सोमवार, 8 जनवरी 2018

रहगुज़र सा दिल रखती हूँ

                              (चित्राभार गुल्लू)

अब मंज़िल पर निगाह नही,निगाह में मंज़िल रखती हूँ,
मै सफर में हूँ मशगूल यारों,रहगुज़र सा दिल रखती हूँ।

कड़ी धूप क्या झुलसाएगी मेरी दरख्तों की हरियाली,
जड़ों को पत्थरों से नमी सोखने के काबिल रखती हूँ।

वो मेरा चाँद होगा मेरी गिरफ्त-ए-आगोश से बहुत दूर,
अपने दिल कि खिड़कियों से नज़रे हासिल रखती हूँ।

शिकवा क्या करूँ तेरे ना मिल पाने का बता ऐ हमदम!
सांसों की हर आवाजाही में हवा सा शामिल रखती हूँ।

तेरे आने की आस जलाए रखती है चराग़-ए-मुहब्बत,
इसी रौशनी के साए में उम्मीद को कामिल रखती हूँ।

लिली😊


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