मंगलवार, 2 जनवरी 2018

सफर

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

पटरियों पर
दौड़ती रेल
सी रफ्तार
है ज़िन्दगी

देर रात जाग
कर देखती रही
आंखें बाहर के
अंधेरे,चांदनी
फैली तो थी
पर सब कुछ
दिखकर भी
स्पष्ट नही था,,,

आंखे जैसे
टटोल कर
तराश रही
थीं बाहर के
अंधेरे,ना जाने
क्या आकार
देने का प्रयास
कर रहे थे मेरे
अंतस के दृष्टिकोण??

आने वाला दौड़कर
पीछे कि ओर
भागता सा,,,
पृथ्वी की देह
के उभार की
रेखाएं खोजती
मैं,बहुत देर तक
टटोलती रही
तराशती रही
सोचती रही,,,

यह कैसी
अस्पष्टता???
कैसी उलझन??
मै किस सफर
पर अग्रसर
रेल सी भागती?
पटरियां कभी
दूर तक आधार
प्रदान करती,,
तो कभी स्टेशन
से पूर्व झट से
एक से दो,,,
दो से तीन
निकल कर
फैल जाती हुईं,,
गन्तवय तो पता
था इस सफर का
पर जिस सफर पर
ज़िन्दगी सवार है
वह इतनी अस्पष्ट
क्यों हो चली है?

डरा रहा था
खिड़की के बाहर
का अंधेरा निर्जन,
चाँदनी पहली बार
सफेद धुंध सी लगी,
कैसे चीरू इस
धुंध को?पसरती
ही जा रहा हर तरफ,,

मन सिमटता
जा रहा अपनी
खोह में,परिन्दों
सा फड़फड़ता
नही अब, किसी
शाख पर बैठ
जाना चाहता
है,दुबक कर,,
सरदियों की
भोर है अभी
कुहासे से भरी
छटने में वक्त
लगेगा शायद,,
तब तक अस्पष्ट
ही सही,कुछ
नए अनुभव
छिपे हों,,
तब तक सब
धुंधला ही सही,,,

लिली 😊

1 टिप्पणी:

  1. कविता आरम्भ में वर्णनात्मक लगी। एक भाव की छाया-प्रतिछाया की लुका-छिपी चल रही थी। रेल की तरह कभी खटाखट, कभी धड़ाधड़ आदि पर, अहा, पर कविता का अंतिम परिच्छेद काव्य लेखन, अभिव्यक्ति, कवि दृष्टिकोण को एक नए पायदान पर ले गयी जहां से ज़िन्दगी स्पष्ट गहरी नज़र आ रही है। अंतिम परिच्छेद में कविता ऐसी बदली जैसे दुल्हन का पिया से नैन मिलन पर मुख भाव बदल जाता है। वाह !

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