बुधवार, 26 सितंबर 2018

दीवारें

                    (चित्राभार इंटरनेट)

#दीवारें🌿

दीवारों का वजूद भी,
अजीब होता है
होना भी ज़रूरी
और
ना होना भी अजीज़
होता है,,

मौजूदगी इनकी
डराती भी है,,,
'धीरे बोलो',,,
"दीवारों के भी कान होते हैं",,,!!
तो वहीं,,,,
चार दीवारों और उनपर
टिकी छत कमाने के लिए,,
लोग,,खून पसीने की
फ़सल बोते हैं,,,

नफां भी कमाती हैं
नुकसान भी दिखाती हैं,,
दिली नफ़रतों की नींव पर
मज़बूती से खड़ी होती हैं,,,
अपने जिस्म पर प्यार की
बानगी भी लिए होती हैं,,,

ना जाने कितने रंगों में
रंगीं होती हैं,,
यूं तो महज़ ईंट-गारे
की बनी होती हैं,,

इंसानी आबरू को
पनाह भी यहीं मिलती है,,
,,,तो,,
इनकी आड़ में बेरहमीं से,
लुटती भी यहीं दिखती हैं,,,

कभी ये सीली,,
तो कभी,,
सूनी दिखती हैं
ढलती उम्र के बिस्तर पर
यादों के एलबम सी
दिखती हैं,,,
लाचार शरीर की गवाह
बनी,,
बड़ी बेचारगीं से तकती हैं,,

और भी बहुत कुछ है,,
मगर,,
इतना ही काफ़ी है,,,
अभी और पढ़ लूं मैं इनको,,
इनकें कोनों में छिपा,,
बहुत कुछ बाकी है,,,,।

लिली 😊

शनिवार, 22 सितंबर 2018

आश्विनी अनुभूति,,,,



अश्विन मास के लगते ही,,,प्रकृति जैसे देवी-देवताओं के धरा आगमन की तैयारी में जुट जाती है। गणेशोत्सव के साथ शुभ का शंखनाद आरम्भ हो जाता है।
       आकाश का नीलाभ जैसे खुद को श्रावणी वृष्टि से धो पोछकर नीलम रत्न सा चटख चमकदार हो जाता है। ग्रीष्म के ताप से वाष्पित बिन्दुओं से भरे काले मेघ,,,,बरस कर भारमुक्त हो चुके हों जैसे,,,सब पंतग से हल्के हो कर श्वेतमाल से नील गगन पर इधर-उधर उत्सव की तैयारी में जुटे ,,तत्परता से तैरते नज़र आने लगते हैं।
          आसमान पर जैसे होड़ मची है उत्सवी शामयाना सजाने की। धरा ने भी खुद का श्रृंगार उतनी ही कुशलता से करना आरम्भ कर दिया है। धुले-धुले से गाछ-पात,,,हरित दूब के नरम गलीचे,,,हरश्रृगांर के फूलों से लदे पेड़,,जो  हवा के स्नेहिल स्पर्श से किसी नव यौवना की चंचल हंसीं से बिखर पड़ते हैं घास पर। हवा का नटखट झोंका भर कर स्वयं में उन शिवली का सुवास बह निकलता है आत्मशीतल कर अन्यत्र कहीं। दूब का फैला आंचल एकत्र कर प्राजक्ता के फूल,,,गुथने लग जाते हैं पुष्पमाल,,,देवी को अर्पित करने हेतु।
              नदी के जल से भर अपने यौवनी उन्माद में किल्लोल करती अलमस्त बही जा रही,,,। सूर्य की रश्मियों की गुनगुनाती ऊष्मा से हो उल्लासित उसकी अल्हड़ता मृणालिनी बन चली है। धरा निकली है नहा कर नदिया के तट पर,,और धारण किए हैं लहलहाते कास-पुष्पी वसन। जिसका लहराता आंचल बार-बार उद्धत है आकाश  छूने को।
       उधर गांव में ढाकियों ने शुरू कर दिया है अभ्यास,,, दे रहे हैं दिन-रात ढाक पर एक नव आशा की थाप,,,,,!! इस बार 'माँ' आएगीं उनके लिए लेकर शुभ उन्नत जीवन का आशीर्वाद। जिससे दूर होंगें उनके संताप। छोटे बालकों हाथों में लिए कास्य थाल,,मिला रहे अपने पितृ संग ताल,,,,उन्हे है आस इसबार माँ लाएगीं उनके लिए स्वादिष्ट भोग-प्रसाद। स्त्रियां मन में संजोने लगी हैं नए स्वप्न , स्वामी कमा कर लाएगा कुछ अधिक 'मूल' इसबार,,,साथ होंगें  नूतन वस्त्र,आलता-सिन्दूर । उनका असल उत्सव तो शुरू होता है 'माँ' के वापस जाने के उपरान्त । जब लौट कर आते हैं उनके स्वामी परदेश से ।
          हर हृदय में घुलने लगी है उत्सवी श्वास,,होंगें कितने ही परिवार एकत्र एक वर्ष बाद। वयोवृद्ध माँ-पिता आशान्वित हैं,,,आने वाले हैं पुत्र-पुत्रवधु और पोते-पोतियां। सब मिलकर बिताएगें कुछ सुखद क्षण फिर एकबार।
       धरा,गगन,मानव मन सब जुट गए हैं 'देवी के आगमन' की तैयारी में।
 आज मोन आमार ओ होए एलो पूजो-पूजो(आज मेरा भी मन पूजा की पूर्वानुभूतियों से आन्दोलित हो उठा)।
  मेरे मन का आकाश भी आश्विनी आभास से आनंदित हो नर्तन कर उठा।

🌷दुर्गा दुर्गा ⚘

देवी आगमनी,,,

(चित्राभार इंटरनेट)


नील-अश्विन आकाश पर,
 हैं तैरते
सफेद बादलों के,
उत्सवी गुच्छ,,,

मंद हवा के झोकों में,
कुछ है शीतलता का पुट,,
किया धरा ने धारण
लहलहाते कास-पुष्प,,

किलक कर झरते
बयारी स्पर्श से,
'शिवली',,
पा दूब्र का हरित आलिंगन
द्रवित हुआ अंतर शुष्क!!

ढाक स्वर किल्लोलित
सरित जल में,,
आगमनी गा रही
हर दिशा हो अनुष्क,,

आ रही हैं देवी
फिर लिए ,
आनंदोत्सव
फिर व्योम उल्लासित
हो इन्द्रधनुष,,,
लिली🌾🌿🌼






रविवार, 16 सितंबर 2018

पिघलती बर्फ़ हिमालय की,,,,

           (चित्र साभार मेरे मित्र सौरभ पांडे की सौजन्य से)
              कसौनी की खूबसूरत वादियों से

  • फेसबुक पर सौरभ द्वारा अपलोड की गई ये खूबसूरत छवि,,देख कविता भी रुक ना पाई,,,😊 



गरम चाय के प्याले
से उठते धुंएँ से,
पिघल रही है बर्फ़
हिमालय की,,
ठिठुरता सा था
जो आसमान ठंड से,
लेकर नीलाभ
फैल गया था दूर तक,,
जो धुंध थी छाई
हरितिमा पर,सब झर
चुकी थी धरा पर,,,
सब साफ़ सा,
सब स्पष्ट सा निखरा हुआ,
खिला खिला उजियाला लिए,,
पोछ दिए हों लेंस कैमरे के,
',,,,,और,,,,,
निकलती हो तस्वीर,,
'हाई रेज़्यूलेशन' क्वालिटी लिए,,
रफ़्तार पकड़ती सोच,,
किसी व्यस्त शहर की
सड़कों सी,,
हर घूंट के साथ
लक्ष्य पकड़ते हौंसलें,
तैयार करते खुद को,
एक और दिन की शुरूवात
के लिए,,,
ये महज़ प्याला नही,
एक कप चाय का,,,,
ये है सूरज मेरा,,,
मेरी बालकनी की
रेलिंग पर टिका,,,,
लिली😊

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,,, 'मेरी हिन्दी'

                      (चित्राभार इंटरनेट)
इत्ते दिनों टिमाटर मुगालते मे रहे,के उनके बिना कौनो सब्जी में सुवाद ना लगी,,,तो एक दिन हुआ यूं के गोभी के सब्जी फांद लिहिन चच्ची,भून-भान के बड़े स्नेह से गोभी आलू सब 'साइडिया' के टिमाटर लिहे खातिर फिरिज के तरफ लपकीं,,,। आय हो,,का देखती हैं के एक्कौ टिमाटर धरा नही कौनो कोना मा,,🙄 !!!!
        अब ल्यो हुई गवा 'मूड' के सत्यानास!!! गोभी भून्नाय रही,आलू खुन्नाय रहे पिलेट में,,,,के चच्ची बनावे से पहिल,,,सब जुगाड़ जुगत पहिले से नही देखति हैं😏😏 अरे अब कैसे हमार सब्जिया का सुवाद बढ़ी।
     कहीं दूर 'टिमाटर परदेस' में जब टिमाटर लोगन अपने 'इम्पार्टेन्स' का रेडियो बिजुरिया से भान पाए तो मनही-मन फूल फूल के टकाटक ललियाए गए,,,।
   पर भइया!! चच्ची हो कम जुगतबाज नहि रहलि हैं,,,,तुरन्तै,,,कटोरिया में रखे रहिलि 'दही' मुस्कियाते हुए 'इन्टयाइ' हैं "किचनवा' मा औउर दन्न से फेटफाट के,,, बनाए दिहिन "ढाबा इश्टाइल लबाबदार गोभी के सब्जी" अह्हाआ 'पाँचों अंगुरी चाट' बने रहिल सब्जी ऊ दिन,। मुगालता टिमाटर के रह गइल उन्ही के खेत मा उघाते हुए!!!!
,आह तो ये मेरी हिन्दी !!! मेरी सबसे अंतरंग सहेली,,,!!, जो मेरे मन के उछलते कूदते मसखरे भावों को शब्द देती है। कुछ भी कैसे भी उड़न-चंडी से बौखलाए ख्याल,,बेसर पैर की कल्पनाओं के बेताली भूत या फिर बहुत घनीभूत भावों के सावनी मेघ गड़गड़ाते हैं तब शब्द वर्षा कर हृदय के तपते धरातल को अभिव्यक्ति की सोंधी गीली माटी देती है!!!! जिसके शब्दों का सहारा मेरी आत्म अभिव्यक्ति को संतुष्टि का चरम प्रदान करती है।
      मुझे मेरी जैसी लगती है,,कभी मनचली, कभी हठधर्मी, कभी फक्कड़, कभी अलसाई, कभी शान्त।
हृदय से मस्तिष्क तक इसने मुझे सम्मोहित कर अपने प्रेमपाश से वशीभूत कर रखा है,और अब मैं पूरी तरह इसकी गिरफ्त में हू। सच कहूं तो इसकी व्याकरण,इसके उपमान,इसके रूपक ,अक्षर, शब्द ,वाक्य या कहू इसका सारा वजूद इतना घुलनशील है के मै आजतक समझ नही आई कि ये मुझमें घुली है या मैं इसमें विलय हो गई???? लिखते वक्त ये मेरी ताल पर नाचती है,,,,या बड़ी चतुराई से अपनी डुगडुगी पर मुझे नचाती है??? नौ रसों का शरबत बड़े कौशल के साथ फिटवाकर,,सबमें बटवा देती है।

        ना जाने कितनी विविधता लिए,अपने सरलतम् ,सहजतम् रूप से इसने मुझे अपनी तरफ ऐसा आकर्षित किया ,,,और वह आकर्षण कब थोड़ी नोक-झोंक, मान-मनुहार के साथ गहनतम् प्रेम में परिवर्तित हो गया,,,,पता ही नही चला,,,,??? 
      हाँ 'प्रेम' ना जाने यह "ढाई आखरी" शब्द कितने रुपों में इस सृष्टि में अपना अस्तित्व रखता है कहना मुश्किल,,,। कई बार हुआ ऐसा ,,के मैं भटकी,,,इधर-उधर,खुली खिड़कियों से दिखने वाले सीमित अभिव्यक्ति-व्योम की तरफ लपकी। पर मेरी हिन्दी शायद मेरी तुलना में, मुझसे भी अधिक मुझे प्रेम करती है। इसने मुझे खुद को इतना लचीला,,इतना जल सम, सहृदयी, सहिष्णु,और विशाल हृदयी बना डाला ,और मुझे खिड़कियों के फ्रेम में घिरे आसमान,,,से बाहर निकाल असीम अभिव्यक्ति लोक दे डाला,,,,। जहाँ मुझे कोई बंधन नही दिखता। मैं अंतर के भावों को अपनी इच्छानुसार आकार देने लगी। यहाँ कोई कोना नही दिखाता मुझे,,,,,,,दिखता है तो एक वृहद विस्तृत विस्तार,,,जहाँ ना शब्दों का अभाव है,,,ना किसी बाह्य विदेशी, शब्द के लिए अस्वीकृति,,,जो हर दशा,हर देशकाल, को व्यक्त करने में समर्थ है।
        सबसे सुन्दर बात मेरी हिन्दी सुशील है, सरल है ,सरस है,और हर रूप में स्वीकार्य है,,,,!!! शब्दकोश में महासागर है,,चाहे जितने नीचे जाकर गोता मारो,,,सदा रत्नगर्भा सी ,,झिलमिलाती मुस्कुराती मिलती है।
         मेरा मन नही था के हिन्दी दिवस पर मैं,या तो इसके समृद्ध खजाने से निकाल मुक्ता मणि उड़ाऊँ,,!
आलोचना करूं,,,!
इसको अधिक से अधिक लोगों तक कैसे पहुचाया जाय,,इस पर सुझाव दू !
या इसके बिगड़ते स्वरूप को सुधारने हेतु समाधान लिखू,,,,!  
     मेरा मन नही था ,,,मैं मेरी हिन्दी को फटी-चिथड़ी दयनीय दिखाकर लोगों के आगे इसके प्रति सांत्वना या 'सिम्पेथी' की गुहार लगाऊँ। 
      मै तो अपनी सबसे अंतरंग,मेरे हर प्रकार के भावों की 'अभिव्यक्ति संगीनी' हिन्दी को  उसके प्रति मेरे मन की गहराइयों तक बह रही तरल,ठोस,वाष्पित हर प्रकार के प्रेम बिना किसी लीपा-पोती के विशुद्धतम् रूप में सम्प्रेषित कर सकू।
   मेरे विवेक,मेरी भावुकता,मेरी चेतन-अवचेतन बुद्धि द्वारा हिन्दी दिवस पर इससे सकारात्मक अभिव्यक्ति दूजी नही सूझी।
        भारत माँ के माथे की बिन्दिया के साथ-साथ ये मेरे माथे की बिन्दियां सी सदा मेरे हृदय कपाल पर जगमगाती रहे। 

भावुक दृश्य,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

#_भावुक_कर_गया_दृश्य
#मेट्रो_यात्रा

ऐसे बिना अनुमति के किसी तस्वीर नही खिंचनी चाहिए,,, पर मैं रोक नही पाई,,और मेट्रो रेल में बैठे एक यात्री परिवार की फोटो  सबसे नज़र बचाकर खींच ली। पिता की वात्सल्यमयी गोद में कितने सुकून से सोता हुआ बचपन😊। बहुत देर से मैं इस निश्चिन्त पितृआगोश में सोए बालक को निहारती रही,,,शायद बच्चे की तबीयत खराब थी,,मेट्रो के वातानुकूलित परिवेश में उसे ठंड लग रही थी,,इसीकारण एक शाॅल में किसी कंगारू के शावक सा अपने पिता के गोद में सिकुड़ कर सो रहा था।
     बीच-बीच में ट्रेन के अनाउन्समेंट से चौंककर  इधर-उधर ताकती उसकी भोली मासूम आँखें,,,वापस खुद को गुड़मुठिया कर पुनः अपने सुरक्षित,संरक्षित घेरे में सो जा रही थीं।
    जेहन में एक ख्याल का अकस्मात अनाउंसमेंट हो गया,,अह्लादित मुस्कान भाव विभोर हो खुद के लिए भी ऐसे वात्सल्यी सुरक्षित आगोश के लिए तड़प उठी😊।
   व्यस्क होकर हम कितना कुछ पाते हैं,,, आत्मनिर्भरता, स्वनिर्णय की क्षमता, अपनी मन मर्ज़ी को पूरा करने की क्षमता,, पर सब कुछ शायद एक असुरक्षा के भय के आवरण के साथ,,,उस निश्चिंतता का शायद अभाव रहता है,,,के यदि असफ़ल हुए,,या ठोकर लगने को हुए तो एक सशक्त संरक्षण पहले ही अपना हाथ आगे बढ़ा उसे खुद पर सह लेगा,,,पर हमें कुछ नही होने देगा,,,,,!!!!
     जब शिशु पलटी मारना सीखते हैं,,,तो अभिभावक बिस्तर के चारो तरफ़ तकिए लगा देते हैं,,ताकि वे नीचे ना गिर जाएं,,,जब चलना सीखते हैं तो हर पल की चौकसी बनाएं रखते हैं,,,, कहीं टेबल का कोन ना लग जाए,,कहीं माथा ना ठुक जाए,,।
    मुझे याद है मेरे घर के बिजली के कुछ स्विच बोर्ड नीचे की लगें थे,,और बड़े वाले बेटे ने घुटनों के बल चलना सीखा तो,,वह बार-बार उन स्विच के प्लग प्वांइट के छेदों में ऊँगली डालने को दौड़ता था,,। मुझे सारे बोर्ड ऊपर की तरफ़ करवाने पड़े। और भी बहुत कुछ रहता है,,, जिन पर भरपूर चौकसी रखनी पड़ती है अभिभावकों को,,जिससे शिशु का बचपन निश्चिंतता के परिवेश में पोषित और पल्लवित हो। ऐसा बहुत कुछ हम व्यस्क होने के बाद खो देते हैं।
       इस दृश्य को देखकर आँखे भर आई,,,,,,,, लगा जैसे,,पृथ्वी के विलुप्त होते सुरक्षा आवरण ओज़ोन सी मेरा भी,,,या हम सभी जो व्यस्क हो चुके हैं,,जो आत्मनिर्भर हो चुके हैं,,,,उनकी वह 'अभिभावकीय ओज़ोन लेयर',,, विलुप्त होती जा रही  है।
       अब हम स्वयं अभिभावक बन चुके हैं,,,अब हमें अपने बच्चों को यह सुरक्षित एंव निश्चिंतता का वात्सल्यमयी आवरण प्रदान करना है,,,उन्हे उसी तरह जीवन पथ की ऊष्णता और आद्रता सहने के काबिल बनाना है जैसे हमारे अभिभावकों ने हमें बनाया।
           माँ-बाबा तो सशरीर इस जगत में नही,,पर एक आभासी विश्वास मन में सशक्तता से आसीन है,,,वे जिस लोक में हैं,,,अपने आशीर्वाद से आज भी अपना वात्सल्यमयी घेरा बना कर हर बाधा, दुरूहता,चुनौतियों, कठिनाइयों से निपटने का संबल दे रहे हैं,,,और मैं इसी फोटो वाले बालक सी अपने अभिभावक की गोद में गुड़मुठियाए निरविकार निश्चिंतता से सो रही हू😊

लिली🌿

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

चलो ना जीवन्त बीहड़ों की ओर

                     चित्राभार इन्टरनेट)

नरम एहसासों की सेज पर
दो ओस की चमकती बूंदों
   ,,से,,,
मैं और तुम,,💕
एक दूजे का अक्स बने
आस-पास से अन्जान,,,

चलो ना!!!
इन कंकरीटों के बेजान
शहर से दूर,,,
किसी जीवन्त से
बीहड़ों में,,,
जहाँ सूरज की रोशनी,,
भी पड़े हम पर
,,,तो,,,
हम झिलमिला उठें,,,
उसकी गुनगुनी गरमाहट,,
वहाँ की फैली हरितिमा,,
की सुगन्ध ऊष्मित कर
फैलाती हो,,,
हर तरफ़ बसी आद्रता,,
बस एक स्वप्निली
धुंध बिखराती हो,,

इन कंकरीटी शहरों की
ईंट पर गिरते ही,,
वजूद सूख जाता है,,,,
यहाँ की कृत्रिम दूब भी,,
नही सहेज पाती
मुलायम जज़्बातों की
ओस को,,
ज़्यादा  देर तक,,
चहल-कदमी करते
कदम, ठोंकरों से
झंकझोर देते हैं ,,
,,,,,और ,,,
हम झड़ कर हो जाते हैं,,
फ़ना एक दूजे से,,

चलो ना!!!

लिली🌷

रविवार, 2 सितंबर 2018

जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ

                        (चित्राभार इंटरनेट)

लल्ला के किलकारी से,
गूजै वारी है फुलवारी,,
जा हो सखि री! मथ लै माखन,,
आवन वारे हैं त्रिपुरारी,,,,

भाद्रपद की अष्टम् तिथि है,
मंगल, आनंद लिए शुभकारी
बंसी की धुन पर नाचेगी धरणी,
आवन वारे हैं बंसी धारी,,,

उमड़-घुमड़ रहे घन अकुलाएं
बरखा गोपिन सी मतवारी,,
प्रेम के होरी फिर से होइ हैं,,,
आवन वारे हैं किशन मुरारी,,,

शनिवार, 1 सितंबर 2018

अधजला,,,

                     (चित्राभार इंटरनेट)


खुद को कुरेदना भी,
सुकून देता है,,,!!!
एक जलते अलाव जैसा!!!
सुलगते अंगार,
जो दबकर
खो देते हैं अपनी आंच,
ठीक से जल नही पाते
कुछ सूखी काठ और सूखे पत्ते,,,
अधजला नही छोड़ना कभी इन्हे,
जलते जख़्म ना जीने लायक छोड़ते हैं ,,
ना मरने लायक,,,
एक दाग़ छोड़ जातें हैं,,,
छोड़ जाते हैं, खुद की ख़ाक,,,
आँखों के सामने,,,
उड़ते हुए,,
इसलिए जब खुद को जलाना,,
तो कुरेद,कुरेद कर जलाना,,,
कुछ बचे ना शेष,,
भस्म का क्या है,,!!
हवा संग उड़ जाएगी,,,
या मिल जाएगी मिट्टी में,,
पर,,,,
अधजला ,,
ना मिट्टी का हो सके
ना हवा का,,,
लिली😊

प्रस्तुत हूँ ,,,,

(चित्राभार इन्टरनेट)
श्रावण की झमकती बूंदों मे...धुल जाए मेरा प्रखर रक्ताभ ,,गुच्छ के गुच्छ प्रस्फुटित करने  मे व्यस्त है अंतस ...चाह शेष न रही अब..दमकती लालिमा संग आभायमान होने  की । चरम के उत्कर्ष का शोभित यौवन है ..मेरी कोशिकाओं मे अंगड़ाई लेता ..!!!! बरखा तू ये न समझना तेरी. सावनी बूंदों मे छुपे मेघ के प्रीत स्पर्श से,,, आलोड़ित है मेरा रंग-रूप । यह तो शेष का उन्माद है ,,,और स्वयम की  तिलांजलि दे ,,,मिटा देने की आहुति-प्रक्रिया। मेरे रंध्रों से झरते पराग-कण..पंखुड़ियों पर स्पष्ट रूप से मुखर होती शिराएँ मेरे तर्पण के उत्सव मे अति उत्साह से सक्रिय हो निज कर्म को उद्द्त ..!!! हाँ तर्पण,,,,,स्व-अस्तित्व का ,,,स्वम के हाथ ,, जी चुकी जीवन के वे अनमोलित-क्षण,,,मधुमास मेरे जीवन-काल का ,,,,जी चुका अंतस ,,,अब अपने अंतिम लक्ष्य की ओर उन्मुख हूँ ,,, मैंअपने रक्ताभ की शेष आभा के साथ ,,,प्रस्तुत हूँ,,,,

लिली मित्रा