(चित्राभार इन्टरनेट)
विश्वविद्यालय का परास्नातक सत्र एक वर्ष विलम्ब से शुरू होता था,,अतः स्नातक पूरा कर मैं छात्रावास से घर आ गई थी।
पिता जी का स्थानान्तरण अब इलाहाबाद ही हो चुका था तो वैसे भी छात्रावास में रहना बेवजह था।
अब घर के कामकाज, टेलीविज़न देखने के अलावा कोई और काम नही था। पड़ोस में तिवारी अंकल जी की बड़ी बेटी शालिनी दीदी जो कि,,पास ही के एक प्राइवेट स्कूल की प्राचार्या थीं, उन्होने एक दिन मेरी माता जी से कहा-' लिली को भेज दीजिए हमारे स्कूल में एक अध्यापिका की आवश्यकता है,,वैसे भी अभी वह खाली ही बैठी है।"
माँ को भी लगा पास ही तो जाना है,,मन भी लगा रहेगा उन्होने हाँ कर दी। मात्र 300/ रु• वेतन पर मैने अध्यापिका के रूप में अपने जीवन की पहली नौकरी आरम्भ की।
मुझे छोटे बच्चों के बीच रहना बहुत प्रिय रहा है शुरूवात से ही,,,और उनको पढ़ाने में भी बड़ा आनंद आता था,,,। किसी किसी दिन सबक पूरा होने पर,,, मन गढ़न्त कहानियां सुना दिया करती थी,,जिनके पात्रों के नाम बड़े उट-पटाँग से हास्योत्पादक होते थे। बच्चे कितने मनोयोग से मेरी ऐसी कहानियों को सुनते थे,,,मुझे बड़ी सुखद अनुभूति होती थी यह सब देखकर।
फिर तो बच्चे इसी लालच में अपना काम जल्दी पूरा कर लेते थे कि -आज लिली मैडम नई कहानी सुनाएगीं। आज संस्मरण के तौर पर यह लिखना फिर से उसी परिवेश में पहुँचा रहा है। चलचित्रों में देखते हैं हम,,कैसे सोचते सोचते,,हमारे ख्याल सजीव होकर हमारे सामने चलने बोलने बतियाने लगते हैं,,,ठीक वैसी ही अनुभूति से मैं गुज़र रही हूँ।
वैसे तो मैं छोटी कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाती थी,, इसके साथ कक्षा छः के विद्यार्थियों को हिन्दी भी पढ़ाती थी। उस कक्षा में एक छात्र था 'राजू' नाम से,, एक बड़ी विचित्र आदत थी,,,उसकी गलती पर उसे डांटने पर वह हंसता था। जिसे देख डांटने वाले अध्यापक का गुस्सा और परवान चढ़ जाता था।
वह अक्सर लिखने में मात्रिक अथवा वर्तनी दोष करता था। श्याम-पट पर लिख देने के बावजूद उसके लेखन में बहुत गलतियां होती थीं। मैने कई बार उसको इस गलती पर डांटा,,परन्तु उसको हंसते देख मुझे बहुत झुंझलाहट होती थी। धीरे धीरे मैने उसको कुछ बोलना ही बंद कर दिया।
अब उसकी उत्तर-पुस्तिका जांचते समय,मैं गलतियों को सुधार कर के खुद ही लिख दिया करती थी,क्योंकि मुझे लगने लगा था कि,वह त्रुटियां जान-बूझकर नही करता था। मेरे ऐसे व्यवहार से राजू में काफी परिवर्तन नजर आए थे। कम से कम मेरी कक्षा में वह प्रयास ज़रूर करता था अपनी त्रुटियों को यथा-सम्भव कम करने की,,,,परन्तु,ऐसा हो नही पाता था। भले ही अन्य अध्यापकों की कक्षा में वह ढींट पन दिखाता रहा हो,,पर हिन्दी की कक्षा में खुद को अनुशासित रखने की उसकी चेष्टा स्पष्ट रूप से मैं महसूस कर पाई थी।
सरदियों के दिन थे। गणित के मास्टर साहब ने कक्षा छः के बच्चों को श्याम-पट,चाॅक समेत बाहर धूप में बुला लिया। अचानक मास्टर साहब कि गुस्से से तिलमिलाई आवाज़ पास की कक्षाओं तक आने लगी-
"गद्हा नही ते,,,सकूल में बाप महतारी के पैइसा उड़ाए खातिन आवत है।खोपड़िया में गोबर भरे है का बे,,,?"
मैं देखने के लिए बाहर आई,,, तो देखती हूँ सारे बच्चे गोला बनाकर खड़े देख रहे हैं,,, मास्टर साहब बेरहमी से बेंतों और खिसियाएं शब्दों की बारिश राजू पर अंधाधुंध किए जा रहे थे।
मै देखकर आश्चर्य जनक रूप से हतप्रभ थी,,, कि इतनी ज़ोर और बलपूर्वक प्रहार सहने के बाद भी 'राजू' हंस रहा था,,,,,,,,,,,,।
थक कर मास्टर साहब ने बेंत पटक दी,,और राजू हाथों को रगड़ता हुआ चुपचाप बैठ गया।
मेरा अंतस अंदर तक दहल गया,,,समझ ही नही आ रहा था कि- राजू दया का पात्र है,,,या सहानुभूति का,,???
एक सह अध्यापिका ने बताया,,,कि एकबार चारा काटने वाली मशीन से इसकी एक अंगुली कट गई थी,,, राजू फिर भी नही रोया था,,!'
उस दिन मैं बहुत बेचैन हुई थी,,मैने घर आकर माँ को भी यह बात बताई। माँ ने एक बहुत गहरी बात बोली- "उसका हंसना ही उसके आंसू हैं। दर्द की भीषणता जितनी अधिक होती है 'राजू' उतना अधिक हंसता है।"
वह दिन और आज का दिन,,,मेरे हृदय की गहराइयों से 'राजू' का व्यक्तित्व एक अमिट छवि छोड़ गया। पर आज इतने सालों बाद उसे कलमबद्ध करते हुए भी मैं यह नही समझ पा रही,,,,क्या वास्तव में राजू 'क्रोध का पात्र' था,,,,,,?