शनिवार, 31 मार्च 2018

पनघट,,, दोहे

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मन का घट खाली पड़ा,पथ पनघट इक ठौर,
जो पाटे पथ कंकरी,तृप्त हृदय नहि और।

भौतिकता व्याकुल करे,चैन कहीं ना आए,
पनघट मोरे राम जी,व्याकुलता मिट जाए।।

सब मिल पनघट को चलीं,बतियावैं चित खोल,
दुख-सुख कह लेती सभी,पल कितने अनमोल।।

पनिया भरने को चली,गोरी रूप सजाय,
साजन पनघट पर खड़े,लाज नयन झुकि जाए।


पनिया से भरी गगरी,सिर पर लिए उठाय,
पनघट से चलि सांवरी,श्याम जिया भरमाए।

गुरुवार, 29 मार्च 2018

अरावली के बीहड़ ,,और टेसु के जंगल,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मन अरावली का
बीहड़,,
'तुम'
 छिटके टेसु के
'जंगल'
मेरी शुष्कता के
भूरेपन को,
अपनी चटखीली
रंगत से,
रंगीन बनाते हुए,,,
कटीले मनोभाव,
सूखती टहनियों पे,
चुभते हुए,,,
तप्त अंतस चातक सा
अधीर,,
धूल के, सतही
चक्रवात,,
सड़कों पर घूमते से,,
तुम्हारी हरीतिमा को भी,
पतझड़ में उड़ाते,

मन के अरावली बीहड़,,,,
और
तुम,,,,,,,
छिटके टेसु के जंगल,,
मेरी शुष्कता के
भूरेपन को,,
अपनी चटखीली रंगत से
रंगीन बनाते,,
खिले रहना यूँ ही
सदा मेरे उरभूमि पर,,
तुम पर निकाल कर
अपने कटीले,चुभीले
उद्गार,,
शायद मैं फिर हरी हो जाऊँ😊

लिली🌿

बुधवार, 28 मार्च 2018

अधर ना डोलें,,,,,एक गीत,,

                       (चित्राभार इंटरनेट)

अधर ना डोलें
दो नैना बोलें
भावों के भौंरें
मन कलियां खोलें

प्रेम की वाणी
मौन की भाषा
भरे भौन बिच
पियमन टोहलें
अधर ना डोलें
दो नैना बोलें,,,

रात्रि तिमिर में
जुगनू चमके,
जब प्रीतभरे दो,
दृग अमृत खोलें
अधर ना डोलें
दो नैना बोलें,,

सुर सरगम छेड़ें
धड़कन की स्पंदन
मधुस्पर्श तुम्हारा
भंग रंध्रों में घोलें
अधर ना डोलें
दो नैना बोलें,,

कनक कनकती
काया स्वर्णिम
रोम-रोम सब
पियु का होले
अधर ना डोलें
दो नैना बोलें,,

बुधवार, 21 मार्च 2018

पीले लिली

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

🌼'पीले लिली'🌼
🌿🌿🌿🌿🌿

रात भर ओस में भिगी तुम्हारी पंखुड़ियां,,,सूरज की पहली किरण के पड़ते ही,,जैसे धुली-धुली सी,,,ताज़गी से भरपूर दिखती हैं,,,। पत्तों पर अभी भी कुछ बूँदें बिखरी हैं शबनम की,,रात की निशानी सी,,,,,अरूणाई से रौशन चमक रही हैं मोतियों सी,,,,,।
        अपनी खिड़की से मैं अक्सर देखती हूँ ,,नीचें लाॅन की हरी घास पर बीच-बीच में बड़ी अल्हड़ता से उगे हुए 'पीले लिली' के पौधे,,,। मुझे बहुत भाते हैं,,। हरी घास पर थोड़ी थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे 'पीले लिली',,,,।
    रंगों का यह चटखीला समायोजन,,,,,आह!!! मन की आँखों तक कों चौंधिया देता है,,,। पुष्प के रंध्र से एक अद्भुत प्रकाश प्रस्फुटित होता है,,,जो समस्त इन्द्रियों को खुद में खींच लेता है। एक छोटा सा पुष्प सम्मोहन की विस्मयकारी प्रतिभा से परिपूर्ण।
        कैसे मनमौजी पौधे हैं,,,,!!! इन्हे किसी ने संभाल कर,,संजोंकर नही रोपा यहाँ,,,!! ना ये किसी खास देखभाल की चाहत रखते हैं,,। अपने मौसम के साथ खुद ही खिल जाते हैं,,,और मौसम के जाते ही,, खुद ही सूख कर गायब से हो जाते हैं,,,। घास के गझिले सतही झुरमुटों के बीच से निकला,,, एक सीधे ,सुकोमल तने पर खिला 'लिली',,, ऐसा लगता हैं,,भीड़ में चमकता एक अलग,अनूठा,सौम्य व्यक्तित्व,,! जिसका मूल बहुत साधारण और सामान्य,,,सतही घास के झुरमुटों से घुला मिला,,,,। परन्तु जब वह धीरे-धीरे विकसित होता है,,पीले पुष्पों से सुशोभित होता है,,,पुष्प-मंडल पर एक आभा लिए,,रात्रि के आकाश में चमकीले सितारे सा टिमटिमाटा है
             मन को वशीभूत करने जैसी कोई खुशबू नही होती,,इनमें,,,हाँ!! शायद एक बहुत ही स्वाभाविक सी देहगंध ज़रूर होती है,,,जिसे बस महसूस किया जा सकता है।
       मैने पाया है कि-'पीली लिली' का यह मनमौजी पौधा तीव्र सुगंध ना होते हुए भी,,," मेरे मन को महकाता है"।

इसलिए आज सोचा,, 'महकते मन' को 'पीले लिली' से सजा दूँ🌼🌼🌼🌼
लिली🌼

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

❤नटखट गिलहरी❤

                        (चित्राभार इन्टरनेट)

👶👶#बालकविता👶👶👶



ग़ुसलखान की
खिड़की पर,
रहती थी साबुन
की बट्टी,,
जब जाती दोपहर
बाद,
मिलती थी वह
चट्टी-बट्टी😢

रक्खे मिलते गुदड़ी
के ढेर
कतरन-शतरन,
जूट भतेर,,
बूझ ना पाती करता
कौन,,😰
चुपके से घुसता,
ना कोई टेर,,

ए•सी• के फांकों में
घुसकर,
भरी दुपहरी
कुटुर-कुटुर कर,
बुनती रहती
जाने क्या-कुछ ??
एक गिलहरी रहती
घुसकर,,

पकड़ में आई
साबुन चोर,,😈
उफ्फ ये करती
कितना शोर,,😤
भोली आंखें छोटे
कान,🐨
फुर्ती से भागे
हर ओर,,

शान्त दोपहरी में
कितनी बात😰😰
अच्छा भी लगता
इसका उत्पात,,😍
गझिन पूंछ इत-उत
लहरात
लिए धारियां नन्ही
सी गात,,

नटखट गिल्लू आए
ना पास,
झटपट भागे पाकर
आभास,,
पकड़ में आई नन्ही
शैतान,,
फिर भी लगती
मुझको खास❤


गुरुवार, 15 मार्च 2018

मन गिलहरी 😊

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

प्रीत हरीतिमा लिए
अनोखी
साजन तुम्हरे मन की
गलियां,,,
नरम घास का बिछा
गलिचा,
स्नेह भरित जूही की
कलियां,,,

बना गिलहरी सा
मन मेरा,,
फुदक रहा हर डाल
पात पर,,
अधिकार समझ मैं
फिरूँ निडर सी,,,
बैठ शाख पर तोड़ूँ
फलियां,,,

साजन तुम्हरे मन की
गलियां,,,,,,


क्या तुमने सहलाया
मुझको,,?
पीठ पे उभरी स्पर्श
धारियां,,,
गझिन पूछ लहराकर
भागूँ,
लचक गई हैं लाज से
डलियां,,,

साजन तुम्हरे मन की
गलियां,,,,,

प्रेम तुम्हारा पाकर
प्रीतम,
चपल भईं मेरी स्वर-
ध्वनियां,,
दिखने में मैं लगती
भोली,,
तुम संग जागी मन की
रंग-रलियां,,

साजन तुम्हरे मन की
गलियां,,

दास्तानी परिन्दे

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

रह रह कर याद
आ जाते हैं,,,
बड़ी ज़ोर-ज़ोर से
पर फड़फड़ाते हैं,,
दिल की कैद में बंद
कुछ दास्तानी परिन्दे,,

क्या करूँ?????
आज़ाद कर दूँ????
खुले आसमान में उड़ा
इन्हे आबाद कर दूँ,,???

पर ये जाएगें कहाँ???
क्या किसी और के
दिल को पिंजरा बनाएगें??

फिर थोड़ा स्वार्थ सा
है जागता,,,
मुझे क्या,,,,?जाएं जहाँ
इनका जी चाहे,,,!!!

इनकी फड़फड़ाहट
मुझे परेशान करती है,,
भूलना चाहती हूँ
जिन धुंधली पड़ी
यादों कों,,,,,
ये शोर मचा कर उन्हे
दोहराते हैं,,,
और फिर से भूले चेहरों
के स्केच बनाते हैं,,,,

कभी तो प्यार से दुलार
इन्हे सहलाती हूँ,,
पर सच कहूँ,,,
कभी-कभी बहुत अधिक
खीझ जाती हूँ,,,,!!!

हिदायत देकर कुछ दिन
और देखती हूँ,,,
शायद मान जाएं मेरी बात,,

पर सच यह भी है,,,
इनके बिना मेरा दिल भी
खाली हो जाएगा,,
और सूनेपन को भरने के
खातिर फिर इक नई
क़ैदगाह बनाएगा,,,

अब फंस गई हूँ
अपनी ही बातों में,,,😃
तो चलो,,,,
जाने देते हैं,,,,,
जैसा चल रहा,,,
वैसा ही चलने
देते हैं,,,,,,,,

लिली

मंगलवार, 13 मार्च 2018

एक ताज़ा संस्मरण

(चित्राभार इन्टरनेट)
कल शाम की ही बात है,,, मुझे डाॅक्टर के पास अपनी नियमित जांच के लिए जाना था,।मैं और मेरे पतिदेव कार से घर की तरफ लौट रहे थे।शाम के करीब 7 या7:30 का समय रहा होगा। उस सड़क पर बहुत से ऑफिस,कोचिंग सेन्टर दुकान वगैरह थीं,,कुल मिलाकर चहल-पहल वाला इलाका था।
         मैने देखा एक किशोरी उम्र 16-17 के आस पास रही होगी। पीठ पर एक पिट्ठू बैग लिए अपनी ही धुन में मस्त थी,,शायद कोचिंग क्लास कर के निकली थी। उसे ना अगल-बगल चलने वालों की फिक्र थी,,, ना उसकी स्वाभाविक सी अलमस्तता को घूरने वालों का ध्यान,,,,!
      उसकी अल्हड़ता ने मेरा भी ध्यानाकर्षण कर लिया। मुझे अच्छी लगी उसकी यह मस्ताई सी उम्रानुकूल अदा।
       सामने से उसी उम्र के कुछ नवयुवक आते दिखे,,उन लड़कों की एक अजीब सी ललचाई नज़रों की लेज़र दृष्टि कुछ ही क्षणों में उस कन्या को नख से शिख तक भेद कर गुज़र गई। पर वह लड़की इन सब से बेखबर सड़क पार कर निकल गई।
        मेरे दिल और दिमाग में छेड़ गई विचारों का घमासान,,,,!
कभी विचार आता था,,,"उस किशोरी को सार्वजनिक स्थानों पर ऐसी अल्हड़ता नही दिखानी चाहिए,,।"

तो कभी ख्याल आया-" यदि देखा जाए, लिंग भेद से परे लड़कियां भी तो एक मनुष्य हैं,,,,!!! यदि पुरूष वर्ग के लिए,, सड़कों या अन्यत्र कहीं भी किसी प्रकार की लोक-लाज,मर्यादा,  की सीमा रेखा से परे रह,, अल्हड़पन करने को स्वतंत्र है,,, तो फिर महिला वर्ग क्यों नही,,??????
     मैं बस इसी वैचारिक द्वंद में उलझती रही,,,कार में रेडियो बज रहा था,,, कोई अच्छा गाना बीच-बीच में ध्यान खींच ले रहा था,, पर वह घटना भी मस्तिष्क के किसी भाग में,,अपनी अल्हड़ता लिए झूम रही थी।
         वैसे यह कोई नई बात नही थी,,,रोज़मर्रा के जीवन में आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं,,,और मेरी आंखों के कैमरे में ऐसी कई तस्वीरे कैद हैं। बस,,,,,,, नही है, तो केवल इन तस्वीरों में कैद मेरे प्रश्नों के सटीक सटीक निष्कर्ष,,,,,,,,,,,,,

लिली

रविवार, 11 मार्च 2018

#कुछ_बहक_ले_साक़ी

                            (चित्रा मेरे द्वारा☺)



सुर्ख रंग तेरा और गहराया,
तेरे सुरूर में जब मेरे इश्क़ का ग़ुरूर ठहराया।

आंखों की मस्तियाँ, ना कर सकीं पर्दादारी,
बहके अल्फ़ाज़ों ने कई बार तेरा नाम दोहराया।

हर घूँट में तुझे घोल कर पीते गए,
फिर यूँ हुआ के, हर चेहरे में बस तू नज़र आया।

छलकते जाम को बड़ी हिफ़ाज़त से थामा हमने,
क्यूँ लगा के वो गुज़रा,और मेरा आंचल लहराया।

लटपटाए होंठो पर,तब्बसुम सी बिखरी,
प्याले को छुआ हमने,या कोई साग़र
टकराया।

गुरुवार, 8 मार्च 2018

सशक्तीकरण,,,,अपनी सोच में लाएं


पता नही क्यों नारी सशक्तिकरण विषय से विरक्ति सी हो चली है,,,!! आज चहुँ ओर से महिला दिवस का हंगामा सुन ऐसा लग रहा है,,जैसे किसी ने मधुमक्खी के बड़े से छत्ते पर डंडा दे मारा है,,,और सब तरफ मधुमक्खियों का झुंड बिखर गया है। जैसे विचार मन में आ रहे हैं,,,वही लिखने को कलम छटपटा रही है,,,।
      जब मैं छोटी थी,तब मेरी माँ ने मुझे बहुत रोक-टोक के साथ एंव यथासम्भव हर बार यह स्मरण कराते हुए बड़ा किया कि-"मै एक लड़की हूँ" मेरी एक मर्यादा रेखा है,मेरी एक स्त्रीगत गरिमा है,,लज्जा मेरा असल सौन्दर्य है।" पर तब मुझे इन बातों से बड़ी खीज मचती थी।
        पर आज जब चारो तरफ एक अजीब सी डरावनी सामाजिक विकृति सुरसा सी मुँह दिनो-दिन बड़ा कर सब निगलने को तत्पर है,,,,,,तो पाती हूँ कि - मेरी माँ ने मुझे जिस तरह से पोषित किया वह बिल्कुल सही था।
      आज़ादी मिल रही है,,,तो इसका मतलब ये नही के हम अपने प्राकृतिक गुणों की मर्यादा रेखा भूल कर अपने आप को सिद्ध करें।
      मैं कुछ दिनों से नरेन्द्र कोहली जी की "सैरंध्री' पढ़ रही हूँ,,,,। द्रौपदी भी एक सशक्त व्यक्तित्व की महिला थीं,,,,पर उनकों भी अपने स्त्रीगत मूल्यों और मर्यादाओं का ज्ञान था,,कई ऐसे प्रंसग पढ़ कर मैं अविभूत हो जाती हूँ कि-एक राजपुत्री,,,एक सशक्त राज्य की कुल वधु होकर भी उन्हे पता था कि- स्त्री सौन्दर्य किस प्रकार महान योगियों तक के योग को पथभ्रष्ट कर देता है।
और यह बहुत ही प्राकृतिक लक्षण हैं,,,,। वैदिक काल  हो या आज का युग हम इस प्राकृतिक नियम पर बेतुके प्रश्न नही लगा सकते।
    हम खुद को सृष्टि समझते हैं,तो फिर क्यों नही एक ऐसा सृजन रचते जहाँ एक नई सोच की फुलवारी लहराए,,,? हम खुद को 'धरा' कहते हैं,,जो सहनशीलता की मिसाल कायम करती है,,,तो फिर धरा सम कर्म करते समय हमारे मुख से 'उफ्फ-आह' निकल रही है,,,,खुद को साबित करना है,,तो हर प्रताड़ना से अनुभव प्राप्त कर खुद को कुंठित नही ,,,वरन स्व-सशक्तिकरण की ओर अग्रसर होइए,,,।
       हम बड़ी-बड़ी महिलाओं के नाम गिनाते फिरते हैं,,,,ज़रा सोचकर देखिए,,क्या उनको सफलता पके आम के जैसे उनकी झोली में आ गिरी होगी,,,??? सशक्तीकरण खुद से,और खुद करना पड़ता है,,,,एक दूसरे पर दोष थोपकर या मांगकर नही,। यदि नारी है,,चाहे वो समाज के किसी भी वर्ग की हो,,,एक सामाजिक, पारिवारिक दोगलेपन का शिकार अवश्य होती है। उससे निबटना हमारी अपनी लड़ाई है,,,उसके लिए सबके सामने अपना रोना रोते रहें यह उचित नहीं।
      यदि हम माँ का किरदार निभा रहे हैं तो हमें अपनी बच्चियों को उचित शिक्षा के साथ,,,प्रकृति गठित स्त्रीगत गरिमा एंव मर्यादा का पाठ सिखाना भी परम दायित्व का काम है।
          ऐसे हंगामा कर याचना करने से कुछ नही होगा,,,बस एक व्यंग बन कर रह जाता है नारीत्व।
       बाकी पुरूषों की सोच के बारे में मुझे कुछ नही कहना,,,,मुझे इतना पता है यदि मैं सीमा में रहूँ तो क्या मजाल के कोई रावण मेरी तरफ आंख उठाकर भी देख सके।

साभार
लिली

सोमवार, 5 मार्च 2018

एक ख्वाहिश❤

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

एक ख्वाहिश,,,❤

जब जीवन की
धूप थोड़ी नरम
पड़ जाए,,

तजुर्बों की चाँदनी
हमारे बालों पर
बिखर जाए,,,

और  चेहरे की
झुर्रियां हर तलातुम
की कहानी दुहराएं,,

मेरे कांपते हाथ
तब भी सड़क पार
करते वक्त तुम्हारे
हाथों को करीब लाएं,,

आँखों की पलकें
किसी भारी परदे सी
सिकुड़ कर मेरी निगाहों
की शोखी छुपाएं,,
तुम्हारे होंठ तब भी,,
"ओ निगाहे मस्ताना"
गीत गुनगुनाएं😃😃😃😃😃

बस अब और नही,,
नही तो तुम कहोगे
बस बस!!!
रूलाएगी क्या बावली? 😃😃😃


दोहा-गीत

                        (चित्र लिलीदास जी द्वारा)

मन की गठरी बांध ले,
झूठी है हर ठौर,
राम नाम की धुन जपें,
राह सही नहि और।

तेते पांव पसारिए,
जेती लाम्बी सौर,,

यौवन का मद है क्षणिक,
कौन करेगा गौर,
उम्र संग तो ये ढले,
भूले बीता दौर।।

तेते पांव पसारिए,
जेती लाम्बी सौर।।

निज स्वार्थ के सामने,
परहित झूठा कौर।
सब अपनी झोली भरे,
कैसा अद्भुत तौर।।

तेते पांव पसारिए,
जेती लाम्बी सौर।।

नियति दिया स्वीकारिए,
फल देगें सिरमौर,
उचित समय पर ही फरे,
अम्र गाछ पर बौर।

तेते पांव पसारिए,
जेती लाम्बी सौर।।

शनिवार, 3 मार्च 2018

दिल,,,,,एक अंतहीन मैदान,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)

लगता था कभी,
 ये दिल,,
एक मुट्ठी मे समा
जाता है,,
पर,,,
अनुभवों का बहाव
 एक नया आकार
बनाता है,,
अब ये दूर तक फैले
निर्जन मैदान सा
दिखता है,,,,
समय की धूप से
इसका कण-कण
तपता है,,और
'मै',,,
किसी पत्थर पर
खड़ी,
क्षितिज तक पहुँचने
का सफर नापती हूँ,,,
आँखों पर हथेलियों
की छतरी लगा,
अपनी क्षमताओं
को आंकती हूँ,,,

खुश होती हूँ ,,,
ये सोच,,
के ज्यादा नही चलना होगा,,
वो जहाँ मिल रहे,
धरती और आकाश
मेरी आँखों के आगे
मुझे यहीं से दिख रहे,,
सीमा के वो धागे,,,


हर एक कदम पर
वह धागा दूर खिसक
जाता है,,
हर ठहरन पर
एक पड़ाव बनता
जाता है,,,
सफर तय करते
हुए जब थोड़ा
रूकती हूँ,,,
बस यूं ही अपने सफर
की तय दूरी को
पलट कर तकती हूँ,,
देखकर खुद पर
ही हैरत करती हूँ,,
वो जो निर्जन सा
मैदान धूप में तपता था ,,
धूल भरी आंधियों का
भंवर जहाँ पकता था,,,
वहाँ एक पूरा शहर बसा
आई हूँ,,
कहीं पेड़,,,कहीं घर,,,
कहीं बागीचे
लगा आई हूँ,,,
वह मेरी मंजिल का
धागा अब भी मुझे
 दिखता है,,,
ना जाने कितने और
शहरों की बानगी
का आगाज़ लिखता है,,,

एक मुद्दत बाद
यह समझ सा
आता है,,,
आदमी एक सफर में कितने
अप्रस्तावित सफर
तय कर जाता है,,
सफर में सफर का
यह सफर,
यूँ ही चलता रहता है,,
मुट्ठी में समाने वाला
दिल,,
किसी अंतहीन मैदान
सा लगता है,,,,

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

राजू,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

विश्वविद्यालय का परास्नातक सत्र एक वर्ष विलम्ब से शुरू होता था,,अतः स्नातक पूरा कर मैं छात्रावास से घर आ गई थी।
  पिता जी का स्थानान्तरण अब इलाहाबाद ही हो चुका था तो वैसे भी छात्रावास में रहना बेवजह था।
     अब घर के कामकाज, टेलीविज़न देखने के अलावा कोई और काम नही था। पड़ोस में तिवारी अंकल जी की बड़ी बेटी शालिनी दीदी जो कि,,पास ही के एक प्राइवेट स्कूल की प्राचार्या थीं, उन्होने एक दिन मेरी माता जी से कहा-' लिली को भेज दीजिए हमारे स्कूल में एक अध्यापिका की आवश्यकता है,,वैसे भी अभी वह खाली ही बैठी है।"
   माँ को भी लगा पास ही तो जाना है,,मन भी लगा रहेगा उन्होने हाँ कर दी। मात्र 300/ रु• वेतन पर मैने अध्यापिका के रूप में अपने जीवन की पहली नौकरी आरम्भ की।
     मुझे छोटे बच्चों के बीच रहना बहुत प्रिय रहा है शुरूवात से ही,,,और उनको पढ़ाने में भी बड़ा आनंद आता था,,,। किसी किसी दिन सबक पूरा होने पर,,, मन गढ़न्त कहानियां सुना दिया करती थी,,जिनके पात्रों के नाम बड़े उट-पटाँग से हास्योत्पादक होते थे। बच्चे कितने मनोयोग से मेरी ऐसी कहानियों को सुनते थे,,,मुझे बड़ी सुखद अनुभूति होती थी यह सब देखकर।
    फिर तो बच्चे इसी लालच में अपना काम जल्दी पूरा कर लेते थे कि -आज लिली मैडम नई कहानी सुनाएगीं। आज संस्मरण के तौर पर यह लिखना फिर से उसी परिवेश में पहुँचा रहा है। चलचित्रों में देखते हैं हम,,कैसे सोचते सोचते,,हमारे ख्याल सजीव होकर हमारे सामने चलने बोलने बतियाने लगते हैं,,,ठीक वैसी ही अनुभूति से मैं गुज़र रही हूँ।
      वैसे तो मैं छोटी कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाती थी,, इसके साथ कक्षा छः के विद्यार्थियों को हिन्दी भी पढ़ाती थी। उस कक्षा में एक छात्र था 'राजू' नाम से,, एक बड़ी विचित्र आदत थी,,,उसकी गलती पर उसे डांटने पर वह हंसता था। जिसे देख डांटने वाले अध्यापक का गुस्सा और परवान चढ़ जाता था।
      वह अक्सर लिखने में मात्रिक अथवा वर्तनी दोष करता था। श्याम-पट पर लिख देने के बावजूद उसके लेखन में बहुत गलतियां होती थीं। मैने कई बार उसको इस गलती पर डांटा,,परन्तु उसको हंसते  देख मुझे बहुत झुंझलाहट होती थी। धीरे धीरे मैने उसको कुछ बोलना ही बंद कर दिया।
     अब उसकी उत्तर-पुस्तिका जांचते समय,मैं गलतियों को सुधार कर के खुद ही लिख दिया करती थी,क्योंकि मुझे लगने लगा था कि,वह त्रुटियां जान-बूझकर नही करता था। मेरे ऐसे व्यवहार से राजू  में काफी परिवर्तन नजर आए थे। कम से कम मेरी कक्षा में वह प्रयास ज़रूर करता था अपनी त्रुटियों को यथा-सम्भव कम करने की,,,,परन्तु,ऐसा हो नही पाता था। भले ही अन्य अध्यापकों की कक्षा में वह ढींट पन दिखाता रहा हो,,पर हिन्दी की कक्षा में खुद को अनुशासित रखने की उसकी चेष्टा स्पष्ट रूप से मैं महसूस कर पाई थी।
      सरदियों के दिन थे। गणित के मास्टर साहब ने कक्षा छः के बच्चों को श्याम-पट,चाॅक समेत बाहर धूप में बुला लिया। अचानक मास्टर साहब कि गुस्से से तिलमिलाई आवाज़ पास की कक्षाओं तक आने लगी-
"गद्हा नही ते,,,सकूल में बाप महतारी के पैइसा उड़ाए खातिन आवत है।खोपड़िया में गोबर भरे है का बे,,,?"
मैं देखने के लिए बाहर आई,,, तो देखती हूँ सारे बच्चे गोला बनाकर खड़े देख रहे हैं,,, मास्टर साहब बेरहमी से बेंतों और खिसियाएं शब्दों की बारिश राजू पर अंधाधुंध किए जा रहे थे।
     मै देखकर आश्चर्य जनक रूप से हतप्रभ थी,,, कि इतनी ज़ोर और बलपूर्वक प्रहार सहने के बाद भी 'राजू' हंस रहा था,,,,,,,,,,,,।
     थक कर मास्टर साहब ने बेंत पटक दी,,और राजू हाथों को रगड़ता हुआ चुपचाप बैठ गया।
      मेरा अंतस अंदर तक दहल गया,,,समझ ही नही आ रहा था कि- राजू दया का पात्र है,,,या सहानुभूति का,,???
       एक सह अध्यापिका ने बताया,,,कि एकबार चारा काटने वाली मशीन से इसकी एक अंगुली कट गई थी,,, राजू फिर भी नही रोया था,,!'
         उस दिन मैं बहुत बेचैन हुई थी,,मैने घर आकर माँ को भी यह बात बताई। माँ ने एक बहुत गहरी बात बोली- "उसका हंसना ही उसके आंसू हैं। दर्द की भीषणता जितनी अधिक होती है 'राजू' उतना अधिक हंसता है।"
       वह दिन और आज का दिन,,,मेरे हृदय की गहराइयों से 'राजू' का व्यक्तित्व एक अमिट छवि छोड़ गया। पर आज इतने सालों बाद उसे कलमबद्ध करते हुए भी मैं यह नही समझ पा रही,,,,क्या वास्तव में राजू 'क्रोध का पात्र' था,,,,,,?