शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

काफ़ी है,,,



पहुँच जाता है हूजूम
हर जगह
एक कदमों के निशां
काफी हैं,,,

शहरों में भी होते हैं
कोने सुबुकते
सन्नाटा दिले दरमियां
हो काफ़ी है,,

तलाश ठोंकरे खाती
दर ब दर
नही दिखते पत्थरों पे
निशां,काफ़ी है,,

मंज़िलों के बड़े ऊँचे
चढ़े हैं भाव,
जेबें तार तार हो देती
हैं जवाब,काफ़ी है,,

नसीब फिसलती रेत सा
झरता शबाब,
हथेली में चिपका रहे ज़रा
सा आब,काफ़ी है,,,

उम्मीद की लौ फड़फड़ा
के जले,,
दिख जाए सामने का
सैलाब,काफ़ी है,,,

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

ना जाने कैसा हो अवसान मेरा,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मै गुज़रते वक्त की
दरख़्तों पर
कुछ कोपलें लम्हों की
रख आती हूँ,,
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
मैं खिड़कियों के करीब
बड़े पेड़ों की पंगत गोड़ आती हूँ,,,,,,

बरसाती मौसम की लाचारी
भांपते हुए
देखती हूँ चींटियों को अथक,
एकजुट दाना जुगाड़ते हुए,,
यही सोच मै भी
सुनहरे दानों का जुगाड़
करती हूँ,,
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
मै दिल के गोदाम में
यादों के भोज्य पहाड़
करती हूँ,,,,

दीवारें कमरों की रंगीन
ही सही मगर
छतों की कैनवास सफेद
ही रखती हूँ
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
सीधे लेटकर उकेरने
के लिए कुछ तस्वीरें करीबी
मैं आंखों में बहुरंगीं जमात
रखती हूँ,,,

लिली






मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

दिल की सिगड़ी,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

दिल की सिगड़ी में ,
इश्क जला रखा है।
मैने शब्दों   को ही ,
महबूब बना रखा है।

एहसासों की लकड़ी,
का टाल बना रखा है।
जला के जज़्बातों को,
लाल  सुलगा रखा है।

गर फासलों ने दरमियां,
कश्मीर    बना रखा है।
मैने कल्पनाओ में सही,
बर्फ को पिघला रखा है।


रविवार, 17 दिसंबर 2017

काव्य तो अभी बाधित है,,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

काव्यसागर     तो
अभी     बाधित है,
स्व में     हिंडोलता
चरम उत्पलावित है।

बहेगा तब तट तोड़
कर,अभी तो  लहरें
अधीर हैं,चंचल  हैं,
अदम्य,परन्तु  भाव
घनत्व  फकीर   हैं।

गुरूत्व का  सामिप्य
अभी दूर है,अपनत्व
का चुम्बकत्व  अभी
चूर है,स्पर्श का प्रदत्त
अभी  प्रातीक्ष्य     है

ज्वार उच्छवास् तेज़
हैं,भाटों के निश्वास
निस्तेज हैं, कामिनी
काव्य की रही मचल
रूपमाधुर्य शेष    है।

लहरदेह   लहराएगी
अभिव्यक्तियां    तब
गहराएगी,  मिलन के
गहन चीत्कार से कवित्त
का श्रृंगार अभिषेक है।

काव्यसागर        तो
अभी     बाधित    है,
स्व मे        हिंडोलता
चरम् उतप्लावित  है।

ऐ ज़िन्दगी! तू मेरे झरोखों को किवाड़ क्यों नही देती,,,,

                           (चित्राभार इंटरनेट)

पिस रही हूँ
मैं भी पत्थरों
के बीच पर,
हिना सी रंगत
तो नही देती?
ऐ ज़िन्दगी !
तू मुझे मेरी
मुहब्बत तो
नही देती,,,

खूँटियों से बाँध
देती है किस्मत,
कभी बेखुदी में
बहक के चल
भी दूँ तों,
रस्सी की लम्बाई
तक भटका कर
खींच लेती है,
जब बेखुदी देती है
ऐ ज़िन्दगी!
तो उन खूँटियों
को उखाड़ क्यों
नही देती,,,?

खिड़कियों के
होते भी रोशनदानों
का वजूद बनाया
हवा और रोशनी
का संतुलन बनाया
पर मैं जो बनाऊँ
यही हिसाब
ऐ जिन्दगी!
तू मेरे झरोखों
को किवाड़ क्यों
नही देती,,?

अरमानों के पंख
दे दिये फड़फड़ाने
को,एक खुला
आसमान भी सजा
दिया आगे,
टकटकाई आंखों
में कई भी सपने जागे?
ज्यों उड़ान भरने
को पंख फैलाती हूँ
ऐ ज़िन्दगी!
तू मेरे पिंजरे में
सलाखों की टूटी
दीवार क्यों
नही देती,,,?

लिली 

चिड़ियारानी

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

#बालकविता

चिड़िया रानी बड़ी सयानी
अपने मन की हो तुम रानी।
 
छोटे छोटे पैरों से तुम
फुदक फुदक कर चलती हो।

जाँच परख कर अच्छे से
फिर चोंच से दाना चुगती हो।

बड़ी गजब की फुर्तिली हो
चंचल कोमल शर्मिली हो।

कभी घास पर कभी डाल पर
चीं- चीं करती फिरती हो ।

खुले गगन में पंख पसारे
करती रहती हो मनमानी

चिड़िया रानी चिड़िया रानी
अपने मन की हो तुम रानी।

🐥लिली🐥

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

विजय दिवस श्रृद्धांजली

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

दुश्मन के छक्के
छुड़ा दिए
दंभ के परचम
गिरा दिए
वीर सपूतों ने हंसकर
सीने को ढाल
बना दिए,,

परिवार के ऊपर
उन वीरों नें
देश को सर्वोपरि
माना,,
वीर सिपाही रहा
डटा
जब तक ना बैरी
धूल चटा
हुँकार भरी टंकारों
से शत्रु के
सीने चीर दिए,,

उस पुण्यतिथि के
अवसर पर
हृदयातल से मन
नतमस्तक है,
उन गौरवमयी
बलिदानों पर
'विजय-दिवस' की
दस्तक है,,
शत् शत् नमन
उन वीरों को
श्रृद्धा का सुमन
चढ़ा दिया,,,,

हाथों की लकीरें

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

जब भी बैठती हूँ
खुद के साथ अपनी
हथेलियों को बड़े गौर
से देखती हूँ,,,,

आड़ी तिरछी इन लकीरों
में ना जाने क्या खोजती हूँ,,

सिकोड़ कर कुछ गाढ़ी
खिंची लकीरों की गहराई
नापती हूँ,,,
पता नही इन गहराइयों में
खुद को कहाँ तक डूबा
देखती हूँ????

सोचती हूँ,क्या सच में मेरी
ज़िन्दगी इन रेखाओं से
आकार पाती है,
मेरी मुट्ठी में रहकर
भी मेरी किस्मत
मुझे नचाती है,,,,!!

जो गुज़र गया वह भी तो
दर्ज होगा यहीं,
पता चल जाए कहाँ?
तो मिलाऊँ के,जो खिंचा था
 जी आई हूँ वही,,,,

अजब दस्तकारी है
खुदा की,
इंसा की जिन्दगी
उसकी ही
हथेलियों में पहेलियों
सी सजा दी,,
कुंजी को कर्मों के गहरे
समन्दर में गिरा दी,

किसी तिलस्मी कहानी
की तरह,
हर रोज़ नए मक़ामों
से गुज़रती हूँ
एक से उबर दूसरे में
जा फंसती हूँ

कभी दो घड़ी मिली
फुरसत तो बैठ कर
हथेलियां तकती हूँ
इन उलझी लकीरों
को समझने की
एक नाकाम कोशिशें
करती हूँ,,,

लिली 😊

मथनी मन की

                              (चित्राभार इन्टरनेट)

परमात्मा का
अंश आत्मा,
मिलकर बने
एक दिव्य
ज्योति पुंज,
एक विराट
ऊर्जा कुंड,,,

एक सूर्य,
करता सम्पूर्ण
ब्रह्मांण को
ऊर्जायमान्
दैदिप्यमान्

एक पदार्थ,
अनगिनत
अणुओं का
संघटित रूप
ठोस,द्रव्य,गैस
को देता स्वरूप

सूर्य की
धधकती गात,
नही पड़ती
निस्तेज,करती
सह्स्त्राब्दियों से
सृष्टि का संचार
किन्चिद वह
भी तो पाती
होगी सूक्ष्म
ऊष्मा रश्मियों
से भभकते
कुंड में आग?
परावर्तन का
सिद्धांत तभी
शोध पाया
होगा विज्ञान!

यदि देता है ऊर्जा
तो सोखता भी
होगा ऊर्जा दिव्य
दिवाकर महान!
ब्रह्मांण अपना
अस्तित्व बनाए
रखने के लिए
नित्य गढ़ता नए
ग्रह-उपग्रहों सम
निमित्तो का जहान,,
वरना तो कब का
खुद के हवन-कुंड
में जल कर हो जाता
भस्म आयुषमान!!

विश्वरूप में पाते
प्रतिक्षण कितने
आत्मअंश स्थान
रोग,जरा,दुर्घटनाओं
में खोता मानव प्राण
सृजन-विनाश की
यह आहुतियां
जिलाए रखती हों
किन्चिद 'विश्वरूप'
का विराट अभिमान,,

सृष्टि की दिव्यता,
अलौकिकता रखने
को अक्षुण्य,पुण्य
आत्माओं के विलयन
का रचा होगा प्रावधान
वेद-पुराणों ने कह डाला
इसे विधि का विधान,,,

मन की मथनी
मथे नित नए
मंथन अविराम
निष्कर्षहीन,
किन्तु कुछ तो
लिए होगा अंश
सत्यता का विद्यमान,,,

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

सृजन,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

सृजन
🍃🍂🍂🍃

सृजन सृष्टि
का चलता
प्रतिपल,,,,
सरिधार बहे
ज्यों निर्झर
कल-कल,,

प्रश्न जुड़े
जब 'कारण'
से,,,,,,
एक नूतन
सिरजन अस्तित्व
लिए,,,
नव शोध,निष्कर्ष,
निर्धारण से,,,

एक सोच
लहर सी आती है
मन चेतन सजग
बनाती है,,
सब इंद्रियां संचालित
हो जाती हैं
एक चक्र सृजन
का चलता है,,
कुछ नवल नया
गढ़ जाती हैं,,,

माटी का मोल
नही होता,,
पर जीवन का
अंत वहीं सोता,,
वही माटी सोना
बनती है
जब चाक कुम्हार
के चढ़ती है,,
कितने रूपों में
ढलती है
और कितने सृजन
गढ़ती है,,,

यह जीवन समझो
माटी सम
मत भूलो अपना
अंत गमन,
तो क्यों ना हम
कुम्हार बनें?
नित सुन्दर कृतियां
चाक ढले,
जो आत्मसंतुष्टि
देता हो,,
सृजन महत्ता
कहता हो,,,

लिली 😊

शशि की संगिनी,,,

                            (चित्राभार इन्टरनेट)

शशि शान्त शिशिर रात्रि में,
नीरव सुप्त व्योम शिविर में,
निस्तेज शून्य सा था घूमता,
कोई प्रिये संगिनी था ढूँढता।

निशा कामिनी बन दामिनी,
अरविंद  लोचन   स्वामिनी,
सघन आरण्य से केशलहर,
चलत छम छम गजगामिनी

कटि लचक सरि प्रवाह सी,
 दीप्त देह  कंचन दाह  सी,
अदम्य गर्वित माधुर्य संग,
दिखे यामिनी बड़ी साहसी।

दृगपात हुआ ज्यों चंद्र का,
हियहरण हुआ त्यों तंद्र का,
रूप निरख  सुध खोय रहे,
फुटित चंदन मन सुगंध का।

रूपरजनी झरे तारिका,
चहक उठी मन सारिका,
कलानिधि कला भूल कर,
मद मस्त मदन श्रृंगारिका।

विधु निशि का मिलन हुआ,
ज्योत्सना का प्रस्फुटन हुआ,
कण कण  सब  दैदिप्तमान,
युग युग्म मिलन युगल हुआ।

व्योम शिविर नही क्लांत है,
पथसंगिनी पा तुष्ट शांत  है,
धरा  गगन  तरू ताल  सब,
विधुज्योत्सनामय अब प्रांत है।।

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

तलबगारी तेरे नाम की,,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)


बेचैन करवटों ने चादरी सिलवटों को गहरा दिया,
रात पिसती रही जागकर  चाँद ने पहरा दिया।।

तलबगारी तेरे नाम की दावानल सी भड़कती रही,
हर सांस बड़ी गर्म थी धड़कनो को ठहरा दिया।।

उम्मीद एक बस छूअन की नस नस में उमड़ती रही,
दूर बहुत वह चाँद था बस आह संग कहरा दिया।।

शय डूबी हुई तेरे जिस्म में रह रह कर मचलती रही
तड़पनो को समेट कर एक ग़ज़ल को बहरा दिया।।

सरदियां मौसमे इश्क़ की तन्हाईयों में ठिठुरती रही
लिहाफ़ मेरे जिस्म का कहीं और था फहरा दिया।

लिली 🌷

रविवार, 3 दिसंबर 2017

लुढ़कता आँसू


                           (चित्राभार इंटरनेट)



दाईं आंख
से लुढ़का नसिका
के उभार को बड़ी
कुशलता से पार करता,
अपना मार्ग खुद प्रशस्त
करता,तेज़ी के साथ
तकियें पर,,,,,,,,
अपने निश्चित गन्तव्य
पर पहुँचने की तस्सली लिए
वह गिर गया,,,,

उसका वह पतन
एक समर्पण लिए,
एक नेतृत्व लिए,कई
पथिकों के लिए राह
बनाता,वह गिर गया
झरते रहे कई और
उसके बाद भी,,
पर नेपथ्य में वह था,
स्रोत बना फूटते झरने
का,वह गिर गया,,,,

कर्णों ने सुनी
वह आवाज़
जिसमें भरी थी
भारी मन की भर्राई
भड़ास,एक 'टप्प्'
का था स्वर,और
निकल गए कितने
अकथनीय विशादों
का आभास,,,,,
लिए वह गिर गया,,

उसके बाद निर्झर
धारा बहती रही,
पर नेपथ्य में वह
था,वह प्रथम बिन्दु
तकियें में समाहित
और खोता अपना
अस्तित्व,,,,,,,
वह दाईं आंख से
लुढ़का 'अश्रु बिन्द',,
वह गिर गया,,,

यह कैसी हसरत लाई है शाम,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

यूँ ही लुकते छुपते
किसी क्षितिज पर
अस्त हो जाने की
हसरत,लाई है शाम

एक दीर्घ स्वास संग
खींच लूँ सब कोहराम
निर्मित हुआ यह कैसा
भंवर दिखाती है शाम।

पूछेगा ना कोई मेरे बाद
ज्ञात है मुझे मेरा अंजाम
फिर भी संचय की चाह
प्रश्न कैसा लाई है शाम।

बेवजह बहती है भावो
की नदि,तृष्णा है बेलगाम
ढूबते सूरज संग गहराती
उदासी क्यों लाई है शाम

अच्छा है नदी रूख मोड़ ले,,


                      (चित्र जिमकार्बेट से, मेरा द्वारा )

अच्छा है नदी
रूख मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे

अपने किनारों
को छोड़,हुई
जाती है कृषगात
बड़े पथरीले लगते
हैं आने वाले हालात्

तक्लुफ़ो कों जगह
ही क्यों देना?
फिर उन्हे प्रेम की
नई परिभाषाओं का
रूप देना!!
यह कैसे मरूस्थल में
आ पहुँची है नदिया की
धार,,
मुश्किल हैं खींच पाना
उष्ण बहुत है ये तपता
रेतीला कगार,,

बेहतर है वह खुद को
यहीं से मोड़ ले,
खनिज-लवणों से भरे
खादानों को
खुद में पनपता ही
छोड़ दे,,,

बहुत कुछ संजों कर
लाई है,उन जंगली
पहाड़ों से,,
एक संगीत के स्वर में
बलखाई है,मैदानी
कछारों में,,,
चंचलता की उन उन्मुक्त
धाराओं को,,
रेगिस्तानी ताप में सुखाना
नही चाहती,,

अच्छा है अपने स्वर्णिम
खज़ाने को खुद में
छुपाए
वह चुपचाप
एक मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे।




शनिवार, 2 दिसंबर 2017

वह सुबह दिसम्बर की,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

याद है वह
दिसम्बर की भोर
घने कोहरे को चीरती
बस तुम्हे करीब से
देखने की कसमसाती
तड़प,ठिठुरती ठंड में
नरम कम्बल के आवरण
सा सुकून देगी,,,,

कोई और ख्याल फटकता
नही था दिल के दरवाज़े पर
ना जाने क्यों पहली बार महसूस
किया तंरगे सागर के सतह पर
बहुत चंचल थीं,
अंतस की गहराइयों
में एक असीम सा ठहराव था,,,,
ठहरावी उन्माद अधिक हठीला
होता है,
एक ज़िद के पूरा होने
तक खुद को बंध लेता है,,,,,

एक बेहद हठीले उन्माद को
बंधे मन,चीरता चला था,हर
घने कुहासे के दौर को,,,,
देखिए परिवेश भी कैसे मन
के भाव भांप जाता है,उसी के
मुताबिक समा बनाता है,
रेडियो पर लगातार मिलन गीतों
की धुन लहराता है,,,,

जैसे-जैसे तुम्हारे और मेरे बीच
भौगोलिक दूरियों का फासला
घटता चला,
मेरे अंतस का ठहराव
गहराता चला,,
कहाँ लगता था तुम्हे इतने करीब
देख,दबे अंगार फट के छितर
जाएगें,
बेखुदी में बहकी लड़खड़ाहट
से कदम मचल जाएगें
पर ऐसा तो कुछ भी ना हुआ
ऐसा लगा की चेतनाएं शून्य में
पहुचँ गई हैं,
और हम पूरे दौर को एक शून्य
में जी आए,,

होश पता नही कब आया,,??
अब हर घटनाक्रम को सोच
संवेदनाओं की शिराएं
गुदगुदाती हैं,
गुलाब पर पड़ी शबनमी बूँदों
सी,स्मृतियों को तरो-ताज़ा
बनाती हैं,,

आज फिर सुबह है
दिसम्बर की,,
तारिख में लिपटी
हमारी स्मृतियों को
गुनगुनाते धूपीले अम्बर की,,
रह रह कर स्मृतियों के पटल
पर तुम साक्षात् अवरित हो
रहे हो,
गुलाब पर गिरी इन शबनमी
बूँदों से मुझे भिगो रहे हो,,

लिली🌹