शनिवार, 3 मार्च 2018

दिल,,,,,एक अंतहीन मैदान,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)

लगता था कभी,
 ये दिल,,
एक मुट्ठी मे समा
जाता है,,
पर,,,
अनुभवों का बहाव
 एक नया आकार
बनाता है,,
अब ये दूर तक फैले
निर्जन मैदान सा
दिखता है,,,,
समय की धूप से
इसका कण-कण
तपता है,,और
'मै',,,
किसी पत्थर पर
खड़ी,
क्षितिज तक पहुँचने
का सफर नापती हूँ,,,
आँखों पर हथेलियों
की छतरी लगा,
अपनी क्षमताओं
को आंकती हूँ,,,

खुश होती हूँ ,,,
ये सोच,,
के ज्यादा नही चलना होगा,,
वो जहाँ मिल रहे,
धरती और आकाश
मेरी आँखों के आगे
मुझे यहीं से दिख रहे,,
सीमा के वो धागे,,,


हर एक कदम पर
वह धागा दूर खिसक
जाता है,,
हर ठहरन पर
एक पड़ाव बनता
जाता है,,,
सफर तय करते
हुए जब थोड़ा
रूकती हूँ,,,
बस यूं ही अपने सफर
की तय दूरी को
पलट कर तकती हूँ,,
देखकर खुद पर
ही हैरत करती हूँ,,
वो जो निर्जन सा
मैदान धूप में तपता था ,,
धूल भरी आंधियों का
भंवर जहाँ पकता था,,,
वहाँ एक पूरा शहर बसा
आई हूँ,,
कहीं पेड़,,,कहीं घर,,,
कहीं बागीचे
लगा आई हूँ,,,
वह मेरी मंजिल का
धागा अब भी मुझे
 दिखता है,,,
ना जाने कितने और
शहरों की बानगी
का आगाज़ लिखता है,,,

एक मुद्दत बाद
यह समझ सा
आता है,,,
आदमी एक सफर में कितने
अप्रस्तावित सफर
तय कर जाता है,,
सफर में सफर का
यह सफर,
यूँ ही चलता रहता है,,
मुट्ठी में समाने वाला
दिल,,
किसी अंतहीन मैदान
सा लगता है,,,,

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