मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

भूडोल,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


अंदर
तक थर्राई थी,
वो खुश थी,
या घबराई थी???
शायद भूडोल
का कारण
आज जान पाई थी!!

संवेदनाओं का तरल
कहीं अनंत
गहरे आत्म-पातल में
दबा होता है,
कई परतों के मोटे
आवरणों में
छिपा होता है,,,

कोई भेद जाता है,
अपने अगाध
प्रेम चुम्बित
स्पर्श से,,,
और,
कर जाता है
समस्त अभिव्यक्तियों
को अवाक्,,,
तरल की हलचल
फिर किसी
तूफानी समन्दर
से होती नही कम
डोल जाता है
भूगर्भ,,
फट पड़ती है
ऊपरी सतह
लिए गहरे फांक,,

नही पता खुश थी?
या
घबराई थी?
पातल की गहराइयों
से बाह्य तक
'वो'
किसी भूडोल की
चपेट में आई थी,!!

होता है कोई
'अतिविशिष्ट' जो
पातल के तरल
तक को देख
पाता है,,
सामान्य को तो
अचला का
आँचल ही
नज़र आता है,,,

शायद अपने
गर्भीय रहस्यों को
उसके मुख से
सुन तनिक नही,
अधिक भावुक
हो आई थी,,
पातल की गहराइयों
से बाहर तक
भूडोल की
चपेट में आई थी,,,



शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

मैना रानी,,,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

👶#बालकविता👶

🐦🐦🐦मैना रानी🐦🐦🐦

आँखों में सब करती कैद,
मैना रानी   बड़ी   मुस्तैद।

नपे पगों   से चलती डेढ़,
जैसे   फौजी  करे परेड।

एक अकेली फिरे दुखी,
दो दिखे तो मिले खुशी।

मीठे सुर में  गाती    गान,
पीला अंजन आँख मे तान।

दल में रहती हैं ये साथ
भूरी काली इनकी गात।

कभी घास कभी बैठी तार,
भिन्न रंग और कई प्रकार।

लिली🐦

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

🐴अड़ियल टट्टू🐴

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

👶बालकविता👶




भोंदू भाई   अड़ियल टट्टू,
अपनी ज़िद के बने हैं रट्टू।

रत्ती भर ना   हड़िया ठेलें ,
दिनभर सोवें बड़े निखट्टू।

अड़ जाएं जब बात पे अपनी,
टस्स से मस्स ना होते गट्टू ।

भोंदू भाई अड़ियल टट्टू,
अपनी ज़िद के बने हैं रट्टू।

लिली 🐴

🐦🐦 अपने मुँह बनते मियां मिट्ठू🐦🐦



ये मेरे नन्हे दोस्तों के लिए❤

👶बालकविता👶



अपने मुँह बनते
मियाँ मिट्ठू,,
लेकर तारीफों
के पिट्ठू।

मुस्कान भतेरी
मुख पर आए,
जब होते अपनी
बातों पे लट्टू।

अपने मुँह बनते
मियाँ मिट्ठू,
लेकर तारीफों
के पिट्ठू।

लिली🐦👶

कुछ यूँ था,,,अपना अफ़साना

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कुछ यूँ था,,,
उनके लिखने,,
और,
मेरे पढ़ने का
अफसाना,,
बात कलम
की स्याही से
काग़ज पर
नही,
मेरे दिल पर
लिखती गई,,,
ना जाने कब,,,?
मै उनकी कविताओं
में अनुभूतियों
सी घुलती गई,,,

सूरत
तुम्हारी तब
देखी नही थी,
हमारे संवादों
के रंग से ही
तुम्हारी सीरत मैं
रंगती गई,,,
मै कब,कैसे
आभासी कल्पनाओं
के स्वप्न
बुनती गई,,
क्षितिज के पार
भावनाओं के
उड़नखटोले पर
तुम संग उड़ती गई,,,

देखो ना!!!
अब मै भी
तुम्हे शब्दों में
लिखने लगी हूँ,,
रचनात्मकता की
नई कृतियां
गढ़ने लगी हूँ,,,

दृढ़ विश्वास
है मेरा,,
समाज ना सही
साहित्य हमें
स्वीकारेगा,,
हमारे सृजन
का हार,
उसके लालित्य
को संवारेगा,,

तब देखना!!!
कैसे हमारी प्रीत
किसी पताका
सी साहित्य पथ
पर फहराएगी,,
हमारी अभिव्यक्तियां
सृजन सागर की
सच्ची काव्यांजली
कहलाएगी,,,

तो कुछ ऐसा था,,,,
उनके लिखने
और
मेरे पढ़ने का
अफ़साना
रचनात्मकता की
डगर पर,
एक दूजे का
हाथ थाम,
हमे अमरत्व है पाना,,,

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

पक्षी बिच मन या मन बिच पक्षी ,,,!!!


                       (चित्राभार इन्टरनेट)

अब डाल-डाल फुदकने का जी नही करता,,,। मेरी चंचल उड़ान को गाम्भीर्य की ठौर रास आने लगी है,,,। देखती हूँ अपनी बालकनी से पंक्षियों के जोड़े को,,,किसी शाख पर बैठे हुए,,,,,तो मन भर उठता है।
      जाती ठंड जैसे फिर पलट कर आ गई है। हवाएं तेज़ और एक बर्फीली छुअन लिए हैं। कानों में तोतों के झुंड की आवाज़ घुल रही है,,,कभी शान्त तो कभी एकदम से बोल उठते हैं,,,।अक्सर बिजली के तार पर ना जाने कहाँ से उड़कर आ बैठ जाते हैं और आपस में संवाद करते हैं। ऐसा लगता है मानों तोता परिवार की किसी गम्भीर मुद्दे पर सलाह मशवरा चल रहा हो।
   बुलबुल जैसे पुचकार के अपने साथी से पूछ रहा-" कह ओ गुइयां चलिहे उह पार,,?" और उसकी संगिनी ने नकारते हुए कहा हो-" बइठो ना बलम दो घड़ी पास बड़ा भावे मोहें तुम,ये सुबह,और ठंडी हवाओं का साथ,,,,।"
      वो हल्की सी धूप में गौरैया,,,,अपने परों को फूला कर किसी रुई के फाए सी गोल-मटोल होकर बैठी है,,,,। शरीर की गरमाहट से आराम पा कर उसी पलके मुंद रही हैं,,,,। उसके छोटे से चेहरे पर एक सुकूनी आभा है,,,पर एक आहट से चौंक कर पलकें खुलती भी हैं तीव्रता से,,,,।
         एक पूरा दल सतबहनियों का,,,,,कितना शोर मचाता हुआ,,,,उफ्फ,,!! जैसे कक्षा में टीचर के ना आने से पूर्व सारे बच्चे अपनी धुन में चिल्लाते हुए,,,कोई इधर दौड़ता हुआ,,तो कोई पीछे की बेंच पर अपने प्रिय दोस्त के साथ बतियाता हुआ,,,कोई बेवजह ही झगड़ता हुआ,,,तो कोई उकसाता हुआ,,,। मिट्टी में दंगल लड़ता हुआ सतबहनियों का दल,,, पीली चोंच और गुस्सैल आँखों वाले,,ये पछी कितने लड़ाका से दिखते हैं शक्ल से,,,,।
        सब कहते हैं,,सतबहनियों का दल एक साथ रहता है,,एक मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति स्वरूप मैं इनके दल को देखते ही पहले गिनती करती हूँ,,,। अक्सर सात पाया,,कभी कभी संख्या अधिक भी लगी,,,हो सकता है दो दल एक साथ हों,,,,,। मेरी माँ इन सतबहनियों के दल की चांय-चांय सुनकर खुश नही होती थीं,,,। इन्हे देखते ही बोलती थी,,"उड़ाओ इनको,,,नही तो आज झगड़ा होगा तुम्हारे बाबा से"। कैसी-कैसी किवदंतियां!!!!!
          मैना चिड़िया,, बड़ी मुस्तैदी से सड़कों पर टहलती हुइ सब तरफ गरदन घुमा कर जैसे निरीक्षण कर रही हों,,। इसको देखते ही अपने स्कूल के दिनों की एक कहावत दिमाग में दस्तक देने लगती है,,,,। शायद बहुत से लोग मेरी तरह इस तथ्य पर विश्वास करते हों,,,,! अंग्रेज़ी की कहावत,,,, "वन फाॅर साॅरो,,, टू फाॅर जाॅय,,, थ्री फाॅर लेटर,,,,,फोर फाॅर बाॅय,,,,,,।" पता नही कितना सत्य है,,,।
       अपने हाॅस्टल के दिनों में,,,,'मैना' चिड़िया पर बनी कहावती संख्या पर एक विचित्र सा आलम्बन था,,,।
हाॅस्टल से यूनिवर्सिटी जाते समय यदि एक मैना दिखी तो मन वहीं से उदास हो जाता था,,,,और दूजे पल दूसरी मैना की तलाश निगाहें करने लगती थीं,,,। तीन मैना दिखीं तो एक अनजानी सी खुशी होती थी,,,,शायद मेरी स्कूल की सहेली गुंजन का या नेहा का पत्र आएगा,,,,। चार मैना कभी नही दिखीं😃😃😃😃😃 ।
        ये मैं कहाँ अतीत में पहुँच गई,,,! वापस आती हूँ,,,मयूर बहुत हैं यहाँ,,,कल बैठी थी बाल्कनी में तो एक मेरे बगल वाले घर के छज्जे पर आकर बैठा,,,,,,। मैं भी बिना कोई हरकत या आवाज़ के बैठ उसको निहारने लगी,,,,,। कितना सुन्दर होता है यह पक्षी,,,,गरदन की गहरा नीला रंग,,,,कभी नीला तो कभी हरा दिखता है,,,सर पर कलगी क्यों बनाई होगी ईश्वर ने,,,,??? यह प्रश्न भी आया,,। फिर लगा होगा कुछ कारण ,,,।
       मयूर के लिए उड़ना बहुत परिश्रम साध्य होता है,,,कल महसूस किया,,,। छज्जे से छत तक उड़ने से पहले उसे खुद को बहुत तैयार करना पड़ता है,,,। मैने ग़ौर किया कि मयूर कई बार छज्जे से छत तक की दूरी का आंकलन कर रहा था। फिर उसने अपने बड़े और अन्य पक्षियों की अपेक्षा भारी शरीर को एक 'क्ग' की ध्वनि के साथ उड़ाया,,,ठीक वैसे ही जैसे,,हमारा भारी शरीर जब बैठा होता है,,और उठते वक्त ,,'उऊम्ह' की आवाज़ करते हुए अपने घुटनों पर हाथ टिका खड़ा होता है।
       मयूर का चटखीले रंगों का मखमली सुन्दर शरीर और उसके पंख उसे मोरनी से अधिक आकर्षक बनाते हैं,,और मोरनियों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है,,,पर मैने एकबार मोरनी को बहुत करीब से देखा,,,उसकी सफेद और भूरे परों वाले शरीर और गरदन पर गाढ़े हरे रंग के चमकीले पंख  जो कि,,एक अलग रंगत बिखरते हैं,,,जो बहुत सौम्य सी होती है,,भड़कीली नही। मोरनी की आंखें बहुत खूबसूरत होती हैं,,,,जैसे किसी श्रृंगार काव्य की मुग्धा नायिका के कजरारे नयन!!!! मोर की कलगी की अपेक्षा मुझे मोरनी की कलगी अधिक सुंदर लगी ।मोरनी का सौन्दर्य वर्णन सहानुभूति परक नही था,,,गौर से देखी गई स्वाभाविक प्रतिक्रया के वशीभूत निकला।
        नीचे के घरों के बागीचों में लगी 'झाड़ियों की बाड़' और उसकी घनी झाड़ में अचानक से फुदकती दिखती हैं,,,छोटी-छोटी 'टेल बर्ड' और 'हम्मिंग बर्ड' कितनी फुर्तीली,,,,,,!!!!!! और लगातार चूँईं चूईं करती हुई,,,,। इनकी बोली के ताल पर इनकी उपर की तरफ उठी हुई पूँछ,, क्या खूब थिरकती है,,,,,!!! पल में इधर फुदकी पल में उधर,,,,,, और मुंडी तो घुटुर घुटुर हिलती ही रहती है,,,,। बड़ा आनंद आता है झाड़ में चुहलबाज़ी करती हुई इन नन्ही चिड़ियों को देख।
          जब इतने सारे पक्षियों के बारे में बात कर रही तो,,, 'सफेद उल्लूओं' को कैसे छोड़ दूँ,,,अक्सर गर्मियों की मध्यरात्रियों में मेरे घर के सामने खड़े दो ऊँचे पाम ट्री पर उल्लूओं का दल बहुत ज़ोर ज़ोर शोर मचाते हैं,,,कि अक्सर नींद टूट जाती है। कहते हैं लक्ष्मी जी के वाहन को यदि कोई देख ले तो धन लाभ होता है,,,,। एक दो बार ऐसा हुआ है कि इनकी आवाज़ सुन मैने भी 'उक्त कहनी' को जांचने के लिए,,,अपनी खिड़की से बाहर के तिमिर को चीर उल्लू की तरह आँखें फाड़ फाड़ कर सफेद उल्लूओं को देखने का प्रयास किया,,,,,पर दिखे नही कभी।
        अब इसे अपनी उत्कंठा का फल कहूँ या क्या कहूँ पता नही,,? परन्तु एक दिन सुबह ऊपर की छत पर कपड़े सुखाने गई तो देखती हूँ के एक सफेद रंग के आकार में अच्छे खासे विराट 'उल्लू महाराज' छत की दीवार पर विराज मान थे,,,। मेरी प्रसन्नता अब मध्यरात्रि में चिल्लाते उल्लूओं सी शोर मचाने लगी। आश्चर्य का विषय था,,के दिन में उल्लू देव ने कैसे दर्शन दिए,,क्योंकि दिन में इस पक्षी को दिखता नही है,,। खैर मेरे पदचाप कि खसखसाहट को सुन उन्होने 180° तक गरदन घुमाकर मेरा इस्तकबाल किया,,पर टस्स से मस्स ना हुए अपनी जगह से। उस वर्ष पतिदेव को पदोन्नति सह वेतनवृद्धि अच्छी हुई,,,। खबर जब फोन पर मिली तो पहला वाक्य यही निकला,,, लक्ष्मी जी के वाहन का आशीष मिल ही गया।
      मै लिखने कुछ और ही बैठी थी पर देख रही हूँ कि मैने कुछ और ही लिख डाला है,,,अतः शुरूवाती पंक्तियां आगे के वृत्तांत से मेल नही खा रही अब,,,। विचारों का प्रवाह स्वयं ही मुड़ता गया और टाइप होता गया। मैने भी धारा के प्रवाह से छेड़-छाड़ ना करते हुए उभरते विचारों को लिखते रहना उचित समझा,,, परन्तु मै उसी शुरूवाती मनोभाव की ओर पुनर्गमन करना चाहती हूँ,,,। चाहती हूँ,,किसी बुलबुली जोड़े सी एक बिजली के तार से आधार पर जाती ठंड की चुभन का एहसास पाना,,,,,,,,। चाहती हूँ,,,ठंड से खुद को बचाने के लिए रुई के फाए सी गौरैया की तरह गुनगुनी धूप में अलसाना,,,,,,। जीवन दंगल को अपने लड़ाका रूख से जीतती सतबहनी दलों की चांय-चांय के शोर को सुनना।
       मेरी मन मैना किसी प्रचलित कहावत की पात्र नही बनना चाहती,,,वह तो अब नर्म हरी घास पर मुस्तैदी से टहलना चाहती है।  मेरे मन का मयूर भी किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी क्षमता और काम की दुरुहता का सटीक आंकलन कर अपनी उड़ान भरे,,,।
     मै अपने मन के उपेक्षित कोने को भी मोरनी के उपेक्षित सौन्दर्य की तरह सराहना सीखूँ। जीवन की कोंचिली झाड़ियों में किसी हमिंग बर्ड या टेल बर्ड सी कुशलता से चहकती हुई निकल सकूँ।
         दुर्लभ दर्शनीय सफेद उल्लुओं सी दबी अभिलाषाएं रोज़ ना सही एक बार तो साक्षात् दर्शन दे मुझे आनंदोल्लासित कर जाएं,,,और मैं उसी उल्लास के रस को एक ठौर पर बैठ पीती रहूँ।
        सच में,,,,,,, अब मन पक्षी  चंचलता की उड़ान तज गाम्भीर्य की एक सशक्त शाख पर बैठना चाहता है,,,,,,,,,,,
भावों को कलमबद्ध करते करते,,,,मन पक्षियों के बीच बैठ गया या मन बिच नाना भावों के पक्षी बैठ गए यह कह पाना मुश्किल लग रहा,,,,,,,,
       
      

गुब्बारे,,,,, (लघुकथा)

                      (चित्राभार इंटरनेट)

"भाभी आज कौन सा दिन है?"

ज़मीन, पर अपने कौतुहल को दबाते हुए,,बड़े अनमने ढंग से झाड़ू फेरते हुए हेमा ने सरिता से पूछा,,,।

सरिता ने यह सोचते हुए कि, यह गरीब इंसान क्या जानेगी के आज पूरा ज़माना प्रेमोत्सव में ढूब 'वेलनटाइन डे' मना रहा है,,,
 जवाब दिया-  "शिवरात्रि है आज",,।

सरिता के जवाब से संतुष्ट ना होते हुए हेमा ने फिर पूछा-- 'शिवरात्रि के अलावा क्या दिन है आज,,??'

बाहर वाली मैडम कि नई बहू आज पूरा घर 'दिल आकार के गुब्बारों से सजा रही हैं,,।
मैने पूछा उनसे तो खूब हंसीं,,, और कुछ अंग्रेजी में नाम बताया,,,,

तभी सरिता ने हंसते हुए जवाब दिया,,, वैलनटाइन डे !!!

हेमा के चेहरे पर भी एक हंसी की आभा फूट पड़ी और बोली-- " हाँ वही बे-ल-न-टा-इ ,,,पता नही मेरे तो मुँह से निकल भी नही रहा,,, बोलकर हंसने लगी ,,।

सरिता ने भी पूरे प्रसंग का आनंद लेते हुए बोला - " हाँ आज प्यार का दिन है,,,"

हेमा ने हंसते हुए अपनी कुर्ते की पाॅकेट से कुछ लाल-सफेद दिल आकार के गुब्बारे निकाल मुझे दिखाते हुए बोली,, -"नई वाली भाभी ने ये गुब्बारे मुझे भी दे दिए,,

बोली हैं- 'तुम भी लगा लेना',,, और अपने पति को भी -"है-प्-पी,, बे-ल-न-टा-इ -डे बोल देना,,,,,,
बोल हेमा थोड़ा लजाते हुए हंस दी।

फिर हेमा नई भाभी से प्राप्त 'बे-ल-न-टा-इ दिन की हतप्रभ करती विशिष्टताओं को बड़े उत्साह के साथ बताने लगी,,,।

"भाभी बोल रही थी-" आज के दिन गुलाब बहुत महंगें मिलते हैं,, एक गुलाब,, 50- 60 से कम नही,,और कैसे उसकी बाहर वाली मैडम की नई पुत्रवधु,, नानाप्रकार के 'प्रेमसूचक सजावट समाग्रियों से घर सजा रही थी।

सरिता पूरे वृत्तांत को बड़ी रोचकता के साथ सुन कर आनंदित हो रही थी।

सरिता ने पूरे प्रंसग का मज़ा लेते हुए थोड़ा हेमा को छेड़ते हुए उससे पूछा-
' तो हेमा,,तुम ये गुब्बारे अपने घर पर सजाओगी,,?"

"अब नई वाली भाभी दीं हैं इतने गुब्बारे ,,, तो घर जा कर मै भी सजा लूँगीं ,,,,
रोज़ कि वही घिसी-पिटी कामकाजी भागदौड़ से ऊबी उसकी आत्मा,,,क्षणिक ही सही परन्तु एक आकर्षण पूर्ण नवीन पल को जीने के मनोभाव को छुपाने का प्रयास करते हुए,,बड़ा भोला सा जवाब दे गई,,।

सरिता ने भी उसके मन को भांपते हुए ,हल्के से मुस्कुराते हुए कहा-"हाँ अब दिया है तो सजा लेना",,, और अपना काम करने किचन में चली गई।
****समाप्त****

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

ठहराव,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

ठहराव भी शून्य सम

तिमिर का गहराता तम

चक्षु का फैलता आकार

खोजते हों खोया मम्

बहता जीवन नवीनतम्

नित नए अनुभव महत्तम्

शैवाल पकड़ता ठहराव

बहाव लिए दिशा निरन्तम्

बयार करती प्रयास लघुत्तम्

होती तरंगित लहरें मध्दम्

उदासीनता लाता ठहराव

जलजीव रखें सक्रिय हरदम

पिय बिन रचना बोलत नाही,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

पिय बिन रचना
बोलत नाही,
पट हिरदय के
खोलत नाही।

कुंज कंवल के
रवि मुख ताकैं
नटखट मुसिकाएं
कछु बोलत नाही।

पुष्पपात से ढकि
रहे ताल,
लहरन की गति
दीखै नाही
कहो कैसे मैं भाव
दिखाऊँ?
शब्दजाल अब
बुनते नाहीं,
प्रिय बिनु रचना
बोलत नाहीं ।

बढ़ि बढ़ि उचकैं
पंखुरि फैला करिं
पिय मुख सम्मुख
पावत नाहीं,,
भये उदास,
टूटत है आस,
प्यास मिलन
की तरतै नाही,
प्रिय बिनु रचना
बोलत नाही।
पट हिरदय के
खोलत नाहीं।
 लिली

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

दांव ज़िन्दगी के,,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


ज़िन्दगी
के दांव
बड़े झोलिदा
निकले,,,,

खुद  को
मीर समझते थे
जो,
किस्मती कफ़स
में कैद,
शतरंजी
प्यादा निकले,,

नाशिनास
बड़े,
सोचते हैं,
उफ़क
रंगीन है
उनके दम से,
अफसोस ज़ेहन
के बड़े
कमतर निकले,,

ख़ुद से
अग्यार
ग़ैरों  को
ऐयाश
कहते हैं,
उनसे कहो,
 ऐब़ अपने
झांककर निकलें,,

कमज़ोर पर
उक़ूबत कर
सिकन्दर ना बन,
वही पाता है
नुसर्त,,
जो सबको
गले लगाकर   
निकले,,

लिली 😊

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

बसंत,,, (हाइकू)

                        (चित्राभार इन्टरनेट)

हाइकू

🌻बसंत🌻

छाया बंसत
सुरभित पवन
पिया की याद

कोकिल कहे
कुहूँ कुहूँ पुकार
प्रियतम आ

आँखियां रोवें
उठे कसक जिया
बैरी बसंत

पीत वसन
लहराती वसुधा
गोरी उदास

लिली 😊

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

डायरी

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

                   कहानी
              ----------------
     


डायरी के पन्नों मे छुपी मन की कोमल अनुभूतियां !!!!! निश्चित रूप से किसी फूल को हाथ में पकड़,, ऊँगलियों से उसकी हर एक पंखुड़ियों को पूरी तन्मयता के साथ,,उसे अनुभव करने जैसा लगता है,,। अतीत के गलियारों का जैसे कोई कोना,,अपनी तरफ खींच लेता हो,,,। एक आलिंगन एक चुम्बन के लिए,,,,,,,। कुछ पल की यह सिहराती अनुभूति,,लम्बे समय तक मुस्कुराहट बिखराती रहती है। 
       आज पता नही कैसे याद आ गई प्रिया को अपनी 'डायरी',,,जो सालों से दबी थी 'बाॅक्स बेड' की गहराइयों में।
      'अपना समय' 'अपने साथ' गुज़ार रही थी। बच्चे- पति सब स्कूल आॅफिस जा चुके हैं। प्रिया तल्लीन होकर एक-एक पन्ने को पढ़ रही है,,,,अपने अतीत से रूबरू हो रही है।
     कभी आंखें नम हो रही हैं,,कभी लाज से गुलाबी हो रही हैं,,,,। कितने भाव समेटे हुए है हर पन्ना,,,,,,!!!!!!!
      15 जनवरी के एक पन्ने पर आंखें अटक गईं,, एक कौतूहल लिए। प्रिया ने पढ़ना शुरू किया,, पंक्ति के हर भाव उसके चेहरे पर तैरते हुए,,,जैसे एक बार फिर जी रही हो,,,,,,,,
    ' आज 'मूड' कुछ ठीक नहीं था। शनिवार के दिन बाज़ार जाने का कार्यक्रम था,,,। पर किन्ही कारणों से हो नही पाया,,,( प्रिया ने ज़ोर डाला,,क्या हो सकता होगा वो कारण,,,,? )खैर वह आगे बढ़ी,,,,,,,,।
      इतवार के दिन जाने का मुकर्र हुआ। पर नीरज की कार में कुछ समस्या आ गई और वह कार को दिखाने के लिए चले गए,,,,। 
     बोल कर गए की दोपहर का खाना खाने के बाद निकलेगें। खाना खाने के बाद 'पूल' खेलने चले गए,,,,,
( छुट्टी के दिन 'पूल' खेलने जाना भी एक नियम था,,,, प्रिया अपने आपसे ही बोलने लगी,,,चेहरा ऊपर उठाकर सामने देखते हुए,,,अब तो नीरज ने जाना ही बंद कर दिया है) मन ही मन बुदबुदाई,,,कितना कुछ बदल गया है,,,,,हाआआआआआ,,एक गहरी सांस छोड़ते हुए,, आगे बढ़ी।
       छुट्टी के दिन भी चले जाते हैं,,,,पता नही क्यों मुझे बहुत खराब लगता है,,। बस लगता है आंखों के सामने बैठे रहें ,,,,,,!! मुझे इसी बात पर बार-बार रोना आ रहा था,,,,तो कभी ये ख्याल के -" कितने खराब हैं,,पूरे हफ्ते ऑफिस जाते हैं,, सारे दिन में बस 2-3 घंटें मिलते हैं,,साथ रहने को,,,।छुट्टी के दिन तो साथ रहें,,,।
     माँ- बाबा से कितनी बातें करूँ मैं,,? वैसे भी वह इतने बड़े हैं मुझसे के समझ नही आता क्या बात करूँ,,,??
      फिर लगता है,,मैं क्यों अपना मूड खराब करती हूँ,,? सप्ताह भर ऑफिस का तनाव भरा काम,,एक दिन अपनी इच्छानुसार उसे बिताया तो क्या गलत है,,????
      दोनो तरह की विचारधाराओं की उठा पटक जारी थी,,पर मेरा स्वार्थ मुझपर पूरी तरह हावी था,,।
     इसीलिए मैं सो गई,,,,, हलांकि मै सोई नही थी,,,,हर आने वाले स्कूटर की आवाज़ पर चौकन्नी हो जाती,,,और खिड़की से झांक कर देखती,,,नीरज तो नहीं,,,,,,,?(प्रिया हंस पड़ी अपनी इस पंक्ति को पढ़)
        4 बजे आकर नीरज मेरे करीब आए,,और बाजार जाने के लिए बोला,,,मैने गुस्से को छुपाते हुए,,'नही जाने का मन है' का बहाना बना दिया,,,,। 
      वो समझ गए थे के मेरा मिजाज़ उखड़ा है,,,,। बेचारे बार-बार 'माफी' मांगते रहे,,,,। पर मैं पूरी कोशिश के साथ गुस्से को अंदर दबोच कर लेटी रही।
       नीरज फिर किसी काम से बाहर चल दिए। नीरज के जाते ही बिजली की तरह मेरा हृदयपरिवर्तन हो उठा,,,। मुझे अब खुद पर गुस्सा आने लगा,,, नीरज अब मेरे मन को 'बेचारे' लगने लगे,,,,(प्रिया हंसी रोक ना पाई) । बिचारे मेरे लिए जल्दी-जल्दी आए और मैं मुहँ फुलाए बैठी रही,,,,।
     उस समय लगने लगा,,काश कहीं मिल जाएं नीरज,,,,और मै उनको गले से लगा लूँ,,,,,,। अपनी हरकत पर पछतावे का उफान आ रहा था।
    लौटकर आते ही वह मेरे पास आए,,,मैं लेटी ही थी,, झट से उठी और नीरज को गले से लगा लिया,,,,,।(प्रिया आह्लादित भावों से भर उठी)
       नीरज मेरे पास आकर बैठ गए,,,,और बार-बार पूछने लगे-" बताओ तो सही हुआ क्या है?" लेकिन मै उतनी ही बार -"कुछ नही,,कुछ नही " करती रही,,,,, धीरे से उनके कंधे पर सिर रख दिया,,,और लगा सब कुछ भूल गई,,,। 
      न जाने कौन से सुख की अनुभूति होती है,,जब मैं नीरज के कंधे या सीने पर सिर रख कर आंखें बंद किए पड़ी रहती हूँ,,,,,,,,! लगता है,,,मेरा सर्वस्य यहीं समाया है।
     नीरज को पति रूप में पा अपने भाग्य को सराहती हुई,,,एक पल को खुद को कोसने भी लगी थी,,,,मै कितनी बुरी हूँ,,,अब से कभी भी ऐसे इनको कष्ट ना दूँगीं।"
        प्रिया ने बड़े मुस्कुराते हुए,,,पूरी नज़ाकत के साथ अपनी डायरी को बंद कर साइड टेबल पर रख दिया,,,,।
      थोड़ी देर सामने का खुला आकाश देखने लगी,,और ना जाने किन भावों में डूब गई,,,,,,। तभी पास रखा मोबाइल बज उठा,,और प्रिया की तंद्रा भंग हो गई ,,।
     'हैलो',,,, "जी शायद आपने गलत नम्बर डायल कर दिया है,,,आप कृपया नम्बर जांच लें।"
थोड़ा झुन्झलाई सी प्रिया रसोई की तरफ बढ़ चली
  

    सोफे से किचन तक के सफर में,,, यही सोचती रही,,,अब ऐसे क्षण नही मिलते,,,,कितना कुछ बदल गया है,,। अब रूठती हूँ तो नीरज बार-बार नही पूछते,,,"हुआ क्या है,,बताओ ना?"
      या फिर मेरे एक बार "कुछ नही" बोलने पर मेरे पास आकर नही बैठते,,,,,,,,। 
        शायद अब हम बिना बोले ही एक दूजे को अच्छी तरह समझने लगें हैं,,,,,समय के साथ परिपक्व हो गए हैं,,

गौरैया,,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

कहानी

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सोफे की गद्दी को फर्श पर रख कर,, औंधे मुँह बड़ी फुरसत से लुढ़की पड़ी है,,लता । बरामदे के जाल के दरवाजें से आसमान की तरफ अपनी दृष्टि जमाए।
      मौसम आज अच्छा है,,बादल छाए हैं और हल्की-हल्की हवा चल रही है। आज कोई काम नही है,,। वरना शाम का समय बच्चों को ट्यूशन, खेल के मैदान,माँ के घर आने-जाने मे कैसे कट जाता है,,वह खुद ही नही समझ पाती।
       आने वाले चार दिनों की छुट्टियां हैं ,,एक अजीब सा सुकून है,,भाग दौड़ से राहत है। शायद इसी लिए मन की गौरेया थोड़ी अपनी मस्ती मे है,,,,,।

     गौरैया बहुत भाती हैं लता को,,छोटी सी,,काया,,भोली सी सूरत,,और चंचलता अपार,,। उसके काॅलोनी में गौरैया का झुंड अक्सर मिट्टी में चहचहाता हुआ,,बिजली के तारों और खिड़कियों पर फुदकता हुआ दिख जाता है।
     इन सबके अलावा एक विशेष लगाव है लता को गौरैया से,,,,। किसी का 'आह्लादित सम्बोधन' याद आ जाता है,,,इस नन्ही सी फुदकती चिड़िया को देखकर,,,और लता रोक नही पाती अपने चेहरे पर छा जाने वाली शरमाई,,गुलाबी आभा को।
      ऑनलाइन मुलाकात हुई थी सुमित से,,उसकी स्वाभाविक रचनाओं  ने बहुत प्रभावित किया था लता को। अक्सर लता सुमित से कुछ लिखने का आग्रह कर जाती थी। रोज़ ऑनलाइन मुलाकतों का सिलसिला बढ़ने लगा था। दोनो ही एक दूजे की प्रतीक्षा में रहते,,,,परन्तु बात करने की प्रबल चाहत होते हुए भी एक हिचकिचाहट रहती थी लता में,,वह थोड़ी देर के लिए आती,,,सुमित से बात कर के चली जाया करती थी,,।
     इतवार की छुट्टी थी,,। सुमित अपने परिवार से दूर दूसरे शहर में एक रूम लेकर अकेला रहता था। लता से ऑनलाइन परिचय होने के पश्चात छुट्टी के दिन,,बेसब्री से उसके आने की प्रतीक्षा में ढेरों कविताओं की रचना कर पोस्ट करता रहता,,। हर कविता जैसे पुकार रही हो,,,,, "आ जाओ अब",,,,,,!
      लता भी छुप-छुपकर उसकी कविताओं को पढ़ ,,बेचैनी का आनंद लेती,,मन ही मन मुस्कुराती। सुमित से बात करने की अपार इच्छा होते हुए भी वह खुलकर सामने नही आती थी। एक दिन सुमित की कुछ पंक्तियां आईं,,,
  
"यूँ आती हैं पल भर में चली जाती हैं
जैसे गौरेया मुंडेर पर फुदक जाती है

कई रंगों में गौरेया भी ढल जाती है
चहकती है और दिल मे उतर जाती है

यूँ फूदक कर  हर तनाव हर जाती है
होकर आकर्षित नित मुंडेर पर आ जाती है

गौरेया से मुंडेर की भावना की बंधी डोर है
शोर न चिल्लाना बस आती है फुदक जाती है"

बस इन पंक्तियों की गौरैया उसके व्यक्तित्व की पहचान बन गई,,। धीरे -धीरे हिचकिचाहट के बंधन लता को नही बांध पाए,,। कब लता सुमित की गौरैया बन गई वह खुद भी ना जान पाई।
अक्सर बड़े लाड़ से सुमित उसे 'मेरी प्यारी गौरैया!' बोलता था,,,और लता जैसे उदकती फुदकती सुमित के दिल की मुंडेर पर चहचहाने लगती थी।
       यह सिलसिला आज भी चल रहा है,,,,। गौरैया जैसे छत की मुंडेर या खुली खिड़कियों के पल्लों पर ही चहचहाकर ,,फुदक कर फुर्र हो जाती हैं,,। किसी ने प्यार से दाना-पानी  रख दिया तो दिन में कई बार आकर फुदक जाती हैं। वह उस मुंडेर से परच जाती हैं। पर उसकी  सीमा बस वहीं तक होती है।
        कभी घर के अंदर नही आतीं। ठीक उसी तरह लता भी सुमित की गौरैया है। उसकी मुंडेर से परची हुई,,।सुबह शाम आती रहती दाना चुगनें।
     कभी-कभी ऐसा भी होता है,,मुंडेर का मालिक दाना नही रख पाता,,व्यस्ता के कारण,,फिर भी गौरैया आती है,,,,परची हुई है ना,,,,,,,,। सूखे पानी के पात्र,,और कुछ पहले के पड़े दानों पर अपनी चोंच पटक कर,,,,इधर-उधर कूद जाती है,,,,। थोड़ी मायूसी दिखती है उसकी चहक में,, बेचैनी दिखती है उसकी फुदकन में। पर गौरैया आती है फिर भी मुंडेर पर।
    
      सुमित की गौरैया भी आती रहेगी उसके घर की मुंडेर पर,,,,,,। इन्ही ख्यालों मे खोई लता की आंखे छलक उठीं,,,,। कैसा अनुराग है यह,,,? जानती है कि कभी चाहकर भी मुंडेर लांघ कर अंदर नही आ सकती,,,पर एक आसक्ति है,,दोनों के बीच एक अदृश्य सा बंधन है,,,। इस बंधन में कसाव नही है,,किनारों का बंधन ही सही,, पर नदी सा बहाव है।
       तभी दरवाज़े की घंटी बजती है,,,,सुमित की मुंडेर से उसे उड़ना पड़ा ,,, और गौरैया का रूप तज लता दरवाज़ा खोलती है। बेटा खेल कर आ गया है,,,। लता जुट जाती है,,अपने कामों में,,,। जीवन का यथार्थ सुमित की मुंडेर से उसके घर के भीतर तक कभी नही ले जाएगा लता को। इस दर्द की टीस के साथ ही जीना है,,,।
      सुमित का 'मेरी प्यारी गौरैया' ! सम्बोधन एक मखमली सहलाहट सा सुकून दे जाता है। लता को कुछ पल फुदकने के लिए एक मुंडेर दे जाता है,,,,,,,,,।


*******समाप्त********

रविवार, 4 फ़रवरी 2018

संदल की महक है तुम्हारा प्यार,,,


                      (चित्राभार इन्टरनेट)

संदल की महक है
तुम्हारा प्यार,,
घुल हवाओं में
सांसों को करता
है बेकरार,,,

शबनम की नमीं सा
भीगा-भीगा है,
तुम्हारा एहसास,,
इक मीठी सी
तड़प देकर
बढ़ाता है प्यास,,,

आवारा हवाओं सी
अल्हड़ है,
तुम्हारी याद,,,,
बिखरा देती है
मेरी ज़ुल्फों को
करती है बेताब,,,

बेखुदी तुम्हारे
इश्क की,
करने लगी है
हदें पार,,,
तुम्हारी ही इक
धुन लगी,
नही याद मुझे, अब
महीना, दिन,साल,,,,,,❤


सुनो सजना❤

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

 ❤पिया परदेसी के आने  की खबर सुन उत्साहित प्रियतमा की प्रीतभरी अनुनय झुमका,चूड़ी,बिंदिया लाने की,,,❤


सुनो सजना!!
आओगे जब
तुम मेरे पास,
आना लेकर 
सामान कुछ
 ख़ास,,

झुमके लेना
इक जोड़ी
अपनी पसंद 
के चुनकर,,,
होंठो की छुवन
उसकी बनावट में
बुनकर,,,
पहनूँगीं बड़े 
प्रेम से,
लरजाते हुए,
चुमेगें मेरे गाल वो
टकराते हुए,,

लाना चूड़ियां हरी
तुम्हारी बातों सी
खनकती,,
तन्हाइयों में मुझसे,
वो करेगीं बातें
बहकती,,


मत भूलना 
लाना बिन्दिया 
सुर्ख लाल,
माथे पर 
सजाए रखूँगीं
सदा मेरी प्रीत 
का गुलाल,,

छोड़ जाना 
एक कमीज़ अपनी
मेरे पास,,
भरा हो जिसमें तुम्हारी
देह गंध का एहसास,,
भर बाहों में उसे 
दमभर लूँगी निःश्वास,
समझूगीं तुम यहीं हो,,,,
मेरे आस-पास,,,

तुम्हारे आने की
खबर से है मन बावरा
हुआ,,
पर सोच तुम्हारे जाने का,
दिल है धुआँ-धुआँ,,

रक्खूँगीं सजों 
कर तुम्हारी हर
सौगात,,
यादों के पिटारे में,
मेरे प्यार भरे
एहसास

https://youtu.be/r6hi4ma688A

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

मेरे आत्मअंश,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

तुम
मात्र आभास
नही हो,,,
पर तुम
मेरे पास
भी नही हो,,,

कैसे तुम्हे
बखानूँ,,?
तुम शब्दों
से परे,,,
मात्र अनुभूतियों
का उच्छावास
नही हो,,,,

तुम
निराकार
भी नही हो,,
तो,साकार
भी नही हो,,,

मैं खींचती
हूँ तुम्हारा
आकार
अपनी परिकल्पनाओं
की तूलिका से,,
भरती हूँ रंग
अपनी प्रेमाकुल
अभिव्यक्तियों से,,
फिर कैसे कहूँ,,
कि,,,,,,,
तुम साकार
नही हो,,,?

तुम जगमगता
एक प्रकाश-पुंज,,!
मेरी आत्मखोह
के गर्भ में,,,
मेरे भौतिक
स्पर्श से परे,,
पर,,,मेरा आत्म
स्पर्शित तुमसे,,,,,

तुम
मेरे आत्म-संगी
मेरा अर्द्धांश
मैं विकसित कर
रही 'स्व' को
तुमसे एकाकार
होने को,,,,

हे चैतन्य!!
मेरी चेतना संग
वास करो,,,
तुममे सर्वस्य
स्वाहः करो,,
प्रेम कुंड की
हवन अग्नि में
तुम संग
आत्मसात करो,,,,
परमात्म से
साक्षात् करो,,,,

मै और तुम,,,,

                           (चित्राभार इन्टरनेट)

नीलाभ का
विस्तृत विस्तार
और तुम,,,,

जुग सहस्त्र
योजन पर
दमकता सूर्य
और तुम,,,,,

अदृश्य
प्रवाहित मंद,
कभी प्रचंड ब्यार
और तुम,,,

चन्द्र की षोडशी
कलाओं से निखरता
रात्रि का ललाट
और तुम,,,,

नित्य घटित
खगोलिय अलौकिकताएं
और तुम,,,,,

करना होगा
आत्म का इतना
विकास,,,
तब होगें एकसार
मै,,,,
और
तुम,,,,,,😊