बुधवार, 6 सितंबर 2017

चलो मौन हो जाते हैं,,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

चलो मौन हो जाते हैं,,,,,सुना था मैने शायद तुमसे ही,,जब प्रेम विस्तृत होता है तो मौन हो जाता है,,,। फैलाव में,, बंधन-प्रवाह, शिकायत-नाराज़गी, दुख-सुख, दूर-पास, हास्य-रूदन,,,इन सब का कोई अस्तित्व नही होता। प्रेम का आकाश नीला दिखता है,,,,बस नीला,,,फैला हुआ,,दूरररररररररररररर तक,,आंखों की 'देखन क्षमता' सीमित हो जाती है तब शायद,,,। तो चलो मौन हो जाते हैं,,,,,,,,,,,,
     कहते हो,,तम्हारे कर्मक्षेत्र में तुम प्रतिबाधित हो,,भावक्षेत्र में तुम अघाध,अशेष हो। पर इन दो अलग-अलग भूमिकाओं के पीछे,,,,,व्यक्तित्व एक ही है,,,,,,। मेरा तो भावक्षेत्र कर्मक्षेत्र सब एक,,लो,,, मै फिर से शिकायत कर बैठी,,,,।
      मै साफ कर आई सब जाले स्मृतियों के,, । तुमने कहा-" तुम कैसे क्रूरता से सब हटा आई,,???" उँगलिया नही कांपी,,,?"
,बहुत कुछ बहा ले गई मैं बाढ़ आई नदी की तरह,,। उफान कम हुआ तो पाया अपने ही किनारों को काट आई,,जो गांव पलते थे मेरी शांत धारा के सहारे ,,उनको ही बहा आई मैं।
       कैसे कर गई सब ,,? क्यों कर गई सब,,,,? मेरी प्रीत क्या 'विवेक सम्मत' है,,,? क्यों अक्सर उत्पाती बवंडर सी खुद में तुमको भी समेट कर,,,साथ में कई अनमोल यादों की इमारतों के,,छज्जे,छत,खिड़की,,दरवाज़े, सब उखाड़ कर,,तुम्हे खंडहरों में अकेला छोड़,,शांत हो जाती हूँ,,,,,?
       मै मेरी ही न रही,,,और तुम्हारी भी ना हुई,,,तो फिर मैं कहाँ गुम गई,,,,????? मै लेखों से टिप्पणियों में सिमट गई,,,,, अंतरद्वंद को छोड़,,, सामाजिक चर्चाओं में उलझ गई,,,,? ये 'क्षणिक मनोभाव' का आवेग,,,क्यों मुझे खंडित कर धूल सा उड़ा दे रहा,,,,,?
       ठीक कहते हो,,,"चलो मौन हो जाते हैं।"
मेरी विश्लेषणात्मक चाहत तुम्हे कई बार घायल कर गई,,उपेक्षित कर गई, अपमानित कर गई,,,,,,। समझ नही आता ये 'विश्लेषण करने वाला अधिवक्ता' क्यों जागृत हो जाता है मुझमें,,,,,??? कहीं ना कहीं आहत मेरा मन भी हुआ होगा,,,,। रूहानी सा इश्क है,,,सनम इसमें दुनियावी गणित ना लगाओ,,,!!! कैसे ना लगाऊँ,,,,,,,,, ?? कैसे बताऊँ के रूह से जुड़ जाने के बाद मुझमें दुनियावी जुड़ाव की चाहत पनपने लगी हैं,,,।
         तुम्हारे 'वृष्टिछाया क्षेत्रों' सी घनघोर बारिश ने मुझ नदी का जलस्तर सामान्य से ऊपर उठा दिया है,,,,,। नदी अब यह सोचने लगी है कि,,,जलस्तर ऊँचा कर मेघ को ही खुद में समाहित कर ले,,,!!! तभी तो देखो ना आए दिन जुगत लगाने लगी है,,,बाढ़ सी प्रचड़ हो  बहाने लगी है,,,,,,। परन्तु यह कहाँ सम्भव,,,,,,,,!!!!
        ठीक ही कहते हो,,,"चलो मौन हो जाते हैं,,,,!" शायद विश्लेषणात्मक प्रेम को मौन की दरकार है,,,,। तुम्हे भावनात्मक पटखनी देने में मुझे जीत का एहसास कभी नही हुआ,,,। पर तुम्हे लगता है की मै जीत-हार का खेल खेल रही हूँ तो ठीक है,,अब मन नही जीतने का,,,,,।कितनी बार जीत का जश्न मनाऊँ,,,?? अब चलो मै अब हार जाऊँ,,,,,।
       अंत में बस इतना ही,,,,टिप्पणियों में सिमटना मेरा ध्येय नही,,,तुम्हे लेखों में विस्तार देना मेरा लक्ष्य,,, पर,,,तुम अब व्यस्त हो,,,अपने विस्तार को देखने का समय नही,,,,कितने ही विस्तार पड़ें हैं तुम्हारी प्रतिक्रिया के बिना,,,,,!!! क्या मेरा मन आघात नही खाता,,,,????
     शिकायत अब और नही,,,,अब बस मौन। किनारे पर बैठ कर कंकड़ फेकोगें,,अब तभी तंरगित लहरे उठेगीं। ज़ोरों कि मुस्कुराहट आ गई,,,,यह सोच कि,,,
नदी चंचलता छोड़ दे,,,,
फिर किसी तूफान का आगाज़ हो
और बांधों को ना तोड़ दे,,
ऐसा कभी हुआ है भला,,?
अपने किनारों को खुद ही
काट दे,और शांत होकर
उन्ही किनारों में सिमटना
छोड़ दे,,,,,,,,??????
ना,,ना,,ना,,कभी नही
हो सकता,,,,,,!!!
 पर अभी मौन का पालन होगा😜।

1 टिप्पणी:

  1. यह लेखन सोच के चिंतन के मनन के और आधुनिक जीवन के अंतर्द्वंद्व और अंतर्वैयक्तिता का वृहद और गहन चित्रण करता है। इस लेख की विशेषता यह है कि इसमें समस्या ही नहीं बल्कि समाधान भी है। लेख का अंतिम भाग तेज प्रवाहित नदी की तरह चंचल अनुराग को एक खिलखिलाहट प्रदान करता है। यह लेख ऐसा है जैसे एक लोटे में गंगा को भर लिया गया हो।

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