्रश्न किया-" माँ ये गणपति जी की प्रतिमा को उसी नहर में विर्सजित करने ले जा रहे हैं,,,जहाँ हर प्रकार का अवशिष्ट बहाया जाता है??? यह तो बहुत ही गलत है!!!!! मै निरुत्तर थी,,,!!!!
क्यों नही था मेरे पास जवाब एक बालक के पूछे गए तर्कसंगत प्रश्न का,,,??????
उत्सवों के महीने शुरू होने वाले हैं,,,। अभी गणपति उत्सव की धूम है,, फिर दुर्गा-पूजा,,और भी कई ऐसे सार्वजनिन पूजोत्सव एक के बाद एक आने वाले हैं। मै भी दुर्गा-पूजा के समय पूरे उत्साह और श्रृद्धा के साथ पूजा पंडालों में जा माँ दुर्गा को पूजा एंव पुष्पांजली अर्पित करती हूँ। पांच दिनों तक पूजा बेदी की पवित्रता का सम्मान हर कोई करता है।
पूजा के उपरांत मैं ही नही,,अन्य बहुत से श्रृद्धालू पुरोहित से देवी माँ के पूजा-घट से पूजा-पुष्प माँ के आशिर्वाद स्वरूप मांगते हैं। मैं अक्सर इन पुष्पों को अलमारी के कागज़ के नीचे दबा देती हूँ। इससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि घट पर चढ़े माँ को अर्पित यह बेलपत्र एंव पुष्प देवी माँ का साक्षात् आशीर्वाद समतुल्य होता है।
परन्तु एकबार पूजाबेदी से देवी की प्रतिमा जाने के बाद पूजा स्थल से विसर्जन स्थल तक कितने ही प्रतिमा पर पड़े पुष्प ,बेलपत्र यत्र-तत्र गिरते रहते हैं,,,। उनका क्या,,,,,?
जितने दिन प्रतिमाओं की पूजा होती है,,,तब तक पवित्रता को आदर दिया जाता है,,,।,पूजन,,विसर्जन के बाद,,अक्सर नदी किनारे प्रतिमाओं के बहाए अंश पड़े मिलते हैं,,,तब तक वह अपनी पवित्रता और दैवत्व सब खो चुके होते हैं भक्तों की नज़रों में। शेष जो रह जाता है वह इन पूजोत्सव के बाद तीव्रता से बढ़ा जल प्रदूषण,,,,।
मुझे समझ नही आ रहा बालक द्वारा किए गए प्रश्न का क्या उत्तर दूँ। किसको समझाने की आवश्यकता है,,,? बालक को या भक्तों को,,,,???? समझ नही आता नही,,,यदि आप कोई उत्तर दे सकते हैं तो अवश्य दें।
मंदिरों के बाहर पड़े भगवान को चढ़ाए पूजा पुष्प,,,जिनको भक्तगण आंख बंद कर कचर के चले जातेहैं,,।पूरी श्रृद्धा के साथ भगवान की प्रतिमा के मुहँ में ठूंसा हुआ मिष्वान्न ,,, मतलब जब तक भक्त द्वारा चिपकाई गई बरफी प्रभु-प्रतिमा के मुहँ से चिपक ना जाए,,,भक्त को संतुष्टि नही होती। बाद में वही मिठाई का टुकड़ा ज़मीन पर गिर जाता है और लोग उसी पर पैर रख कर बेखबर हो चले जाते हैं,,,। यह सब मैं कई सालों से देखती आ रही हूँ। मन में हमेशा यह प्रश्न आता है,,,,,, क्या भक्तों की भक्ति बस अपनी पूजनथाल का प्रसाद या पूजा समाग्री भगवान को अर्पण करने तक ही सीमित होती है,????
शिव रात्रि के दिन,,भगवान के श्री लिंग पर चढ़ाया जाने वाला दूध,,,निकासी की उचित व्यवस्था ना होने के कारण कई छोटे मंदिरों में,,रास्ते पर बह कर आता रहता है,,,,भक्त भक्ति में तल्लीन इन्ही पर पैर धर मंदिर में प्रवेश करते रहते हैं।
इसे उनकी किमकर्तव्यविमूढ़ता भी कहा जा सकता है। अक्सर पूजा के बाद भगवान पर चढ़े फूल-फल को विसर्जित करने की यथोचित व्यवस्था ना होने के कारण मंदिर के बाहर ही फेंक दियें जाते हैं,,,फिर उस पर कुत्ते-बिल्ली जो चाहे मुँह लगाए, कोई फर्क नही पड़ता,,,भक्त अपनी भक्ति जता कर जा चुके होते हैं।
आज अपने बेटे को ट्यूशन छोड़कर आ रही थी,,,तो किसी के घर के सदस्य बड़ी श्रृद्धा-भक्ति के साथ गणपति प्रतिमा को विसर्जन हेतु ले जा रहे थे। विसर्जन प्रायः हमारे निवास स्थान के पीछे, बायपास सड़क के समानान्तर बनी नहर में किया जाता है। यह नहर कहीं-कहीं शहर का कचड़ा डालने का एक कचड़ाखाना सा बन गई है। लोग अक्सर बेबाक हो हर प्रकार का अवशिष्ट विसर्जन कर चले जाते हैं।
मेरे बेटे ने मुझसे प्रश्न किया-" माँ ये गणपति जी की प्रतिमा को उसी नहर में विर्सजित करने ले जा रहे हैं,,,जहाँ हर प्रकार का अवशिष्ट बहाया जाता है??? यह तो बहुत ही गलत है!!!!! मै निरुत्तर थी,,,!!!!
क्यों नही था मेरे पास जवाब एक बालक के पूछे गए तर्कसंगत प्रश्न का,,,??????
उत्सवों के महीने शुरू होने वाले हैं,,,। अभी गणपति उत्सव की धूम है,, फिर दुर्गा-पूजा,,और भी कई ऐसे सार्वजनिन पूजोत्सव एक के बाद एक आने वाले हैं। मै भी दुर्गा-पूजा के समय पूरे उत्साह और श्रृद्धा के साथ पूजा पंडालों में जा माँ दुर्गा को पूजा एंव पुष्पांजली अर्पित करती हूँ। पांच दिनों तक पूजा बेदी की पवित्रता का सम्मान हर कोई करता है।
पूजा के उपरांत मैं ही नही,,अन्य बहुत से श्रृद्धालू पुरोहित से देवी माँ के पूजा-घट से पूजा-पुष्प माँ के आशिर्वाद स्वरूप मांगते हैं। मैं अक्सर इन पुष्पों को अलमारी के कागज़ के नीचे दबा देती हूँ। इससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि घट पर चढ़े माँ को अर्पित यह बेलपत्र एंव पुष्प देवी माँ का साक्षात् आशीर्वाद समतुल्य होता है।
परन्तु एकबार पूजाबेदी से देवी की प्रतिमा जाने के बाद पूजा स्थल से विसर्जन स्थल तक कितने ही प्रतिमा पर पड़े पुष्प ,बेलपत्र यत्र-तत्र गिरते रहते हैं,,,। उनका क्या,,,,,?
जितने दिन प्रतिमाओं की पूजा होती है,,,तब तक पवित्रता को आदर दिया जाता है,,,।,पूजन,,विसर्जन के बाद,,अक्सर नदी किनारे प्रतिमाओं के बहाए अंश पड़े मिलते हैं,,,तब तक वह अपनी पवित्रता और दैवत्व सब खो चुके होते हैं भक्तों की नज़रों में। शेष जो रह जाता है वह इन पूजोत्सव के बाद तीव्रता से बढ़ा जल प्रदूषण,,,,।
मुझे समझ नही आ रहा बालक द्वारा किए गए प्रश्न का क्या उत्तर दूँ। किसको समझाने की आवश्यकता है,,,? बालक को या भक्तों को,,,,???? समझ नही आता नही,,,यदि आप कोई उत्तर दे सकते हैं तो अवश्य दें।
शनिवार, 19 अगस्त 2017
मन को क्यूँ गौरैया बना डाला,,,,
(चित्राभार इन्टरनेट से)
मन को क्यों तूने गौरैया बना डाला,,
बनाया भी अगर तो उसकी मुंडेर से
खुद को क्यों परचा डाला,,,?
रोज़ जाता है उड़ कर तेरी खिड़की
पर लिए एक आस ,,,,,,,,,,
कुछ प्यार भरे दानों और चाहत
की लिए प्यास ,,,,,,,,
चल पागल! उड़ जा हो जा फुर्रररररररर
अभी घर है भरा कौन देखे तुझे
चल हट,,हो जा दुर्ररररररररररर,,,
तूने तो इस खिड़की पर अपना
घोंसला ही बना डाला,,,
मन को क्यों तूने,,,,,,,,,,,,,
बावली सी चिड़िया,,तेरा बावला सा मन
फुदक रही सुबह से लिए
एक प्यार भरी तड़पन,,,,
झिड़कियों पर भी ना उड़ती,अंदर रही झांक
दिख जाएं कहीं मालिक शायद खुली
हो कोई फांक,,,,
जा देख कहीं और बिखरा हो कोई दाना
यही बोल गए शायद अब भूल के ना आना
इस दर को तूने ठीकाना ही बना डाला,,
मन को क्यों तूने,,,,,,,,
चली थी बड़ा खुद की अहमियत परखने
झूठी सी तल्खियों से पंख फटकने
अब मटक रही सूनी मुंडेर पर
इधर-उधर,,,,
जा अभी घर है भरा नही तेरी कोई
करेगा तेरी फिकर,,,
जब मन हो अकेला तब ही वो गौरैया
बुलाएं, कई कई बार तुझे अह्लाद
से सहलाएं,,,
तूने तो उसे अपना अधिकार ही
समझ डाला,,,
मन को क्यूँ तूने,,,,,,,
लिली😊
मन को क्यों तूने गौरैया बना डाला,,
बनाया भी अगर तो उसकी मुंडेर से
खुद को क्यों परचा डाला,,,?
रोज़ जाता है उड़ कर तेरी खिड़की
पर लिए एक आस ,,,,,,,,,,
कुछ प्यार भरे दानों और चाहत
की लिए प्यास ,,,,,,,,
चल पागल! उड़ जा हो जा फुर्रररररररर
अभी घर है भरा कौन देखे तुझे
चल हट,,हो जा दुर्ररररररररररर,,,
तूने तो इस खिड़की पर अपना
घोंसला ही बना डाला,,,
मन को क्यों तूने,,,,,,,,,,,,,
बावली सी चिड़िया,,तेरा बावला सा मन
फुदक रही सुबह से लिए
एक प्यार भरी तड़पन,,,,
झिड़कियों पर भी ना उड़ती,अंदर रही झांक
दिख जाएं कहीं मालिक शायद खुली
हो कोई फांक,,,,
जा देख कहीं और बिखरा हो कोई दाना
यही बोल गए शायद अब भूल के ना आना
इस दर को तूने ठीकाना ही बना डाला,,
मन को क्यों तूने,,,,,,,,
चली थी बड़ा खुद की अहमियत परखने
झूठी सी तल्खियों से पंख फटकने
अब मटक रही सूनी मुंडेर पर
इधर-उधर,,,,
जा अभी घर है भरा नही तेरी कोई
करेगा तेरी फिकर,,,
जब मन हो अकेला तब ही वो गौरैया
बुलाएं, कई कई बार तुझे अह्लाद
से सहलाएं,,,
तूने तो उसे अपना अधिकार ही
समझ डाला,,,
मन को क्यूँ तूने,,,,,,,
लिली😊
रविवार, 13 अगस्त 2017
मैया की करें गलबइयां,,,,
(चित्राभार इन्टरनेट)
दौड़ मैया के करे गलबइयां,
सरस बोल रिझाएं कन्हैंया।
लपट झपट पुचकार रहे,
नटखटी चाल बूझें हैं मइयां।
मइया सो माखन ना बनावे कोई,
स्वाद दूजा मन को ना भावै कोई।
कान्हा के मन की सब समझ रहीं,
बालक के प्रेम मे जसोदा सुध खोईं।
कैसो वात्सल्य माखन मे मथ रही,
तिरछे नयन से सब सुख निरख रही।
बड़ो दुलारो मोरा लल्ला। कन्हैया,
मन ही मन सोच मइयां हरस रही।
लल्ला की मिठी बतियन पे हार गई,
भर स्नेह से अपार गोद में बिठाय लई।
देखो सजल नयन से माखन चटाय रही,
कान्हा के रसीली बतियन पे वारी भई।
दौड़ मैया के करे गलबइयां,
सरस बोल रिझाएं कन्हैंया।
लपट झपट पुचकार रहे,
नटखटी चाल बूझें हैं मइयां।
मइया सो माखन ना बनावे कोई,
स्वाद दूजा मन को ना भावै कोई।
कान्हा के मन की सब समझ रहीं,
बालक के प्रेम मे जसोदा सुध खोईं।
कैसो वात्सल्य माखन मे मथ रही,
तिरछे नयन से सब सुख निरख रही।
बड़ो दुलारो मोरा लल्ला। कन्हैया,
मन ही मन सोच मइयां हरस रही।
लल्ला की मिठी बतियन पे हार गई,
भर स्नेह से अपार गोद में बिठाय लई।
देखो सजल नयन से माखन चटाय रही,
कान्हा के रसीली बतियन पे वारी भई।
भारत माँ की आत्मव्यथा,,,
(चित्राभार इन्टरनेट)
भारत माँ की आत्मव्यथा
**********************
माँ को ही लपेट तिरंगें से,
सूली पर उसको टांग दिया।
देश के रखवालों ने देखो,
देश का जनाज़ा निकाल दिया।
आरोपों की बोली ऊँचीं,
निज कर्तव्यों को त्याग दिया।
आत्मव्यथा से कराह रही माँ ,
हमने विवेक-बुद्धि पर पर्दा तान दिया।
एक राष्ट्र की अस्मिता को कितने
हिस्सों मे बांट दिया,
साम्प्रदायिकता की पौध को हर
कोमल मन में गांत दिया।
महज तमाशाई बनकर जनता ने
हर अफवाहों को तूल दिया
अब तो समझों इनकी चालों कों
निजस्वार्थ को अपने पूर्ण दिया।
भारत माँ की आत्मव्यथा
**********************
माँ को ही लपेट तिरंगें से,
सूली पर उसको टांग दिया।
देश के रखवालों ने देखो,
देश का जनाज़ा निकाल दिया।
आरोपों की बोली ऊँचीं,
निज कर्तव्यों को त्याग दिया।
आत्मव्यथा से कराह रही माँ ,
हमने विवेक-बुद्धि पर पर्दा तान दिया।
एक राष्ट्र की अस्मिता को कितने
हिस्सों मे बांट दिया,
साम्प्रदायिकता की पौध को हर
कोमल मन में गांत दिया।
महज तमाशाई बनकर जनता ने
हर अफवाहों को तूल दिया
अब तो समझों इनकी चालों कों
निजस्वार्थ को अपने पूर्ण दिया।
माखनचोर लीला रचाए रहे,,,,
( चित्राभार इन्टरनेट)
🌺🍃सभी को श्रीकृष्णजन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं🌺🍃
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की आप सभी को अग्रिम शुभकामनांए
🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃
घुटुवन के बल जाए के
माखन में अंगुरी डूबाए के
कछू खाए रहे,कछू गिराए रहे
माखन चोर लीला रचाए रहे।
ग्वाल बालन के टोली बुलाए के
छींके तक टीला बनवाए के
खुद खाए रहे,सबन के खिलाए रहे
माखन चोर उड़दंग मचाए रहे।
सब सखन के संग मिलाय के
जमुना के तट पर डेरा जमाय के
गुलेल से मटकी चटखाए रहे
नटखट गोपियन के सताए रहे।
गइयन के झुंड लइ जाय के
सघन कुंज बीच छितराइ के
अधरन पर मुरली सजाय रहे
मुरारी सबन के सुध बिसराए रहे।
गोपियन संग रास-रंग रचाए के
राधा प्यारी की निदिंया चुराए के
गोकुल के आंसुअन मे बाहाए रहे
कृष्ण मथुरा जावन की राह बनाए रहे।
शनिवार, 12 अगस्त 2017
घुटती संवेदनशीलताएं,,,,,
(चित्र इन्टरनेट से)
जो होता है वह
दिखाया नही जाता,,
एक निर्धारित फोकस
के गोले मे पूरा सच
समाया नही जाता,,,,,,
कौन है असल कसूरवार
ये समझना है मुश्किल
बहुत सर खुजा के देख
लिया नही हुआ कुछ हासिल,,
सच को झूठ बनाने वाला
भी पेट की खातिर लड़े
झूठ को सच बनवा के
दिखवाने वाला भी
पेट के खातिर आड़े,,,
पेट,,पेट की इस लड़ाई
में इनका पेट भरने वाली
संवेदनशीलताएं घुटे,,,,
जिस घर में एक दिया ही
है फ़कत रौशनी करने के
लिए,वह चिराग इन जहरीले
सांपों की फूँक से बुझे,,
सुकोमल संवेदनाओं को
भड़काना अब और भी
आसान हो चला,,,
दुखती रगों पर नमक मिर्च
लगाती सोच को पहुँचाना
अतिव्यक्तिगत हो चला,,
ऐसे विषम परिवेश की बस
एक ही पुकार है,,
देश की चिथड़ी आत्मा रोकर
कर रही चीत्कार है,,
खुद के बुद्धि-विवेक को जगाइए
कुछ निहित स्वार्थों के लिए
झूठ को सच और सच को
झूठ दिखाते मिडियाई
ढकोसलों पर मत जाइए,,
जागिए बंधुओं ना ऐसे
आंतरिक अराजकता फैलाइए
घायल है बहुत देश की आत्मा
अब और ना खंजर बरपाइए
जो होता है वह
दिखाया नही जाता,,
एक निर्धारित फोकस
के गोले मे पूरा सच
समाया नही जाता,,,,,,
कौन है असल कसूरवार
ये समझना है मुश्किल
बहुत सर खुजा के देख
लिया नही हुआ कुछ हासिल,,
सच को झूठ बनाने वाला
भी पेट की खातिर लड़े
झूठ को सच बनवा के
दिखवाने वाला भी
पेट के खातिर आड़े,,,
पेट,,पेट की इस लड़ाई
में इनका पेट भरने वाली
संवेदनशीलताएं घुटे,,,,
जिस घर में एक दिया ही
है फ़कत रौशनी करने के
लिए,वह चिराग इन जहरीले
सांपों की फूँक से बुझे,,
सुकोमल संवेदनाओं को
भड़काना अब और भी
आसान हो चला,,,
दुखती रगों पर नमक मिर्च
लगाती सोच को पहुँचाना
अतिव्यक्तिगत हो चला,,
ऐसे विषम परिवेश की बस
एक ही पुकार है,,
देश की चिथड़ी आत्मा रोकर
कर रही चीत्कार है,,
खुद के बुद्धि-विवेक को जगाइए
कुछ निहित स्वार्थों के लिए
झूठ को सच और सच को
झूठ दिखाते मिडियाई
ढकोसलों पर मत जाइए,,
जागिए बंधुओं ना ऐसे
आंतरिक अराजकता फैलाइए
घायल है बहुत देश की आत्मा
अब और ना खंजर बरपाइए
शुक्रवार, 11 अगस्त 2017
आज़ादी का 70 वां साल,,,,,
(चित्राभार इन्टरनेट)
उल्टी गिनती शुरू,
जश्ने आज़ादी मनाई
जाने लगी है,,,,,,,,,
दिल्ली मेट्रो को
उड़ानेकी धमकियां
आने लगी हैं,,,,,
सुरक्षा कर्मियों की
स्पेशल ड्यूटियां
लगाई जाने लगी हैं
कुछ अतिसंवेदनशील
इलाकों की नाकेबंदियों
की खबरें आने लगी हैं,,
अफवाहों का माहौल
गरम है,उट-पटांग
बयांबाज़ियां आने
लगी हैं,,,,,,,,,
आज़ादी के 70 साल,
बाद एक नई किस्म
की दहशत नज़र
आने लगी है,,,
सीमाओं पर सुरक्षा
मे कसाव के साथ
आन्तरिक घुसपैठियां
सर उठाने लगी हैं,,
अब लगने लगा है
जनाब,सच में देश
की आज़ादी की
सत्तरवीं वर्षगांठ
आने लगी है,,
उल्टी गिनती शुरू,
जश्ने आज़ादी मनाई
जाने लगी है,,,,,,,,,
दिल्ली मेट्रो को
उड़ानेकी धमकियां
आने लगी हैं,,,,,
सुरक्षा कर्मियों की
स्पेशल ड्यूटियां
लगाई जाने लगी हैं
कुछ अतिसंवेदनशील
इलाकों की नाकेबंदियों
की खबरें आने लगी हैं,,
अफवाहों का माहौल
गरम है,उट-पटांग
बयांबाज़ियां आने
लगी हैं,,,,,,,,,
आज़ादी के 70 साल,
बाद एक नई किस्म
की दहशत नज़र
आने लगी है,,,
सीमाओं पर सुरक्षा
मे कसाव के साथ
आन्तरिक घुसपैठियां
सर उठाने लगी हैं,,
अब लगने लगा है
जनाब,सच में देश
की आज़ादी की
सत्तरवीं वर्षगांठ
आने लगी है,,
गुरुवार, 10 अगस्त 2017
सुनो सजन,,,,!
(चित्राभार इन्टरनेट)
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
माथे पे बिंदिया
है लगानी,,
फिर आढूं
मै चुनर धानी।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
आंखों मे कजरा
है लगाना,,
फिर नयन
है तोहसे लड़ाना।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
जूड़े मे गजरा
है सजाना,,
फिर इतरा
के लिपट जाना।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
नयन से नयना
है मिलाना,,
फिर लजा
के नज़रे झुकाना।
सुनो सजन!
हटा दो घर के
सारे दर्पण,,
निखरूँ मै
इन नयनों में झांक,
बोला ना है
कैसा तुम्हारी
प्रीत में अर्पण ?
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
माथे पे बिंदिया
है लगानी,,
फिर आढूं
मै चुनर धानी।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
आंखों मे कजरा
है लगाना,,
फिर नयन
है तोहसे लड़ाना।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
जूड़े मे गजरा
है सजाना,,
फिर इतरा
के लिपट जाना।
सुनो सजन!
दिखाओ ना
ज़रा नयनों
का दर्पण,,
नयन से नयना
है मिलाना,,
फिर लजा
के नज़रे झुकाना।
सुनो सजन!
हटा दो घर के
सारे दर्पण,,
निखरूँ मै
इन नयनों में झांक,
बोला ना है
कैसा तुम्हारी
प्रीत में अर्पण ?
बुधवार, 9 अगस्त 2017
मै कुमुद-कुंज सी बन जाऊँ,,,,
(चित्राभार इन्टरनेट)
आज शुभरात्रि बोलने का मन नही है,,,,,चांद को,,,,,।कुमुदिनियों ने अभी तो अलसाई पलकों को मलना शुरू किया है। धवल,,सुकोमल,,,अधखुली पंखुड़ियों ने अभी तो चांद को देखना शुरू किया है।
दिन भर तो खुद को कली सा समेटे ,,,,सूरज के ताप से,मन की नरम अभिव्यक्तियों,,भीनी-भीनी सुगन्ध को मुरझाने से बचाए रखा था। अब अपने चितेरे की उपस्थिति मे खुद को खिला रही है।
रात निःशब्द है,,,और चाँद मेघों से ढ़का हुआ। थोड़ा बोझिल सा है। खुलकर सामने नही आ पाने की विवशता दिख रही है। कोई आग्रह करने का भी आज मन नही,,,। ऐ चांद आज मेघों की झीनी चादर से तुम मुझे निहारो,,,मै तुम्हे निहारूँ,,,,,,,,,,।
बस आज शुभ रात्रि बोलने का मन नही,,,,,। मै इन कुमुद कुंज के साथ खुद को भी खिला देना चाहती हूँ,,,। पूरी तरह से तुम्हारे ख्यालों मे खुद को लीन कर,,मन के शांत सरोवर पर तैरना चाहती हूँ। जब कभी मन भयभीत कर देने वाली भविष्य की विनाशकारी आशंकाओं के दलदल में फंस जाता है,,,,,,कई दिनो तक विषाद,,भय से तड़पता है,,,रोता है बिलख लेता है,,,सारे नकारात्मक उद्गारों को कहीं अनंत पाताल में छुपा देता है,, तब एक अजीब से ठहराव की अनुभूति आती है।
उस पल मै अपने को कुमुदिनियों के सौम्य,,उज्जवल,सुकोमल कुंज के बीच बिठा लेना पसंद करती हूँ,,,। मन करता है,,,इस सृष्टि के सुन्दरतम् सृजनों से अपना परिवेश सजा लूँ।
सब कुछ भूलकर कुमुद कुंजों संग अटखेलियां करती रहूँ।
अपनी अंगुलियों से उन खिले हुए पुष्पों के आकारानुरूप स्पर्श खींचूँ,,,। कभी नयन को झील सा गहरा बना कर,,,उन कुंजोंके झुंडों को बसा लूँ ,,,। अपनी नसिका द्वारा एक दीर्ध निःश्वास के साथ सभी व्यग्रताओं और चिन्ताओं की श्वास बाहर फेंक खाली कर लूँ,,,और बड़े प्यार से एक एक कर हर पुष्प की सम्मोहिनी भीनी-झीनी सी सुगंध को अपने अंतर तक भर लूँ।
सुकुनी सुगंध का संचार रक्तकोशिकाओं मे भर जाए,,।
मन से मस्तिष्क तक सब कुमुद- कुंज बन जाए। और मै एक शांत सरोवर,,,, सुन्दर कल्पनाओं के कुमुद-कुंज को अपने ऊपर तैराती हुई,,,मेघों की आगोश में सोए बोझिल चाँद को,,,,,,,,असीम प्रीत से भरी पूरी तरह खिली कुमुदिनी सी अपलक निहारती रहूँ।
आज शुभरात्रि बोलने का मन बिल्कुल भी नही,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,🌼🌝
मंगलवार, 8 अगस्त 2017
महिलाएं कितनी सुरक्षित,,,,?
(चित्राभार इन्टरनेट)
रक्षा-बंधन के पावन-पर्व की धूम अभी शांत नही हो पाई थी कि,,,'चंडीगढ़ की वर्णिका कुंडू' का पीछा किन्ही राजनेता के सुपुत्र द्वारा किए जाने की घटना आज हर तरफ फैली हुई है।
ऐसा नही है कि- यह कोई पहली घटना है। रोज़ाना ऐसी शर्मसार करती, और बड़े शहरों-महानगरों मे महिलाओं की सुरुक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाती ऐसी सैकड़ों वारदातें होती रहती हैं। छोटे शहरों की तो बात ही छोड़ दीजिए।
आधुनिकता के इस युग में लोग बढ़ चढ़ कर महिला सुरक्षा एंव सशक्तिकरण पर बड़बोली बोलते सुनाई देते हैं। परन्तु क्या बस बोल देने मात्र से ही सोच का निर्माण हो जाता है? देश के भाग्यविधाताओं और उनकी बिगड़ैल संतानों की सोच को साफ सुथरा कैसे बनाया जा सकता है,,इस पर कोई कदम कौन उठाएगा,,? क्या इन मुद्दों पर भी कोई कानून बनाए जाएगें,,,???
और कितने कानून बनाए जाने की दरकार है,,? जब ये कानून ही कानून बनाने वालों के हाथों की कवपुतली बन कर रह जाएं तो,,,फिर सब राम भरोसे है।
एक महिला क्या दिन ढलने के बाद अपनी इच्छा के अनुसार घर से बाहर कदम नही रख सकती,,? यदि निकले तो उसकी जीवन-शैली पर तन्ज़ कसे जाते हैं। अरे भई क्यों,,,? क्या महिलाएं किसी अजायबघर का विचित्र जीव हैं? जो रास्ते पर निकलें तो लोग आंखें फाड़-फाड़कर घूरने लग जाएं। रात के 12 बजे वह ऑफिस से ,पब से ,पार्टी से कहीं से भी अकेले लौटे तो,, पुरूष उनका पीछा करना शुरू कर दें?
मैं उस हिम्मती महिला वर्णिका कुंडू के साहस को सलाम करती हूँ, के उन्होने उस भयावह परिस्थिति में अपनी मनोस्थिति को नियंत्रित किए रखा। और उन कार सवार बिगड़ैल सुपूतों के अमानुषिक सोच को अंजाम देने से, खुद को बचा लिया।
वे निडर होकर सामने आईं। एकबार को उनके साहसी हौंसलों ने ,बुरी नियत रखने वालों को झंकझोर अवश्य दिया है। बाकी तो कानून अपने दांव-पेंच, गवाह-सबूत के पचड़ों मे खुद ही उलझता,,उलझाता कोई भी उचित कारवाही कर पाएगा या नही,?,ऐसी विकृत सोच वालों को उचित दंड मिलेगा या नही,,? इन सबकी आस करना फिजूल है।
पीछा करने वाला किसी भी पार्टी के नेता का बेटा हो, किसी भी नामी रईसज़ादे का 'सूपूत' हो,,यह उतना अहम नही है,,अहम ये होना चाहिए,,कि ऐसी असामाजिक कृत करने वाला बस गुनहगार समझा जाना चाहिए। उसके दंड की उचित सज़ा मिलनी चाहिए।,। सवाल महिला रात में घर से बाहर क्यों गई इसपर उठने की बजाय ,, पुरूषों की ऐसी विकृत सोच पनपाने वाली परवरिश पर उठने चाहिएं,।
कर्मवती रक्षा की गुहार लगाएगी और हूँमायूँ राखी के वादे को निभाने दौड़ा आएगा,,ऐसी अपेक्षा हमे अब शायद कानून व्यवस्था से रखना छोड़ देना चाहिए।
हे देश की कर्मवतियों,!!,स्वयं की रक्षा खुद करना सीखो। आत्मरक्षा के सभी पैंतरे सीखो,,,अपने अंदर इस तरह के हैवानों से जूझने की आन्तरिक एंव बाह्य शक्ति को पोषित और पल्लवित करो।
अब बस यही एकमात्र उपाय है,,,। संबल बनिए,सक्षम बनिए,निडर बनिए,, आपके आत्मविश्वास को देख एकबार को हैवानियत भी खौफ खा जाए।
रक्षा-बंधन के पावन-पर्व की धूम अभी शांत नही हो पाई थी कि,,,'चंडीगढ़ की वर्णिका कुंडू' का पीछा किन्ही राजनेता के सुपुत्र द्वारा किए जाने की घटना आज हर तरफ फैली हुई है।
ऐसा नही है कि- यह कोई पहली घटना है। रोज़ाना ऐसी शर्मसार करती, और बड़े शहरों-महानगरों मे महिलाओं की सुरुक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाती ऐसी सैकड़ों वारदातें होती रहती हैं। छोटे शहरों की तो बात ही छोड़ दीजिए।
आधुनिकता के इस युग में लोग बढ़ चढ़ कर महिला सुरक्षा एंव सशक्तिकरण पर बड़बोली बोलते सुनाई देते हैं। परन्तु क्या बस बोल देने मात्र से ही सोच का निर्माण हो जाता है? देश के भाग्यविधाताओं और उनकी बिगड़ैल संतानों की सोच को साफ सुथरा कैसे बनाया जा सकता है,,इस पर कोई कदम कौन उठाएगा,,? क्या इन मुद्दों पर भी कोई कानून बनाए जाएगें,,,???
और कितने कानून बनाए जाने की दरकार है,,? जब ये कानून ही कानून बनाने वालों के हाथों की कवपुतली बन कर रह जाएं तो,,,फिर सब राम भरोसे है।
एक महिला क्या दिन ढलने के बाद अपनी इच्छा के अनुसार घर से बाहर कदम नही रख सकती,,? यदि निकले तो उसकी जीवन-शैली पर तन्ज़ कसे जाते हैं। अरे भई क्यों,,,? क्या महिलाएं किसी अजायबघर का विचित्र जीव हैं? जो रास्ते पर निकलें तो लोग आंखें फाड़-फाड़कर घूरने लग जाएं। रात के 12 बजे वह ऑफिस से ,पब से ,पार्टी से कहीं से भी अकेले लौटे तो,, पुरूष उनका पीछा करना शुरू कर दें?
मैं उस हिम्मती महिला वर्णिका कुंडू के साहस को सलाम करती हूँ, के उन्होने उस भयावह परिस्थिति में अपनी मनोस्थिति को नियंत्रित किए रखा। और उन कार सवार बिगड़ैल सुपूतों के अमानुषिक सोच को अंजाम देने से, खुद को बचा लिया।
वे निडर होकर सामने आईं। एकबार को उनके साहसी हौंसलों ने ,बुरी नियत रखने वालों को झंकझोर अवश्य दिया है। बाकी तो कानून अपने दांव-पेंच, गवाह-सबूत के पचड़ों मे खुद ही उलझता,,उलझाता कोई भी उचित कारवाही कर पाएगा या नही,?,ऐसी विकृत सोच वालों को उचित दंड मिलेगा या नही,,? इन सबकी आस करना फिजूल है।
पीछा करने वाला किसी भी पार्टी के नेता का बेटा हो, किसी भी नामी रईसज़ादे का 'सूपूत' हो,,यह उतना अहम नही है,,अहम ये होना चाहिए,,कि ऐसी असामाजिक कृत करने वाला बस गुनहगार समझा जाना चाहिए। उसके दंड की उचित सज़ा मिलनी चाहिए।,। सवाल महिला रात में घर से बाहर क्यों गई इसपर उठने की बजाय ,, पुरूषों की ऐसी विकृत सोच पनपाने वाली परवरिश पर उठने चाहिएं,।
कर्मवती रक्षा की गुहार लगाएगी और हूँमायूँ राखी के वादे को निभाने दौड़ा आएगा,,ऐसी अपेक्षा हमे अब शायद कानून व्यवस्था से रखना छोड़ देना चाहिए।
हे देश की कर्मवतियों,!!,स्वयं की रक्षा खुद करना सीखो। आत्मरक्षा के सभी पैंतरे सीखो,,,अपने अंदर इस तरह के हैवानों से जूझने की आन्तरिक एंव बाह्य शक्ति को पोषित और पल्लवित करो।
अब बस यही एकमात्र उपाय है,,,। संबल बनिए,सक्षम बनिए,निडर बनिए,, आपके आत्मविश्वास को देख एकबार को हैवानियत भी खौफ खा जाए।
खुशबू क्यों अदृश्यमान है,,,,,,
उसको कहाँ खोजूँ जो मन मे समाया है,,
फूल तो दिखता है पर खूशबू कहाँ दिखती है,,
और हठ खूशबू को देखने की है,,,
महसूस तो बहुत कर चुकी,,,,
अब आप कहेंगें फूल जीव और खूशबू ईश के समान है,,
एक शरीर और दूजा प्राण है,,
नसिका ले रही गंध और इन्द्रियां
हो रही सम्मोहन से निष्प्राण हैं,,
पलके मुंद रही और मुख पर
आनंद की मुस्कान है,,,,,
सब सुख लेकर भी आंखों
को वही प्रश्न किए परेशान है,,
अनुभूतियों में जो दिख रहा
उसकी प्रकटता क्यों अदृश्यमान है,?
जानकर भी बन रहा मन अन्जान है,,
पुष्प तो दिख रहा खूशबू क्यों अदृश्यमान है,,,,,,,,,,?
🌺🍃
सोमवार, 7 अगस्त 2017
माँ बन्दर और बेबी बन्दर,,,, (बालकविता)
(माँ बन्दर और बेबी बन्दर का यह प्यारा
सा चित्र नेहा ने बनाया और मै कविता
लिखे बिना रह नही पाई😃)
माँ बन्दर
और बेबी बन्दर
संग-संग खेलें
मस्त कलंदर
तरह तरह के
सा चित्र नेहा ने बनाया और मै कविता
लिखे बिना रह नही पाई😃)
*बालकविता*
माँ बन्दर
और बेबी बन्दर
संग-संग खेलें
मस्त कलंदर
तरह तरह के
फल माँ लाई
लीची, केला
तरबूजा सुन्दर
बेबी बन्दर,
बेबी बन्दर
कुछ तो धर ले
मुहँ के अन्दर
माँ को दिन भर
नाच नचाए
छत के ऊपर
घर के अंदर
पढ़ने का बस
नाम ना लेना
बने बहाने
हो छूमन्तर
माँ बन्दर और
बेबी बन्दर
कितने प्यारे
छुन्दर-मुन्दर😘
लीची, केला
तरबूजा सुन्दर
बेबी बन्दर,
बेबी बन्दर
कुछ तो धर ले
मुहँ के अन्दर
माँ को दिन भर
नाच नचाए
छत के ऊपर
घर के अंदर
पढ़ने का बस
नाम ना लेना
बने बहाने
हो छूमन्तर
माँ बन्दर और
बेबी बन्दर
कितने प्यारे
छुन्दर-मुन्दर😘
मुस्कुरा कर हरा देती है हर दर्द को,,,,,, रितु 😊
(ऐ ज़िन्दगी तू लाख
सितम कर,,,,,
हम भी तेरी ईंटों का
जवाब पत्थर से देंगें😜)
पत्थर दिल
सनम कहा गया
दर्द ना सहा गया
पर हमारी रितु
के केस मे कुछ
उल्टा हो गया
पत्थर इसके
दीवाने हो गए
प्यार की मूरत
बना रितु मे
खो गए 😜
पत्थरों के इश्क
का अंजाम हुआ
बुरा बेचारी के पीछे
हाथ धोकर
पड़ गईं दवा😢
पड़ी अस्पताल में
फेसबुक पर घूमें
हम कह रहे आराम कर
पर कौन किसकी सुने😜
ओट खिला ले जितना
हम उफ्फ ना करें
पत्थरों से छुड़ा पिंड
हम ऑनलाइन खड़े
देख रितु आज
तेरा भी नम्बर आया
तेरे दीवाने पत्थरों ने
मुझसे ब्लाॅग लिखवाया😃
चटर-पटर तेरी
करें हम मिस
ठीक होकर जल्दी आ
करे सब मिल
खिसफिस्सस😃😃
सस्नेह लिली😊
शनिवार, 5 अगस्त 2017
धूल,,,,,,,,,
(चित्राभार इन्टरनेट से)
'धूल 'उड़ती है जब तो सबको संक्रमित कर देती है,,,, क्योंकि वह खुद किसी स्थूलता से खंडित हो,,टुकड़े-टुकड़े मे विभाजित हो चुकी होती है,,,। दर्द होता है बहुत जब अस्तित्व बिखरता है। आंखें दुखती हैं पर आंसू नही टपकता है। आज समझ पाई मैं धूल जब उड़ती है तो क्यों आसपास धुंध कर लेती है,,,,विभाजितता की पीड़ा से सबको संक्रमित कर देती है,,,,,,,,,
पता नही कब अपनी ज़मीन छोड़,,, आवारा हवाओं में धूल के कणों सी बिखर गई थी। अपनी स्थूलता का त्याग कर,,,कतरा कतरा उड़ा रखा था,,इन हवाओं के संग।
तब आश्रु निकलते थे आंखों से,,पर तेज़ हवाओं में आद्रता बन घुल जाते थे। और लोग कहते थे,,,आज हवाओं मे कुछ नमीं सी है,,,,,,,,,,।
पता नही कब सावन आया,,बरस गया मुझपर,,,और मैं रूखी धूल,,बहुत जद्दोजहद करती रही खुद को यूँहीं तैरता कायम रखने की,,,,,,,,,। पर रख ना पाई,, उन नेह भरी बूँदों के भार समेत नीचे आ गिरी।
अपनी ज़मीन से जा मिली। ये जो पहली बारिश के बाद,,,आप कहते हो ना,,'मिट्टी की सोंधी' महक अच्छी लगती है,,,,,,,! क्यों ना अच्छी लगे,,??? कितनी मुझ सी बिखरी हुई धूल की कणें,,,नेह की बारिश से आलिंगनबद्ध हो अपने असल वजूद से जुड़ जाती हैं,,,,,,। महक जाती हैं,,,,,। सोधीं खुशबू फैलाती हैं,,,तन्द्राओं को सम्मोहित कर जाती हैं।
ये सावनी बादल,,ये सावनी बारिश,,,,एक मौसम की मेहमान,,आएगी हर बरस,,और फिर चली जाएगी। वो धूल एक मौसम के लिए ही अपने वजूद से जुड़ेगी,,,,,।
फिर वही भादों की चिलचिलाती धूप,,,अधगीली धरती को सुखाएगी।अपनी गरमी से धरती के सीने में उमस उठाएगी।
धरती से नमी सोखता सूरज और तिलमिलाएगा,,। फिर हर तरफ की हरियाली इस तिलमिलाती ऊष्मा से सड़ती-गलती नज़र आएगी,,,दुर्गन्ध उठाएगी,,,,।
वो आवारा धूल की कणें,,, बादलों से 'इकबार बरस जाओ' की गुहार लगाएं गीं,,,,,,। बरस जाएगें भादों के अनमने से बादल,,,। पर क्या इस अनमनी बारिश से धूल की कणें,,वही प्रथम बारिश का अविस्मरणीय आलिंगन आभास पुनः पाएगीं,,,,!!!!!!!
अब आंखों से आश्रु नही झरते,,,, वह तो अब दुखती हैं। भादों की बारिश के जैसे,,, अनमनी बरसात,,चिलचिलाती धूप,,,और असहनीय उमस के अहसास,,,,की पीड़ा लिए।
बिखर कर जुड़ गया वह धूल का कण,,, फिर से तैयार हो रहा है बिखरने को,,,,। आवारा हवाओं के संग पहले सा उड़ने को।
बादलों को क्या दोष दें,,,! जितनी आद्रता थी धरा पर उतना ही तो भर पाएगें,,,,,,। फिर सावन की रहेगी प्रतिक्षा,,,,वह एक बार फिर धूल के कणों को गले लगाएगें।
प्रकृति सिखाती कितना व्यवहारिक है,,,सिखने वाले ही बहक जाते हैं। एक दूजे पर दोषारोपण कर इंसानी फितरत को दर्शाते हैं,,,,,,,,,,।
सावनी बादल की प्रतीक्षा में,,,,,एक धूल फिर से उड़ चली,,,, दुखती हैं आंखें,,,पर वह बह चली,,,,,,,,,,,,,,,
बुधवार, 2 अगस्त 2017
मुखौटा,,,
(चित्राभार इन्टरनेट)
हर चीज़ इतनी ढकीं-मुदी
क्यों होती है,,?
किताबें जिल्द से,,
आत्म शरीर से,,
शरीर कपड़ों से,,,
भाव जज़्बात अल्फाजों से,,
बदसूरत चेहरे मेकअप से,,
बालों की सफेदी डाई से
पाप कर्म दया-दान से,,
झूठ फरेब एक कपट मुस्कान से
घर की बदहाली परदों से,,
टूटा हुआ टेबल मेज़पोश से
दिल की उदासी खोखली खुशी से,
अकेला पन जबरदस्ती की भीड़ से,,
अनचाहे रिश्ते झूठे प्यार से,,
प्यार के रिश्ते लोक-लाज से,,,
सब कुछ खुलकर क्यों नही है,??
मुखौटी लोगों पर कसते हैं फबतियां,
उनके खुद के भी चेहरों पर होते हैं
मुखौटे, बस फर्क इतना वो मुखौटा
भी एक मुखौटे से छुपा जाते हैं,,
अपनी कमियों को बड़ी खूबसूरती
से झीनें आवरण से लुका जाते हैं,
मैने भी एक मुखौटा ही लगा रखा है
एक हुनर है लिख जाने का,तो,,
अपनी कमियों को शब्दों से छुपा रखा है
है पुरजोर कोशिश के बेपरदा हो जाऊँ
अपनी आत्मा को शरीर के मुखौटे से
आज़ाद कर जाऊँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
~लिली😊
हर चीज़ इतनी ढकीं-मुदी
क्यों होती है,,?
किताबें जिल्द से,,
आत्म शरीर से,,
शरीर कपड़ों से,,,
भाव जज़्बात अल्फाजों से,,
बदसूरत चेहरे मेकअप से,,
बालों की सफेदी डाई से
पाप कर्म दया-दान से,,
झूठ फरेब एक कपट मुस्कान से
घर की बदहाली परदों से,,
टूटा हुआ टेबल मेज़पोश से
दिल की उदासी खोखली खुशी से,
अकेला पन जबरदस्ती की भीड़ से,,
अनचाहे रिश्ते झूठे प्यार से,,
प्यार के रिश्ते लोक-लाज से,,,
सब कुछ खुलकर क्यों नही है,??
मुखौटी लोगों पर कसते हैं फबतियां,
उनके खुद के भी चेहरों पर होते हैं
मुखौटे, बस फर्क इतना वो मुखौटा
भी एक मुखौटे से छुपा जाते हैं,,
अपनी कमियों को बड़ी खूबसूरती
से झीनें आवरण से लुका जाते हैं,
मैने भी एक मुखौटा ही लगा रखा है
एक हुनर है लिख जाने का,तो,,
अपनी कमियों को शब्दों से छुपा रखा है
है पुरजोर कोशिश के बेपरदा हो जाऊँ
अपनी आत्मा को शरीर के मुखौटे से
आज़ाद कर जाऊँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,।
~लिली😊
मंगलवार, 1 अगस्त 2017
एक गीत लिखो,,,,
एक गीत लिखो
तुम मेरे खातिर
जिसमे पायल
सी रूनझुन हो
सुर ढालों जब
अपने स्वर में
मन मे मद्धम
सी झुनमुन हो।
एक कथा रचो
तुम मेरे खातिर
जिसमे सपनों
की बस्ती हो,
आस-प्यास
सबपूरी होती
खुशियां सारी
सस्ती हों।
एक मौसम रख
दो मेरे खातिर
जिसमे सावन
ना सूना हो
बहे मधुमासी
समीर सुगंधी
आनंद सदा
ही दूना हो।
एक दीप जला
दो मेरे खातिर
जिसकी बाती
ना बुझती हो
मन मंदिर नित
आभा से भरता
ज्योत प्रेम की
जलती हो।
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