(चित्राभार इन्टरनेट)
अब डाल-डाल फुदकने का जी नही करता,,,। मेरी चंचल उड़ान को गाम्भीर्य की ठौर रास आने लगी है,,,। देखती हूँ अपनी बालकनी से पंक्षियों के जोड़े को,,,किसी शाख पर बैठे हुए,,,,,तो मन भर उठता है।
जाती ठंड जैसे फिर पलट कर आ गई है। हवाएं तेज़ और एक बर्फीली छुअन लिए हैं। कानों में तोतों के झुंड की आवाज़ घुल रही है,,,कभी शान्त तो कभी एकदम से बोल उठते हैं,,,।अक्सर बिजली के तार पर ना जाने कहाँ से उड़कर आ बैठ जाते हैं और आपस में संवाद करते हैं। ऐसा लगता है मानों तोता परिवार की किसी गम्भीर मुद्दे पर सलाह मशवरा चल रहा हो।
बुलबुल जैसे पुचकार के अपने साथी से पूछ रहा-" कह ओ गुइयां चलिहे उह पार,,?" और उसकी संगिनी ने नकारते हुए कहा हो-" बइठो ना बलम दो घड़ी पास बड़ा भावे मोहें तुम,ये सुबह,और ठंडी हवाओं का साथ,,,,।"
वो हल्की सी धूप में गौरैया,,,,अपने परों को फूला कर किसी रुई के फाए सी गोल-मटोल होकर बैठी है,,,,। शरीर की गरमाहट से आराम पा कर उसी पलके मुंद रही हैं,,,,। उसके छोटे से चेहरे पर एक सुकूनी आभा है,,,पर एक आहट से चौंक कर पलकें खुलती भी हैं तीव्रता से,,,,।
एक पूरा दल सतबहनियों का,,,,,कितना शोर मचाता हुआ,,,,उफ्फ,,!! जैसे कक्षा में टीचर के ना आने से पूर्व सारे बच्चे अपनी धुन में चिल्लाते हुए,,,कोई इधर दौड़ता हुआ,,तो कोई पीछे की बेंच पर अपने प्रिय दोस्त के साथ बतियाता हुआ,,,कोई बेवजह ही झगड़ता हुआ,,,तो कोई उकसाता हुआ,,,। मिट्टी में दंगल लड़ता हुआ सतबहनियों का दल,,, पीली चोंच और गुस्सैल आँखों वाले,,ये पछी कितने लड़ाका से दिखते हैं शक्ल से,,,,।
सब कहते हैं,,सतबहनियों का दल एक साथ रहता है,,एक मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति स्वरूप मैं इनके दल को देखते ही पहले गिनती करती हूँ,,,। अक्सर सात पाया,,कभी कभी संख्या अधिक भी लगी,,,हो सकता है दो दल एक साथ हों,,,,,। मेरी माँ इन सतबहनियों के दल की चांय-चांय सुनकर खुश नही होती थीं,,,। इन्हे देखते ही बोलती थी,,"उड़ाओ इनको,,,नही तो आज झगड़ा होगा तुम्हारे बाबा से"। कैसी-कैसी किवदंतियां!!!!!
मैना चिड़िया,, बड़ी मुस्तैदी से सड़कों पर टहलती हुइ सब तरफ गरदन घुमा कर जैसे निरीक्षण कर रही हों,,। इसको देखते ही अपने स्कूल के दिनों की एक कहावत दिमाग में दस्तक देने लगती है,,,,। शायद बहुत से लोग मेरी तरह इस तथ्य पर विश्वास करते हों,,,,! अंग्रेज़ी की कहावत,,,, "वन फाॅर साॅरो,,, टू फाॅर जाॅय,,, थ्री फाॅर लेटर,,,,,फोर फाॅर बाॅय,,,,,,।" पता नही कितना सत्य है,,,।
अपने हाॅस्टल के दिनों में,,,,'मैना' चिड़िया पर बनी कहावती संख्या पर एक विचित्र सा आलम्बन था,,,।
हाॅस्टल से यूनिवर्सिटी जाते समय यदि एक मैना दिखी तो मन वहीं से उदास हो जाता था,,,,और दूजे पल दूसरी मैना की तलाश निगाहें करने लगती थीं,,,। तीन मैना दिखीं तो एक अनजानी सी खुशी होती थी,,,,शायद मेरी स्कूल की सहेली गुंजन का या नेहा का पत्र आएगा,,,,। चार मैना कभी नही दिखीं😃😃😃😃😃 ।
ये मैं कहाँ अतीत में पहुँच गई,,,! वापस आती हूँ,,,मयूर बहुत हैं यहाँ,,,कल बैठी थी बाल्कनी में तो एक मेरे बगल वाले घर के छज्जे पर आकर बैठा,,,,,,। मैं भी बिना कोई हरकत या आवाज़ के बैठ उसको निहारने लगी,,,,,। कितना सुन्दर होता है यह पक्षी,,,,गरदन की गहरा नीला रंग,,,,कभी नीला तो कभी हरा दिखता है,,,सर पर कलगी क्यों बनाई होगी ईश्वर ने,,,,??? यह प्रश्न भी आया,,। फिर लगा होगा कुछ कारण ,,,।
मयूर के लिए उड़ना बहुत परिश्रम साध्य होता है,,,कल महसूस किया,,,। छज्जे से छत तक उड़ने से पहले उसे खुद को बहुत तैयार करना पड़ता है,,,। मैने ग़ौर किया कि मयूर कई बार छज्जे से छत तक की दूरी का आंकलन कर रहा था। फिर उसने अपने बड़े और अन्य पक्षियों की अपेक्षा भारी शरीर को एक 'क्ग' की ध्वनि के साथ उड़ाया,,,ठीक वैसे ही जैसे,,हमारा भारी शरीर जब बैठा होता है,,और उठते वक्त ,,'उऊम्ह' की आवाज़ करते हुए अपने घुटनों पर हाथ टिका खड़ा होता है।
मयूर का चटखीले रंगों का मखमली सुन्दर शरीर और उसके पंख उसे मोरनी से अधिक आकर्षक बनाते हैं,,और मोरनियों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है,,,पर मैने एकबार मोरनी को बहुत करीब से देखा,,,उसकी सफेद और भूरे परों वाले शरीर और गरदन पर गाढ़े हरे रंग के चमकीले पंख जो कि,,एक अलग रंगत बिखरते हैं,,,जो बहुत सौम्य सी होती है,,भड़कीली नही। मोरनी की आंखें बहुत खूबसूरत होती हैं,,,,जैसे किसी श्रृंगार काव्य की मुग्धा नायिका के कजरारे नयन!!!! मोर की कलगी की अपेक्षा मुझे मोरनी की कलगी अधिक सुंदर लगी ।मोरनी का सौन्दर्य वर्णन सहानुभूति परक नही था,,,गौर से देखी गई स्वाभाविक प्रतिक्रया के वशीभूत निकला।
नीचे के घरों के बागीचों में लगी 'झाड़ियों की बाड़' और उसकी घनी झाड़ में अचानक से फुदकती दिखती हैं,,,छोटी-छोटी 'टेल बर्ड' और 'हम्मिंग बर्ड' कितनी फुर्तीली,,,,,,!!!!!! और लगातार चूँईं चूईं करती हुई,,,,। इनकी बोली के ताल पर इनकी उपर की तरफ उठी हुई पूँछ,, क्या खूब थिरकती है,,,,,!!! पल में इधर फुदकी पल में उधर,,,,,, और मुंडी तो घुटुर घुटुर हिलती ही रहती है,,,,। बड़ा आनंद आता है झाड़ में चुहलबाज़ी करती हुई इन नन्ही चिड़ियों को देख।
जब इतने सारे पक्षियों के बारे में बात कर रही तो,,, 'सफेद उल्लूओं' को कैसे छोड़ दूँ,,,अक्सर गर्मियों की मध्यरात्रियों में मेरे घर के सामने खड़े दो ऊँचे पाम ट्री पर उल्लूओं का दल बहुत ज़ोर ज़ोर शोर मचाते हैं,,,कि अक्सर नींद टूट जाती है। कहते हैं लक्ष्मी जी के वाहन को यदि कोई देख ले तो धन लाभ होता है,,,,। एक दो बार ऐसा हुआ है कि इनकी आवाज़ सुन मैने भी 'उक्त कहनी' को जांचने के लिए,,,अपनी खिड़की से बाहर के तिमिर को चीर उल्लू की तरह आँखें फाड़ फाड़ कर सफेद उल्लूओं को देखने का प्रयास किया,,,,,पर दिखे नही कभी।
अब इसे अपनी उत्कंठा का फल कहूँ या क्या कहूँ पता नही,,? परन्तु एक दिन सुबह ऊपर की छत पर कपड़े सुखाने गई तो देखती हूँ के एक सफेद रंग के आकार में अच्छे खासे विराट 'उल्लू महाराज' छत की दीवार पर विराज मान थे,,,। मेरी प्रसन्नता अब मध्यरात्रि में चिल्लाते उल्लूओं सी शोर मचाने लगी। आश्चर्य का विषय था,,के दिन में उल्लू देव ने कैसे दर्शन दिए,,क्योंकि दिन में इस पक्षी को दिखता नही है,,। खैर मेरे पदचाप कि खसखसाहट को सुन उन्होने 180° तक गरदन घुमाकर मेरा इस्तकबाल किया,,पर टस्स से मस्स ना हुए अपनी जगह से। उस वर्ष पतिदेव को पदोन्नति सह वेतनवृद्धि अच्छी हुई,,,। खबर जब फोन पर मिली तो पहला वाक्य यही निकला,,, लक्ष्मी जी के वाहन का आशीष मिल ही गया।
मै लिखने कुछ और ही बैठी थी पर देख रही हूँ कि मैने कुछ और ही लिख डाला है,,,अतः शुरूवाती पंक्तियां आगे के वृत्तांत से मेल नही खा रही अब,,,। विचारों का प्रवाह स्वयं ही मुड़ता गया और टाइप होता गया। मैने भी धारा के प्रवाह से छेड़-छाड़ ना करते हुए उभरते विचारों को लिखते रहना उचित समझा,,, परन्तु मै उसी शुरूवाती मनोभाव की ओर पुनर्गमन करना चाहती हूँ,,,। चाहती हूँ,,किसी बुलबुली जोड़े सी एक बिजली के तार से आधार पर जाती ठंड की चुभन का एहसास पाना,,,,,,,,। चाहती हूँ,,,ठंड से खुद को बचाने के लिए रुई के फाए सी गौरैया की तरह गुनगुनी धूप में अलसाना,,,,,,। जीवन दंगल को अपने लड़ाका रूख से जीतती सतबहनी दलों की चांय-चांय के शोर को सुनना।
मेरी मन मैना किसी प्रचलित कहावत की पात्र नही बनना चाहती,,,वह तो अब नर्म हरी घास पर मुस्तैदी से टहलना चाहती है। मेरे मन का मयूर भी किसी कार्य को करने से पूर्व अपनी क्षमता और काम की दुरुहता का सटीक आंकलन कर अपनी उड़ान भरे,,,।
मै अपने मन के उपेक्षित कोने को भी मोरनी के उपेक्षित सौन्दर्य की तरह सराहना सीखूँ। जीवन की कोंचिली झाड़ियों में किसी हमिंग बर्ड या टेल बर्ड सी कुशलता से चहकती हुई निकल सकूँ।
दुर्लभ दर्शनीय सफेद उल्लुओं सी दबी अभिलाषाएं रोज़ ना सही एक बार तो साक्षात् दर्शन दे मुझे आनंदोल्लासित कर जाएं,,,और मैं उसी उल्लास के रस को एक ठौर पर बैठ पीती रहूँ।
सच में,,,,,,, अब मन पक्षी चंचलता की उड़ान तज गाम्भीर्य की एक सशक्त शाख पर बैठना चाहता है,,,,,,,,,,,
भावों को कलमबद्ध करते करते,,,,मन पक्षियों के बीच बैठ गया या मन बिच नाना भावों के पक्षी बैठ गए यह कह पाना मुश्किल लग रहा,,,,,,,,