मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

कविताओं को बंधन मुक्त कर दिया,,,,

                      ( तमाम विषमताओं को समेटे  मशीनीयंत्रों सी उपमाओं और बिम्बों से सजी 'कविता' आज भी भावाभिव्यक्ति का सुकोमल साधन,,, चित्र मेरे द्वारा 😊)

                 
चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं
को विधाओं के
बंधनों से मुक्त
कर दिया,,,,,

ये जीवन की
विषमताएं,सड़कों
सी उबड़-खाबड़
हो चली हैं,,,
कहीं गड्ढे तो
कहीं असमान उभार
मरम्मतें भी
पैबंदों सी
हो चली है,,,

कैसे कोई इन
खबड़ीले उछलते
रास्तों पर अपने
भावों की स्कूटर
चलाए?????

चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं को
विधाओं के बंधनों
से मुक्त कर दिया,,,,

सुकोमल पुष्पों
की उपमाओं
चांद,तारों के
आंचल में अब
नही लहराते बिम्ब
मशीनी यंत्रों सी
शब्दावलियों का
है प्राचुर्य,,,,,

कैसे इस शुष्क
परिवेश को रसायुक्त
गीतों का मधुपान
कराया जाए,???

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त
कर दिया,,।

मात्राओं,तुक, लय
की कीलों पर,
चुभती मोटी नारियल
की रस्सियों सी
सामाजिक विद्रुपताओं
को कैसे अटकाया जाए??

भरे पड़े हैं मनोद्गार
गागर में सागर से
बहुत तेज प्रवाह
बह रहे हैं अतुकान्त
स्वतंत्र,निर्बाध, निर्झर,

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त कर दिया।

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

अधरन से मुरली ना लिपटाओ घनश्याम

                         (चित्राभार इन्टरनेट)
         

🍃🌺 अधरों पर बड़े प्रेम से सजाकर अपनी बांसुरी को जब कान्हा मगन हो तान छेड़ते रहे होंगें,,,, कभी ना कभी तो राधा के मन में ऐसे भाव अवश्य उपजे होंगें 😊🍃🌺


अधरन से नहि लिपटाओ,
मुरली  मोरे   घनश्याम।
सूखी पाती ज्यो जरती,
मोरि सूरत की मुस्कान ।

पलक मुंदि के तुम  छेड़ों,
जब मनोहारनि   सुरतान।
मुँह बिरावत  सौतन सी,
 यह मुरली बनी शैतान।

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे घनश्याम,,,

भरि के नेह ऊँगलिन मे,
छुवो मुइ काठी निष्प्रान।
जरि-जरि जाव देह मोरिे,
 ज्यों जेठी के अपराहन। 

अधरन से नहि लिपटाओ
 मुरली मोरे घनश्याम,,,

हरखि निरखि के तकत रही,
      मोहे  कनखियन     के तान।     
      न सुहाए लगन       तुम्हारी,   
औ इहि बँसुरियाँ के  गान। 

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे   घनश्याम,,,

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

निज जीवन तुम पर वारा है,,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


हृदय  कुंड में  प्रेम  सरीखे ,
जल की  अविरल  धारा  है ।
भाव  समर्पण  के   पुष्पों से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

तुम कहते  हो   मैं बँट जाऊँ,
व्यवहार कुशलता दिखलाऊँ।
तो सुन लो सिरजन हार मेरे!
यह बात तुम्हारी ना रख पाऊँ।
कोई प्रस्तर खंड सी धंसी हुई,
हिल जाऊँ तनिक ना गवारा है।
भाव    समर्पण   के  पुष्पों  से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

जलधार हुई कभी बाधित तो,
अश्रुधारा से उसको भर दूँगीं।
प्रीत सुमन सब रहे सुवासित,
मन बंसत क्षणों से भर लूँगीं।
व्यथित हृदय ,रूधिर कंठ हो,
सब कुछ मन ने स्वीकारा  है।
भाव समर्पण   के   पुष्पों  से,
निज जीवन  तुम  पर वारा है।

हृदय   कुंड   में  प्रेम  सरीखे,
जल की  अविरल    धारा  है।
भाव   समर्पण  के  पुष्पों  से,
निज जीवन  तुमपे  वारा   है।

🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
🌺लिली 🌺

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

तुम टिप्पणी रच दो,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मेरे शरीर के भूगोल का
मानचित्र तुम रच दो,,
हर उभार हर ठहराव पर
अपने पथचिन्ह रच दो,,
उभरे पहाड़ों को अपनी
हथेलियों से मथ दो,,
मेरी गहराइयों में अपने
प्रेम का सागर भर दो,,
आहों का बवंडर तुम्हे
ले कर उड़ जाए ,,
दो खंडों का मिलन
एक धरातल कर दो,,
गीत कोई गा उठे
तुफान उच्छावासों का
तुम झूमकर उस पर
अपनी टिप्पणी रच दो,,,,,।

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

कोना भी जगमगाया है,,,,,

             (" किसी कोने को भर दिया उजाले से
              एक बाती,थोड़ा सा तेल,एक माटी के दियाले से")

     🌺🍃इस सुन्दर चित्र के लिए मेरी मित्र 'सोनू' को हृदयातल से आभार,, चित्र देखकर ही मन में एक रचना जल उठी🌺🍃

वो रात अंधेरी थी,,,पर बहुत उतावली थी। घर के उस कोनें की,,धड़कने बेचैन थीं। छत की खुली एक फांक से आसमान भी कुछ खोजती निगाहों से ताक रहा था।
         बेसब्री से शाम को विदा कर 'कोना' फिर से बैठ गया दिल को दबोचे,,के शायद धड़कनों को थोड़ा सुकून मिले,,,! तभी पूजा घर से आने वाली धूप, कपूर की भक्तिपूर्ण सुगन्ध ने किसी के आने का शंखनाद कर दिया था।
       एक सुर में गूंजते आरती के स्वर, शंख,घंटी की आवाज़,,अब उस कोने को उतावला बना रही थीं। सब स्वर धीरे धीरे वातावरण में धूप की गंध से विलीन हो गए।
      तभी गृहलक्ष्मी एक थाल में कई प्रज्जवलित दीपों को सजाए ,,आभामंडित मुख मंडल लिए दीपकतार सजाने लगी।
      प्रतीक्षारत् उस कोने पर रूकी और दो जलते दीपों को बड़े प्रेम के साथ वहाँ सजा दिया। दीपों के प्रकाश से 'कोना' असीम आनंद के प्रकाश से जगमगा उठा।
       वर्ष भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज वह 'कोना' भी झिलमिलाया है,,,मिलन के प्रकाश ने अमावस की रात को चांदनी रात सा सजाया है। दीपों की शिखाएं हल्के हवा के झोंकों से थर्राती थीं,,,कभी एक विपरीत दिशा में मुड़ती,,,तो  कभी आपस में चिपक जाती थीं। रह रह कर उजाला आस-पास को सहलाता था,, उस कोने के हृदय को एक गर्म एहसास से छू जाता था।
      आसमान भी उस ऊर्जा के प्रकाश को पेड़ों की आड़ से ताकता है,,,,जैसे हल्की सरदी से ठंडे पड़े हाथों को तापता है।
         ना जाने कितने ऐसे अन्दर और बाहर के कोने एक दिये के प्रकाश से चमके होंगें,,,,,तम के हरण और अंतस के उजास की दीपावली में चहके होंगें।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

एक शाम प्रतीक्षारत,,,,

                           (चित्राभार इन्टरनेट)
दिन बीत गया बेचैन खामोशियों के साथ,,,।
शाम की हवा भी बड़ी उदास,,,, एक झलक तो मिले नज़रों में छुपी एक यही आस,,,,,,,,। पर तुम तो जैसे अमावस के चांद से छुप गए हो,,,,। एक हल्की सी आवाज़ भी शोर लगती है। बस तुम्हारे तस्व्वुर में तन्हाइयां बजती हैं,,।
      चुपचाप सा चीत्कार सुनाई देता हैं,,,,पर अधरों पर गहन मौन का पहरा है। उदास हवाओं ने तुम्हारी यादों के पुष्प पग पग पर बिखराए हैं,,,,,। मैने चुनकर इन पुष्पों का एक गजरा बनाया है,,,अपनी वेणी में गुथ तुम्हारे सानिध्य को पाया है।
        तुम्हारी बातें सुनकर ही मेरी चंचलता बन तितली मंडराती है,,बिन तुम्हरी बतियां सूनी रात के झींगूरों सी झीनझीनाती हैं। सब कुछ बेरंग,,,स्याह रात सा काला है,,आ जाओ बस तुम्हारे आने में ही चरागों सा उजाला है।
          दो शब्द तुम्हारे , मेरे एकान्त का तम हर लेगें,,,,वरना अंतर का वीराना हम आमावस की रात से भर लेगें। कितना निष्ठुर हैं प्रियतम तुम्हारा व्यस्तता भरा दिन!! एक पल भी लेने नही देता मेरे नाम का पल-छिन,,,,!!
           डूबते सूरज के संग मेरा मन भी डूबता जाए ,,,भेज दो कोई संदेस के अब रहा ना जाए। मन करता है हर दीप बुझा दूँ,,,,,चुपचाप अपने अस्तित्व को अंधकार में गुमा दूँ। कुछ पल की प्रीत भरी बतिया ही तो मांगू,,,, इन्ही एहसासों की महक लिए सोऊँ और जागूँ,,,।
      एक शाम प्रतीक्षारत,,,,,,,

खामोशियों में खुसफुसाहट सुनती रही

                   (चित्राभार इन्टरनेट)

खुद ही मना कर
उसके आने की राह
तकती रही
लम्बी खामोशियों
में उसकी खुसफुसाहट
सुनती रही।

बंद पलकों से
अश्कों की धार
टपकती रही
मै अपनी हथेलियों
में उसकी लकीरें
तकती रही।

गहरी उदासियों में
उसकी खनक
बजती रही
मेरी पेशानियों
पर उसकी तस्वीर
उभरती रही।

पहचानी गलियों में
उसकी धूल सी
उड़ती रही
हर आहट पर
नज़र खिड़कियां
झांकती रही

उसके इश्क की
गलियां गुलाबों से
महकती रही
दूरियां बीच की
काटों सी
चुभती रही।









गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

मन आंगन में मने दीवाली,,,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)
 
तेरे मेरे इस
बंधन की
एक बंदनवार
बनाई है,,,,
अंतर मन के
द्वारे पर इसकी
लड़ी सजाई है।

अपनी प्रीत के
हर रंग से मैने
अनुपम रंगोली
बनाई है,,,,
निरख चटख रंगों
की छटा हर्षित
मन अरूणाई है।

नयनों के दीप
जला कर मैने
दीप कतार
लगाई है,,,,
तेरे नयनों की
प्रज्जवलित बाती
हर दीप शिखा
लरजाई है।

हरित वसन पर
जड़ित बूटियां
स्वर्णिम आभा
बिखराई है,,,
धारण कर मैं
लगूँ सुहागन
अनुभूति बहुत
सुखदायी है।

मन आंगन में
मने दीवाली
पावन पर्व बेला
मधुमायी है,,,
साथ चलों तुम
पग पग पर
अभिलाषा ऐसी
जायी है,,,,।

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

बेसबब बेवजह की ये बातें

                        (सोचा आज अपनी ही फोटो लगा दूँ😀)


बेसबब बेवजह की ये बातें
***********************

बस तुमको रोके
रखने के खातिर
बुनती हूँ कितनी
बातों की महफिल
बेवजह,बेअदब
बेसबब हैं ये बातें,,
तुम्हे भी कभी तो
थकाती हैं ये बातें,,,

कहाँ तुम संग
कोई गृहस्थी है मेरी
एक बादल के टुकड़े
सी हस्ती है मेरी
फिर कहाँ से लाऊँ मैं
सागर सी बातें
कभी खत्म ना होने
वाली वो बातें,,,

जीवन का साथी
बनकर के चलना
पथ की धूप-छांवों
में जलना-सम्भलना
वो पूजा की वेदी पर
साथ मंत्रों का पढ़ना
कुछ भी तो नही है
जिसका दंभ भर लूँ
फिर क्या तर्क छेड़ूँ?
मै क्या बात कर लूँ?

बड़ी अनबुझी
पहेली से ये रिश्ते
खामोश रातों में
चीखते से ये रिश्ते
नही कोई मंज़िल
नही कोई ठिकाना
बस चले जारहे हैं
गुमराह से ये रिश्ते
आनंद देती हैं बस
बंधनों की ये बातें
समाज की मोहरों
पर खरे उतरते
संबन्धों की बातें

खत्म करना भी
चाहूँ तो लिपटती
बहुत हैं, झटकना
भी चाहूँ तो चिपटती
बहुत हैं,,,
बेसबब, बेअदब
बेवजह की ये बातें,,,,,,,।

लिली 😊

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

पर्यावरण सुरक्षा सर्वोपरि


           
    (2016 की दीपावली के बाद दिल्ली का आसमान, चित्राभार इन्टरनेट)


 सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार दिल्ली में पटाखों पर बैन ने केवल दिल्ली ही नही पूरे भारतवर्ष में हाहाकार मचा दिया है। लोग क्षुब्द हैं, रोष से भरे पड़े हैं, के बिना पटाखे कैसी दिवाली,,???
     व्हट्सऐप पर इस आदेश के विरोध में तमाम कटाक्ष कसे जा रहे हैं ,,हिन्दू धर्म और संस्कृति पर कुठाराघात सा बताया जा रहा है।तमाम तर्कपूर्ण अकाट्य तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
     नासा के परमाणु परिक्षण से लेकर 365 दिन यातायात के साधनों द्वारा फैलने वाले प्रदूषणों पर भी विचार करने की सलाह सुझाई जा रही।
       मै दिल्ली एन सी आर मे 16 साल से रहती हूँ और अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव या आंखों देखी आपके सामने रखना चाहती हूँ।
    चकरी और फुलझड़ी से मुझे भी कोई आपत्ति नही मै भी दो पैकेट फुलझड़ी अपने छोटे बेटे को लाकर देती हूँ। परन्तु 300,500 ,1000 लड़ियों वाली देर तक धमाकेदार आवाज़ और धुआं करने वाले चटाई बम चलाना किस बात का प्रदर्शन करना होता है,,? अथवा किस प्रकार का आनंद प्राप्त होता है ? यह समझ नही आया मुझे।
        यदि आपके घर में कोई बड़े बुज़ुर्ग हैं और वह अस्वस्थ हैं,,कभी सोचा है आपने कि उनके लिए दीपावली का दिन कितना कष्ट प्रद होता है? आतिशबाज़ी शुरू होने के घंटेभर बाद, लाख खिड़की दरवाज़े आप बंद कर लिजिए आपके घर दमघोटूँ धुओं से भर चुके होते हैं।
         दीवाली के पश्चात कितने दिनों तक दिल्ली के आसमान पर प्रदूषण की धुंध छाई रहती है,,जो कि नानाप्रकार की श्वास सम्बन्धी बिमारियों को जन्म देती है।
       हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चे जिनके 'बचपन' पटाखे बैन होने की वजह से  छिनते हुए देखे जाने की दुहाई दी जा रही है,,,वही बच्चे इन पटाखों से फैले प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार होते हैं क्योंकि उनमे वयस्कों सी प्रतिरोधक क्षमता नही होती। वातावरण में फैले प्रदूषण से एलर्जी ,सर्दी,खांसी, बुखार भोगते हैं। दीपावली की मिठाइयों के बाद कठोर एंटीबायॅटिक सेवन करने पर मजबूर हैं। सोच कर देखिए उस समय जन्म लेने वाले नवजात शिशुओं को हम क्या परिवेश दे रहे हैं?
      कुछ तर्क ऐसे भी उठे,,, बारूद की गंध से कीट पतंगें मरते हैं,,। हर त्योहार के मनाए जाने के पीछे धार्मिक सदभावना के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य भी होता है। दीपावली में दीप जलाने का एक प्रमुख कारण यह भी है। परन्तु आजकल बिजली की झालरों से सजाए जाने की प्रथा के कारण कीट पंतगें खत्म तो नही होते बल्कि उनकी संख्या में बढोतरी हो रही है। पटाखे चलाने के बजाय यदि झालरों कम और अधिक दीप जलाएं तो कीट-पतंगें भी मरेगें और गरीब कुम्हारों की भी आमदनी होगी। मोमबत्तियों जैसे लघु उद्योगों को भी प्रश्रय मिलेगा।
       लोगो को पटाखे वालों के जमा स्टाॅकों के बेकार जाने की चिन्ता खाए जा रही है,,,,पर यदि कोर्ट के आर्डर ना आते तो क्या वे लोग केवल चकरी और फुलझड़ियां चलाकर संतुष्ट हो जाते,,,जिनके लिए महगी अतिशबाजियों का प्रदर्शन करना अपने वैभव और प्रतिष्ठा का प्रतीक लगता है?
        नियम कानूनों का पालन यदि हर नागरिक अपना कर्तव्य समझ कर करता तो शायद ऐसे जनमानस को आन्दोलित कर देने वाले अप्रत्याशित हुक्मनामे जारी करने की नौबत ना आती।
         विदेशों में नववर्ष पर पटाखे अवश्य चलाए जाते हैं पर वह हमारे देश में बनने वाले अत्यधिक धुएंदार और हृदय कंपा देने वाली आवाज़ों वाले नही होते। विदेशों के नागरिकों को अपने घर के साथ-साथ अपने आस-पड़ोस और पर्यावरण का भी ख्याल होता है।
         सरकारियों नीतियों मे ढीलापन, बाजारीकरण,और उद्योगपतियों की स्वार्थपरता से आंखे नही मुंदी जा सकती । परन्तु दोस्तों अगर वह हमारे हित और संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं तो हम तो देख सकते हैं। दिल्ली में रहने वाले लोग दीपावली के बाद होने वाले स्वास्थ को हानि पहुँचाने वाले वातावरण को देखते हैं दुष्परिणाम भी भुगतते हैं। आंखों मे जलन, स्वास सम्बन्धी कठिनाइयां,खांसी, बुखार ,सीने की जलन,दम अटकना जैसी कठिनाइयां हमे ही सहनी पड़ती हैं।  जो लोग अन्य प्रांत से हैं,,,और बिना देखे अपनी जगहों पर बेकार की जिरहबाज़ी कर रहे हैं,,उनके लिए यह एक पूर्व चेतावनी है,,,पर्यावरण केवल दिल्ली का ही नही प्रभावित हो रहा आपका शहर भी आज नही तो कल चपेट में आएगा।
           अतः कोर्ट के फैसले की निन्दा नही स्वागत कीजिए ,वह चाहे 10 दिन पहले आया हो,,या एक महीने पहले,,,,आपके और मेरे स्वस्थ हित के लिए शुभ ही है। नासा परमाणु परिक्षण और 365 दिन होने वाले कारकों को रोक पाना हमारी पहुँच से दूर हो शायद पर पटाखों को ना चला कर हम एक छोटा सा योगदान अवश्य दे सकते हैं।
     



मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

कहानी एक एहसासी लम्हे की,,,,,,,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

नरम हरी घास,रात की शबनम से धुली धुली,,,,। सरदियों की शुरूवाती गुनगुनाहट लिए इतराता सूरज,,,,,माहौल में एक अलसाया पन,,,,। परिंदों की चहचहाहट जैसे कह रही हो उठ जाओ,,पर दिल नही चाहता नरम घास के बिछौने को तजना।
      ऊहूँऽऽऽऽऽऽ का एक अनमना सा जवाब दे तीन-चार ढुलकियों के साथ बदन को बिस्तर पर लुढ़का कर,,, फिर से स्थिर हो कुछ पल औंधे मुँह पड़ा रहता है। आंखों की पलकें बार बार झपकती हुई,,,,, मन कुछ सोचता हुआ,,, अचानक नलिनी एक स्पूर्ति का अनुभव कर बाईं हथेली पर अपने चेहरे को टिका,, खिड़की के बाहर निहारने लगती है,,,,।  विनोद का एहसास कुछ ऐसी ही प्रभाती मुलायमियत लिए नलिनी के चेहरे पर एक सौम्य मुस्कुराहट बिखेर जाता था।

                        ।। 2।।
         नलिनी का जीवन विनोद से जुड़ने के बाद एक रोमांचक उपन्यास सा बन गया है। जिसकी हर पंक्ति खिलखिलाती सुबह सी,, हर परिच्छेद चिलचिलाती तपती दोपहरी ,,हर पृष्ठ सुबकती रात सा और हर अध्याय एक कौतूहल पूर्ण नवीनता लिए हुए है।
        जीवन से लेकर मृत्यु तक एक समग्र निश्चित सफर के बीच में भी हम कितने छोटे बड़े सफर तय करते हैं,,,,,,,। हर सफर का एक निश्चित पड़ाव भी होता है। परन्तु विनोद और नलिनी के सफर का कोई पड़ाव स्थूल रूप में नज़र तो नही आता,,,परन्तु दो किनारों के बीच बहती नदिया सा एक जुड़ाव अवश्य है। सब कुछ है भी और नही भी,,,,,,।
     जब कभी नलिनी विनोद से अपने इस अद्भुत रिश्ते का आधार पूछती है तो विनोद इसे आत्मिक मिलन का नाम दे देता है,,,,।
     नलिनी इस रिश्ते का रूप,गुण,आकार-प्रकार पूछती है तो,,,विनोद कहता है,,,-" नदी उद्गम के बाद जब पहाड़ों में रहती है तो चट्टानों को तोड़ फोड़ नया रास्ता बना लेती है पर जब मैदान में आती है तब ढर्रे पर चलती है। बस तटबंध तोड़ती है। हम मैदानी नदी हैं। " बड़ा अद्भुत,,,,बड़ा अनोखा,,अदृश्य परन्तु दृश्यमान,,,,,,,,,,,,।
 
                       ।। 3 ।।
  बहाव के साथ एक ठहराव लिए,,, हर क्षण में एक छोटी कहानी बन जाती है। कई छोटी-छोटी कहानियां मिल एक उपन्यास बन जाता है।
     अभी नलिनी और विनोद के जुड़ाव के इस सफर में छोटी छोटी कहानियां जन्म ले रही हैं। जैसे कि आज ,, एक अलसाई सुबह ने ,, नरम घास के बिछौने पर पड़े नलिनी ने आपको सुनाई।
       जानती हूँ आप भी पूरा उपन्यास पढ़ने को आतुर हो गए होगें,,,,,,,ठीक मेरी तरह,,,,,,। मै क्या नलिनी भी कभी-कभी बहुत बेकल हो जाती है,, अपने और विनोद के रिश्ते का भविष्य जानने को,,,,,। पर यह उसके बस में नही,, क्योंकि दोनो को मिलकर रचना है आगे का अध्याय,,,, ।
      यह कहानी शुरू तो कर दी मैने,,,,पर अंजाम तक पहुँचाने के लिए मुझे अपने पात्रों संग सम्पर्क साधे रखना होगा।
एक राज़ की बात बताऊँ तो मैं चाहती नही इस कहानी को कोई अंजाम देना,,,,,,,,नलिनी और विनोद भी नही चाहते,,क्योकि उनकी नित निर्मित अनेकों कहानियां उन्हे संबल प्रदान करती हैं। जीवन संघर्ष में ऊर्जा का संचार करती हैं।
                              ।।4।।
  बहुत देर तक हथेली पर अपने चेहरे को टिकाए रहने से, कलाई में हुए हल्के से दर्द ने नलिनी की तन्द्रा भंग कर दी। उसने देखा कि सूरज बड़ी चौड़ी तपन लिए चमक रहा था। घड़ी कि सुइयां टिकटिका कर यह कह रही थीं अब तो उठना ही पड़ेगा। अतः नलिनी ने विनोद के एहसास को अपने खुले बालों में लपेट एक क्लचर से अटका लिया । और एक नए जोश के साथ उठ पड़ी,,,,,।
          मै भी अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ इस आस के साथ , कि ,,,,,,,, कल कुछ नये एहसास लिखूँ और 'एक क्षण' के इन जज्बातों को एक छोटी कहानी में समेट सकूँ,,,,,।


        *********************************
     
   

 
 
       

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

तकिए,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)
 
दिल के भेदों को पहले
शब्दों मे ठूँसती है
फिर शब्दों को रचनाओं
के लिहाफ मे ठूँसती है
हाशिए,विराम के चिन्ह
लगा किनारों को मजबूती
से सी देती है,,,,,,,,,,,,,,,,
हाय री किस्मत कुछ दर्द
छुपाने को तू कितने तकिए
सी ती है,,,,,,,,????

इन तकियों को अपने
सिरहाने लगाती है
अकेली रातों में अश्कों
से भिगोती है,,,,
गीले तकियों पर ही
रात सुबककर सोती है,,
कोई सुन ले सुबकियां
इसलिए मुँह दबा के
रोती है,,,,,,,।

दर्द से दुखते बदन को
इन मसनदी सहारे पर
टिकाती है,,,,,,,,,
दोनो बाहों में भींच
दिल के दर्द को दबाती है
बैचैनी को मुस्कान से छुपाती है
ऐ ज़िन्दगी !तू दर्द के साथ
उन्हे दबाने के नुस्खे
भी बताती है,,,,,,,।
~लिली 😊

मुझे पाओगे,,,,

(चित्राभार इन्टरनेट)

बालों की सफेदी
 से उजली चांदनी 
रातों में,जब अपनी 
स्टडी टेबल पर बैठ, 
अपनी ही लिखी
रचनाओं के पन्ने 
उलटाओगे,देखना कंधे 
पर अचानक मेरे हाथों की 
गरमाहट पाओगे,,

भौंवें उठाकर 
नाक पर अटकी
ऐनक से नज़रे घुमा 
कर देखोगे,,
मेरे मुस्कुराते चेहरे 
पर ठहर जाओगे
तुम्हारे शब्द फिर 
एकबार मुझे
तुम तक ले जाएगें,
गुज़रे ज़माने के अक्स 
मेरी आंखों में छलक जाएगें,,,

मेरी तलाश से
लेकर मुझे पाने का,
मुझे पाकर मुझे जीने
तक का हर लम्हा 
गुनगुनाएगा
मेरी सांसों में तुम्हारे
प्यार का समन्दर
तब भी वैसे ही 
लहराएगा,,,,

एक आलिंगन की 
चाह हर कविता 
में बाजुएं फैलाएगीं
और मैं कांधों से हट
तुम्हारी बाहों में
सिमट जाऊँगीं,,,।

मौन का वो संवाद
ना जाने कब तक
हमें उलझाएगा
और पता नही कब
कितना वक्त
 गुज़र जाएगा,,,
मै तुमसे अपनी हर 
प्रिय रचना को
पढ़वाऊँगीं,
तुम पढ़ोगे और मैं
वैसे ही शरमाऊँगीं,,

सुनो ! तुम अपनी
रचनाओं का संकलन
ज़रूर छपवाना 
हम साथ-साथ ना रहे
तो क्या? तुम्हारे 
काव्य संकलन में
हमारा साथ एक 
पड़ाव पाएगा,,
जब तुम्हे मेरी याद
आएगी मेरा हाथ
हमेशा तुम्हारे 
कांधों को सहलाएगा,,,,,,,

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

किनारे मिलते नही कभी,,

(चित्राभार इन्टरनेट)



नीरव रात में नदी के एक किनारे को सुबकते देखा,,,
सजल नयनों को खुद पर उगी नरम घास पर रगड़ते देखा।
दरिया का पानी रह रह कर टकराता रहा,,
दूसरे किनारे की दिलासी लहरों से भिगोता रहा,,
"एक पुल तो बना दिया है देख, आऊँगा गले लगाने, तू यूँ हौसलाहारी बातें ना फेंक "
हवा के झोंकों से ऐसे कई पैगाम पहुँचाते देखा
नदी को उनकी बातों पर मचलते देखा,,
उसकी लहरों को बेचारगी पर उफनते देखा,,
पुल की पुरजोर कोशिश की मिला दूँ उनको,,
कभी कभी उसकी सख्ती को भी लरजते देखा,,
एक सफीना पर कुछ सवार को देखा,,
पतवार से बहाव हो विपरीत बहाते देखा,,
मैने अपनी आंखों से जद्दोजहद मिलने की होते देखा,
नदी सिकुड़ी नही,ना पुल को मुड़ते देखा,,
दोनो छोरों पर दो किनारों को सुबक कर सोते देखा,,।

लिली😊