रविवार, 30 जुलाई 2017

सूरजमुखी ,,

                      ( चित्र मेरे सुपुत्र गुल्लू जी की सौजन्य)

दिन की शुभकामनाओं के
साथ सूरजमुखी दे गए आप,,,
एक जलता हुआ आग का
गोला बना गए आप,,

ठीक ही तो किया खुद को मेरे
जलते वजूद से दूर कर लिया,
खुद को एक फूल बनाकर
जीवन सहज कर लिया,,

सूरज कहाँ रोता है?
वह तो बस जलता है,,
और जलता है,,,
आपको रोने का पूरा
अधिकार है,मेरी आग से
आपका क्या सरोकार है?

मेरी तरफ कर के रूख
दूर से ही खुद को सेंकते रहिए,,
रोज़ नई उम्मीदी कली के
साथ खुद को सींचते रहिए,,

आज सूरज की बेबसी को
समझा है मैने खूब,,
जलन ना हुई शांत कई बार
समन्दर मे वह चुका डूब,,

मै खुश हूँ खुद के अस्तित्व
रूपी सूरज को जलाकर,,
दम रखती हूँ कई सूरजमुखियों
को नित नई ऊर्जा से दमकाकर,


बहा दो चाहे जितने मेरी बेवफाई
के काव्यमयी सागर,
सुखा कर तुम्हारे आंसूओं को
मै ही बनाऊँगी नए बादल,,

बरसेगी मेरी ही प्रीत तुमपर
 सावनी घटा के साथ,,
खिलोगे तुम हरबार
एक नई अदा के साथ,,

मेरे प्यारे सूरजमुखी मै तो
बस तुम्हारे लिए ही जलूँ,,
तुम्हारी पीतवर्णी आभा
की प्रीत मे,मै रचूँ बसूँ ढलूँ,,

लिली

          🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

महीना-ए-अगस्त आने को है जनाब,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

महीना-ए-अगस्त
आने को है जनाब
उठने को है देशप्रेम
का सोया सैलाब।

               कोई व्हट्सऐप पर तिरंगे
                की डी पी लगाएगा,
               कोई फेसबुक पर देशभक्ति
                का परचम लहराएगा

आज़ादी का जश्न हर कोई ,
ऑनलाइन मनाएगा।
'आई लव माई इंडिया' का नारा
अपने भाग्य पर इठलाएगा।

                    माॅलों मे 70% सेल का धमाल
                    अखबारों को चमकाएगा,,
                    सेल का फायदा हर ज़िम्मेदार
                    भारतीय जी खोलकर उठाएगा।

ट्रैफिक लाइटों पर तिरंगों
की बिक्री होगी ज़ोरो पर,
हर रेडियो चैनल देशभक्ति
के कसौटी पर श्रोताओं
को कसता नज़र आएगा।

                15तारिख के बाद सारी देशभक्ति
                 रफूचक्कर हो जाएगी,
                 डीपियां फिर से अपनी वही
                 मदमाती अदा मे बदल जाएंगीं।

माॅलों मे लगे तिरंगी गुब्बारों
की हवा निकल चुकी होगी,
झालरों और स्लोगनों की
सजावट फटकर लटक चुकी होंगीं।

                     जहाँ-तहाँ सड़कों पर तिरंगे
                     पैरों के नीचे कुचल रहे होंगें,
                     रेडियों चैनल्स फिर से कुछ
                     फूहड़ गानों पर उछल रहे होंगें।

 देशभक्ति का जज़्बा 26 जनवरी
 तक के लिए फिर से सो जाएगा,
एक बार फिरआई लव माई इंडिया
का नारा धूम मचाएगा।

                           कितना आसान तो होता है देश के
                           प्रति दिखाना प्यार का परवान
                           फिर क्यों सरहदों पर पत्थर
                           खा रहे हैं हमारे जवान,,?

 इतना कुछ है लिखने को
 खौला रहा दिल मे उफान
 कह देने मात्र से नही रुकेगा
 मेरी विक्षिप्त भावों का तुफान,,

                    खैर आप सभी जश्ने आज़ादी
                    दिल खोल कर मनाइए
                    ऑनलाइन देशप्रेम के मैसेज
                    और डीपियों का सैलाब बहाइए।

शनिवार, 29 जुलाई 2017

एक भारत, श्रेष्ठ भारत

                          (चित्र इन्टरनेट से)
 दृढ़प्रतिज्ञ हों भारतवासी,
गौरव ना धूमिल करना है।
अखंड भारत का स्वप्नदीप,
मन मे प्रज्जवलित रखना है।

औरों का तुम दोष ना बाँचों,
निज अवगुण को तजना है।
सोच को अपनी पहले बदलो,
तभी देशहित उपवन सजना है।

कर्तव्यों का ज्ञान कराए कोई?
यह तो अंतर चेतन अपना है।
अधिकारों का बात करो,पहले,
निज कर्मों का बोध समझना है।

व्यक्ति,व्यक्ति मिल परिवार बने,
देश इसी तंत्र की विस्तृत रचना है।
क्यों आस लगाए बैठे हमसब के,
सब 'सरकारी' की ही संरचना है।

एक हो भारत श्रेष्ठ हो भारत!
कितनी न्यारी परिकल्पना है।
देशप्रेम की अलख जगा लो,
सब विद्रुपताओं को तजना है।

भारत माँ को नमन !!!

(चित्र इन्टरनेट से)

सतरंगी चुनर माँ तेरी
अनेक्य मे एका सी
आभा लहराई है।

गर्विले इतिहासी 
आभूषण ने माँ 
तेरी शान बढ़ाई है।

अमृत सी तेरी वाणी 
मे असंख्य भाषाई
त्रिवेणियां बलखाई हैं।

माँ तेरे माथे की
बिन्दियां ज्ञान सूर्य 
बन,जग चमकाई है।

पग को धोता हिन्द
है द्योतक यहाँ
वेद-योग की गहराई है।

वीर सपूतों की तू
जननी, बैरी को
धूल चटाई है।

साहित्य-कला का 
दर्पण है मुख
संस्कृति विश्व सराही है।

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

मन्नो,,,,,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

लघुकथा

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  मन्नों



अक्सर छोटी-छोटी गलतियों पर माँ जली-कटी सुनाती थी,,,,, अरे जन्मजली! पैदा होते ही मर जात तो अच्छा होत,,।
भाग फूट गए हमार जे दिन तू हमार कोख से जन्म लिए रही ,,,। जेकरे घरे जाई ऊ घर के हो नरक बना देई,,! बहुतही दुख है तोरे कपाल मा,,!!
बोलते बोलते हाथ मे जो होता उसी से बड़ी निर्ममता से पीट देती थी मन्नों को ।
      और मन्नों दिल मे चीत्कार लिए बस आंसूओं की धार लिए पीटती रहती थी,,,और कड़ुवे वचनों का जहर जहन मे उतारती रहती थी।
        ज़हर के इन कड़ुवें घूंटों ने उसे अंदर से एकदम चकना चूर कर दिया था,,उम्र ही क्या थी उसकी यही कोई 14-15 साल,,। कई बार उसका जी करता की घर से भाग जाए,,या गांव के कुएं मे कूदकर अपनी जान दे दे। पर अपने परिवार की बदनामी का भय उसके पांवों लगाम दे जाता था।
           एक दिन पड़ोस की चाची गांव के बुधई कुम्हार की बेटी की बात बताने लगी,,उसकी बेटी धनिया के साथ हुए कुकर्म, से अपना आत्मसंतुलन खो धनिया ने खुद पर मिट्टी का तेल छिंड़क आत्मदाह करने का असफल प्रयास किया,,,। वह मरी तो नही,,,बुरी तरह जल गई,,,और अब जले हुए घावों के जख्मों ने उसे जीते जी मार तो दिया है,,,पर वह जीवित है।
               चाची की कहानी पर माँ की वैसी ही उलाहना भरी टिप्पणी,,,," लड़कियन की जान बड़ी सखत होवे है,, इतनी जल्दी नाही मरत ये,,भगवान ना जाने का खाए के इनकेर बानाए रहे,,। जो मर जात ,तबहीं  अच्छा रहत,,जिन्दगी भर का लिए मूँग दली बाप-महतारी के छाती पर,,,!"
          धीरे-धीरे मन्नों ने इन आत्मघाती उलाहनाओं के साथ जीना सीख लिया था।क्योंकी 'धनिया की पर गिरी गाज़, पर उसके माँ की टिप्पणी ने उसके मन मे घर कर लिया था,,। उसको लगने लगा - यदि उसका भी कोई प्रयास असफल रहा तो,,,,?????
          मन्नों ने इन झिड़कियों और कड़ुवी उलाहनाओं को अपना दैनिक आहार बना लिया,,अब वह ढींठ हो चुकी थी,,कभी-कभी उसे वही एक तरीकी बातें सुन हंसीं आ जाती थी,,।
माँ उस पर और खिसिया जाती,,,,, "देखा हो भूरे (भाई) के पापा,,कैसन निरलज होय गई है तोहार दुलारी,,,जाए देयो ससुराल,,,
सास के जब लाठी पड़ी तब भाग के आई हमरे द्वारे,,,,। पर सुन ले कान खोल कर हम नही घुसे देब अपने घर मा,,,। ईसवर जाने कब इस कुलक्षनी से हमार जान छुटी,,,।"
        मन्नों का दर्द सपने सजाना सीख गया था। शायद इसीलिए उसे अब उतनी तकलीफ नही होती थी।
          हमारे समाज मे ऐसी मन्नों की भरमार आज भी है,,,भले ही हम आधुनिकता का तथाकथित आवरण अपने समाज को पहनाने का दावा करते हों।
         एक औरत ही औरत की शत्रु है?,,,या मन्नों की माँ बचपन से ही उसे नारी जीवन की सत्यताओं का आभास कराने का प्रयास कर रही थी,,?? जितने भी दमघोंटू परिवेश मे जीवन पटक दे,,, हम औरते जी लेती हैं,,,मुस्कुरा लेती हैं,,,,,सपनों की दुनिया के आवरण मे अपना यथार्थ छुपा लेती हैं।

                *समाप्त**

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

यें हैं इशिता 😘

                           ❤इशिता रानी
                                 बड़ी सयानी❤


दिखती है भोली
बंदूक की गोली
      मासी भी डरती
      पा गुन्नू की झिड़की
जारी है फरमान
मैने पकड़े हैं कान
     लिखनी है कविता
     गुन्नू जी की सहिंता
बुद्धि की चटख
बातों से दे पटख
     चरखी सी डोले
     एक सांस मे बोले
कल्पना है अद्भुत
हैरत से करे बुत
        ड्रांइग करे सुहानी
         हर चित्र एक कहानी
तकनीकी उस्ताद
सब देते हैं दाद
         सब की प्यारी
          इशिता हमारी

नन्ही परी त्वरा😘

                        ❤नन्ही परी त्वरा
                       पुलक उठी धरा❤

नन्ही सी त्वरा
थिरकता अंतरा
      छोटी सी चिड़िया
      खुशियों की पुड़िया
सुकोमल अनुभूति
ईशाषीश का मोती
      देवी का रूप
       करे अविभूत
स्नेहिल आशीष
गर्वित करे शीर्ष।

प्यारी सी बूबू❤

                     ❤  इशिता दृशानी प्यारी बहने
                        मीठी मुस्कान दोनो के गहने❤

छोटी सी बूबू
करती है घूंघू
      आंखों मे तारे
      लगे बड़े प्यारे
देती है पप्पी
जादू की झप्पी
        दादी की पोती
         छोटू सा मोती
गुन्नु है दीदी
बिल्कुल ना सीधी
          मम्मी की कुटकुट
          पापा की चुटचुट
बुआ की बोगेश
मीठा सा शन्देश
         प्यारी सी बूबू
          करती है घूंघू।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

प्यारी सी माही❤

                           मिलिए नटखट 'माही' से❤
                           खुशियों भरी सुराही  से

               ***बालकविता**


छोटी सी एक गुड़िया है,
चटख चुटिली चुटपुटिया है।
बातों का      भंडार समेटे,
प्यारी सी माही बिटिया है।

नटखट झट झट भागे ये
खोले    दिमागी धागे ये।
समझो ना इसको भोली रे,
है शैतानी    की झोली रे।

पिज़्जा    इनको भाए है
बड़ी      लगन से खाए है।
बाकी कुछ ना अच्छा लगता
मम्मी को खूब   छकाए है ।

भइया के संग खेले भी
करे लड़ाई   ठेले  भी।
पापा की ये  रनिया है
सबकी प्यारी मुनिया है।

गीत मिलन के गाती हूँ,,

                                (चित्र इन्टरनेट से)

मै गीत मिलन के
गाती हूँ
अन्तस से तुमको
ध्याती हूँ
हे देव मेरे मन
मन्दिर के
मै प्रीत का दीप
जलाती हूँ।

अब मन बगिया मे
बसते तुम
रजनीगंधा से
महके तुम
मै गंध मे सुध-बुध
खोती हूँ
मदमस्त उसी
मे रहती हूँ।

जब से तुम जीवन
आधार बने
बहती नदिया की
धार बने
मै नइय्या तुम
पतवार बने
मै तुम संग बहती
रहती हूँ।

मनमीत की मै
मनुहार बनूँ
कहो कब तुमसे
अभिसार करूँ
श्रृंगार करे मै
बैठी हूँ
लोक-लाज तज
पैठी हूँ।

रविवार, 23 जुलाई 2017

ऐ टमाटर,,,😢

(चित्र इन्टरनेट से)

🍅🍅कभी हम तेरी चटनी बनाकर खाते थे😟🍅🍅🍅
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बाज़ारों मे टमाटरों🍅 की क़ीमत ने मेरी रचना मे भी अपनी एक अहमियत बना ली है। अब किसी विषय पर कोई वज़नदार बात कहनी होती है तो मै मिसाल के तौर पर 'टमाटर' को उपयोग करने की जी तोड़ कोशिश करती हूँ,,,,। क्या करूँ व्यंजनों में ना सही रचनाओं मे ही कर लूँ। टमाटरों के बढ़ते भाव ने हमारी औकात को ठेंगा दिखाना शुरू कर दिया है।
        कभी अकेले मे टमाटर से रू-ब-रू हो जाऊँ तो किसी छोटे बच्चे की तरह 'टमाटर' मुझे जीभ निकाल कर,, नाक के उपर अंगूठा टिका,,अपनी हथेलियों को हथपंखें सा हिला कर ,,, टी-ली-ली-ली-ली कर के चिढ़ाता है।
      इसलिए आजकल जब फ्रिज से टमाटर निकालना होता है तो,,,ना तो मै उससे नज़रे चार करती हूँ,,ना ही जी भर के हुस्ने दीदार करती हूँ। बड़े आदर के साथ दो की जगह एक ही निकालती हूँ और सब्जी में डाल कर अपने नसीब पर ग़ुमान करती हूँ।
         किसी नारी के माथे पर लगी बड़ी लाल बिन्दिया को अब 'ब्रह्मांण का सूर्य' नही 'सूर्ख लाल गोल टमाटर' की उपमा से सम्मान करती हूँ।
          अब किसी सुन्दरी को फेसबुकी डी पी मे लाल परिधान मे दमक मारती देख मै 'रेड हाॅट ब्यूटी' जैसी  सामान्य टिप्पणी नही,, क्या 'लाल टमाटर सी चमक रही हो,,!!!!!'  जैसी बहुमूल्य टिप्पणी देती हूँ। अपनी लाल परिधान वाली फोटो को डी पी बनाने का एकमात्र उद्देश्य 'टमाटर जी' के प्रति अपनी श्रद्धा,निष्ठा और आदर व्यक्त करना है।
      बदकिस्मती से 'सड़े गए टमाटर' को कूड़ेदान मे फेंकने से पहले मै काटकर, सूंघकर,अलट-पलट कर अच्छे से निरीक्षण कर लेती हूँ,,,,,,,, शायद कहीं से ,,,, अच्छा निकल जाए,,,।
  आज टमाटरों के बढ़ते भाव मुझे भावुक कर रहे हैं,,,😢 अपनी व्यथा कि अभिव्यक्ति में 'कविगुरू रविन्द्रनाथ टैगोर जी ' की रचना गाने लगा मन,,,,,,,
हाय रे,, हाय रे
बैथाए कॅथा
जाय डूबे जाय,,
जाय रे,,,,,,,,,,,,,!'😩😩
(दर्द के दर्दमयी सागर मे मेरी बातें डूबती जा रही ,,,,)

हाय रे टमाटर !!!!!!🍅

मनमीत,

(चित्र इन्टरनेट से)

                      मै रंग बनूँ तुम नीर
                   घुल कर एक दूजे संग
                हम बिसरावें पीर

                           मै शब्द बनूँ तुम गीत
                       ताल बिठा एक दूजे संग
                    हम बन जावें संगीत

                   मै दिया बनूँ तुम बाती
                          जलकर एक दूजे संग
                                     हम चमकाएं राती

           मै मोती बनूँ तुम धागा
                बिथकर एक दूजे संग
                       हम गुथ जाएं माला

     मै प्रीत बनूँ तुम रीत
              प्रेम सिन्धु मे बहकर
                     हम बन जाएं मनमीत

स्वरचित*
लिली😊

शनिवार, 22 जुलाई 2017

सफर मे हमसफर की तलाश,,,

                       (चित्र इन्टरनेट से)
 *******लघुकथा****

'नवोदित यौवन' उम्र का एक अद्भुत एहसास,,,एक छोटे मेमने सा जो कौतुहलवश इधर-उधर बौराया सा कूलाचें भरता रहता है। मन मे उठती हैं कितनी नवयौवनी तंरगें,,हर तरफ एक तलाश लिए,,। कुछ ऐसी ही मेमने सी कौतूहली कूलाचें उठती थीं साक्षी के मन में।


 बी ए प्रथम वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे प्रवेश पाया। पिता रेलवे कर्मचारी मिर्ज़ापुर के पास चुनार रेलवे स्टेशन पर ,स्टेशन अधीक्षक के पद पर कार्यरत।
      अतः पढ़ाई हेतु साक्षी को 'हास्टल' मे रहने पड़ा।परिवार से अलग, नए दोस्त, नया परिवेश,एक अद्भुत स्वतंत्र वातावरण की अनुभूति साक्षी को आनंदित कर रही थी। अक्सर छुट्टियों मे वह प्रयाग स्टेशन से चलने वाली पैसेन्जर ट्रेन से घर अकेले ही आ जाया करती थी।

अकेले ट्रेनयात्रा करना उसके लिए बड़ा रोमांचकारी होता था। जिसको वह पूरी शिद्दत से जीती थी।

        कुछ हल्के-फुल्के गुदगुदाते किस्से हो जाया करते थे। किसी चेहरे पर नज़र टिक जाती थी,,,या किसीकी नज़र उसके चहरे पर ठहर जाती थी।

होता कुछ भी ना था बस, कुछ चुलबुलाती हसरतें मचल जाती थी। नए-नवेले यौवन की मस्ती झलक जाती थी। गंतव्य स्टेशन के आते ही सारी मस्तियां, यादें बन आंखों मे बस जाती थीं।
      साक्षी इन किस्सों को बड़े उत्साह और व्यग्रता के साथ मन मे संजो कर रखती थी।हाॅस्टल लौट कर जब तक अपनी सखियों से इसकी चर्चा कर के चटपटे-चुटीले,,ठहाकों के साथ सुना  ना लेती,,तब तक उसकी वह रोमांचक यात्रा समाप्त नही होती थी।
     एक ऐसा ही साक्षी का सुनाया किस्सा पता नही कैसे जहन मे तरंगित हो उठा सोचा लिख लूँ ,,,,।

शायद दशहरे की छुट्टियां हुई थी,,,, ठीक से याद नही पर वह अपना बैग रात मे ,पैक कर सुबह सात बजे ही प्रयाग स्टेशन के लिए निकल पड़ी। महिला-छात्रावास से काफी करीब था पैदल जाया जा सकता था।
      अक्सर पैदल ही जाती थी साथ मे उसकी रूम मेट रोमा भी जाती थी। पैदल जाने का एक विशेष और नटखटी कारण होता था। सुबह-सुबह आस-पास के पुरूष-छात्रावास के लड़के 'लल्लाचुंगी' पर चाय पीने आते थे। चाय की चुसकियों के साथ 'नयनसुख' दोनो तरफ से भरपूर उठाया जाता था।
       शरारती खुसुर-फुसुर दोनो तरफ हुआ करती थी। ऐसा भी होता था कभी-कभी कोई मनचली टोली स्टेशन तक पीछे-पीछे चली चलती और ट्रेन तक बिठा आती। संवाद आपस मे ही होते थे पर इतना मद्धम की आगे चल रही बालाओं के कान तक पहुँच जाएं।
यदि युवतियां की खनकती हंसीं ,दबी सी आवाज़ मे निकल गई तो टोली की सुबह बन जाती थी।
       तो बस इसी तरह थोड़े दूर की यह चुलबुली यात्रा एक खलबली एक रोमांच के साथ समाप्त हो जाती।
   खैर साक्षी की गाड़ी आ गई वह रोमा को बाय बोलकर बैठ गई। ट्रेन पर बैठते ही एक सरसरी निगाह से टटोल लिया शायद को हमसफर मिल जाए इस दो,ढाई घंटे के सफर मे तो एक नया किस्सा मिल जाएगा अपनी सखियों संग चटखारे मार सुनाने को।
      चेहरे पर एक मासूमियत थी साक्षी के ,जो बरबस ही किसी को भी आकर्षित करने की क्षमता रखती थी। अपनी ही धुन मे मस्त साक्षी को एक आभास हुआ कि- उसकी सीट के सामने ही एक नवयुवक बड़ी देर से उसे निहारे जा रहा है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ही है शायद के जब कोई आपको ही देखता है एकटक निगाहों से तो मन भांप ही लेता है।
      साक्षी उस नवयुवक की उस अपलक निहार से थोड़ी असहज सी हो गई। उसने अपने बैग से 'इंडिया-टुडे' मैग्ज़ीन निकाली और पन्नों को बड़ी गम्भीर मुद्रा बना इधर-उधर पलटने लगी।
   इन भावों का प्रदर्शन मात्र एक दिखावा ही था।असल मे मन मे एक झनक सी उठ चुकी थी। चेहरे को किताब की आड़ में छुपा कर यह देखने का प्रयास की वह युवक उसे देख रहा है ,,या नही?।
       महाशय की नज़र तो मानों गीली मिट्टी में अन्दर तक खूँटे के भांति धंस गई थी। अब वे हल्की मदमाती मुस्कान भी देने लगे थे।
   नयनो का टकराना,लजाना,और झुक जाने तक का सफर तय कर लिया था इस सफर ने।साक्षी भी अभिभूत हो रही थी इन क्षणों की उल्लासी कोमलता से।
       पता नही कैसे और कब समय बितता गया,,अचानक से 'वह' अपनी सीट से उठ साक्षी की तरफ बढ़ा।
   उसके हर कदम के साथ साक्षी के दिल की धड़कन तेज़ होने लगी।उसको लगा कहीं कलेजा बाहर ही ना निकल आए। 'वह' बड़ी शालीनता से साक्षी के सामने रूका,,,मुस्कुराती आंखों से उसकी ओर देखते हुए बोला-' क्या मै आपकी यह मैग्ज़ीन ले सकता हूँ?" साक्षी का कलेजा गले पर आकर जैसे अटक चुका था, घबराहट से जैसे हाथ-पांव ठंडे हो गए थे।
      उसके मुहँ से निकला-'जी ज़रूर',इतना कहकर मैग्ज़ीन उस युवक की तरफ बढ़ा दी। एक मनभावनी मुस्कान के साथ वह किताब लेकर वापस अपनी सीट पर बैठ गया। साक्षी ने एक गहरी सांस छोड़ थोड़ा सामान्य होने के लिए ट्रेन की खिड़की से बाहर देखना शुरू कर दिया। जैसे किसी तुफान से बाहर आई हो।
       पर मन गुहार लगाने लगा,,,देखले जी भर के इस सफर के हमसफर को,,अभी तो मंज़िल आ जाएगी,,फिर तू कहां?? और वो कहां???
    साक्षी ने तुरन्त गरदन उसकी तरफ मोड़ ली,, वह कुछ लिख रहा था किताब पर। कुछ अटकलें,,कुछ कौतूहल फिर से कूदने लगा,,, "क्या लिख रहा होगा???"
       थोड़ी ही देर में वह अपना सामान उठा साक्षी की तरफ बढ़ने लगा,,शायद उसका स्टेशन आने वाला था। किताब साक्षी को पकड़ाई और एक अविस्मरणीय मुस्कुराहट के साथ बड़े विनम्र शब्दों में "धन्यवाद" बोलकर वह गेट की तरफ चल पड़ा। ट्रेन रूकी मिर्ज़ापुर स्टेशन पर और वह उतर गया।
      साक्षी ने सबसे पहले मैग्ज़ीन का वह पन्ना खोजा जहाँ,, वह कुछ लिख गया था। एक पृष्ठ खुला जिसपर बड़ी सुन्दर लिखावट के साथ एक फोन नम्बर(जो अब याद नही आ रहा) लिखा था-

 "आपके चेहरे की मासूमियत और मुस्कुराहट दोनों बहुत मुलायम हैं,,,,,,,इसे यूँ ही सजाएं रखिएगा। कभी मन करे तो फोन ज़रूर कीजिए गा,,,
                   समरेन्द्र"

कई बार इन मोतियों जड़ित भावों को पढ़ती रही साक्षी। मन ही मन आनंदित होती रही।पर उसने अपने भीतर की गुदगुदाहट को चेहरे पर आने से रोके रखा।
   चुनार स्टेशन तक का सफर इन्ही भावनाओं की लहरों मे बहते हुए कट गया। वह भी अपने गर चली गई। कई किस्सों मे एक यह भी किस्सा जुड़ गया।
    सहेलियों को खूब चटखारे लेकर कुछ मन गढ़तं संशोधनों के साथ यह किस्सा सुनाया गया।
 कई सालों तक साक्षी ने उस 'इन्डिया टुडे' को सहेज कर रखा। अक्सर निकाल कर एक मीठी मुस्कान के साथ वह संदेस पढ़ लेती थी। फोन नम्बर को भी बस देख लेती।
    शायद 'वह अजनबी' फोन का इन्तेज़ार करता रहा हो?

      अंत मे बस इतना ही,,,,,,, सफर मे एक हमसफर की तलाश सभी को है, जो मिल गया तो अच्छा,,जो नही मिला तो,,तलाश जारी है दोस्त,,,,,,

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

क्या गलत करती हूँ मै,,,,,,,,?

                              (चित्र इन्टरनेट से)

🌺मै परीकथाएं लिखती हूँ,क्योंकि जीवन का 15% यथार्थ, 85%कल्पनाओं की परीकथा से ही संवरता है,,और मुझे अपना यथार्थ भी परीकथाओं सा स्वप्निल चाहिए🌺


कहीं किसी ने कहा मेरी रचनाओं को पढ़कर-"खूब परी-कथाएं लिखिए" !!
तब से सोचती हूँ हर रोज़,,



क्या गलत करती हूँ जो,
हर तरफ लगी संम्प्रदायिकता की आग पर,
मै कुछ कोमल कल्पनाओं की
हल्की फुहार डाल,तपिश को 
कम करने की कोशिश करती हूँ???

क्या ग़लत करती हूँ जो,,
इस प्रतियोगिता के दौर मे,अपने साथी
को ही पीछे छोड़ने की होड़ में,
मै कुछ मधुर-मिलन की चांदनी रात्रि
की ज्योत्सना बिखरने की कोशिश करती हूँ,,,,??

क्या गलत करती हूँ जो बिना बारिश
के फटती ज़मीन के दर्द को, सावनी
कजरी से पाटने की कोशिश करती हूँ,,???

क्या गलत करती हूँ जो बारिश मे डह
गई गरीब की झोपड़ी के अवशेषों को
स्वप्न महलों की नींव से गढ़ती हूँ,,,??

क्या गलत करती हूँ जो धर्म के नाम पर,
इंसानियत को काटने वाले खंजर 
के जख्मों को प्रेमगीत के मोर पंखों से
सहलाने की कोशिश करती हूँ,,,??

क्या गलत करती हूँ जो नारी मन 
को रौंदकर गुजरते क्रूर सामाजिक 
अश्वारोहियों की दमघोटूँ धूल से बचने 
के लिए, नारी स्वाभिमान का 
सांस लेता आसमान देखने की कोशिश
करती हूँ,,,????

आप ही बताइए,हर तरफ फैली विद्रुपताओं,
कुप्रथाओं,जटिलताओं से कुछ पल के लिए राहत देती,अन्तर्मनी बातों की परीकथाएं 
लिखने की कोशिश करती हूँ, तो मैं, 
क्या गलत करती हूँ,,????


बुधवार, 19 जुलाई 2017

मन की कोठरी

                          (चित्र इन्टरनेट से)

          *एक पल की छोटी कहानी *


बारिश मद्धम् हो चुकी है। चाय का कप लिए नलिनी अपनी बैठक के बारामदे के स्लाइडिंग डोर को खोलकर जमीन पर बैठ गई है।
    सुबह का यह वक्त बेहद नीजि पल होता है नलिनी का,,,।बच्चे स्कूल जा चुके होते हैं । पतिदेव सो रहे होते हैं। कोई आवाज़ नही ,कोई बाधा नही।नलिनी अक्सर इस समय मोबाइल मे पोस्ट देखती है,,या फिर अपने मन के भावों को अपने ब्लाॅग पर उतार देती है। आज कुछ करने मन नही कर रहा उसका। रात से लाइट नही  आरही,, वाई फाई नही चल रहा और मोबाइल का डेटा खत्म होने की कगार पर है। इसलिए आज सब बंद कर के वह तेज़ बारिश मे भीगे पेड़ों को देख रही है।
      कनेर के पेड़ों की शाखाएं जैसे बूँदों के बोझ से नीचे की तरफ झुक गई हैं। हल्की फुहार ,चिड़ियों की चहक, चाय की चुस्की और ठंड़ी हवा का झोंका नलिनी को अपनी आगोश मे लेता जा रहा है।
      सबकुछ तो है उसके पास कोई कमी नही,, फिर भी मन का कोई एक कोना है जो बंद कोठरी सा है। जब वह कभी अपने साथ इस कदर खोई होती है,तो अक्सर इस कोठरी मे चली जाती है। बहुत सी अभिलाषाएं,इच्छाएं,कल्पनाएं यहाँ छुपाकर रखी हुई हैं नलिनी ने। एक-एक को उठाकर देखती है। मुस्कुराती है,उन पर बड़े अनकहे भावों के साथ हाथ फेर भावुक हो जाती है। फिर जल्दी से खुद को सम्भालते हुए दूसरी तरफ बढ़ जाती है।
     भूत के अवशेष,वर्तमान की आशाएं, और भविष्य की कल्पनाएं सब टटोल डाली आज। एक दबी सी चाहत है जिसपर कल्पनाओं की जबरदस्त धूल है,,उसे नलिनी झाड़ना नही चाहती,,क्योंकी धूल के हटते ही एक साफ-सुथरा यथार्थ सामने खड़ा हो जाएगा। जिसको जानते हुए भी मन स्वीकार करने से आनाकानी करता है।
     बस देखकर उसे वापस रख दिया उसकी जगह पर,,नलिनी की आत्मा बसती है इस चाहत में। कोठरी से निकलने से पहले वह अपनी आत्मा को आलिंगन करके झटके से बाहर आ जाती है।
         किवाड़ बंद कर के वापस खुद को चाय के कप के साथ, बरामदें से बाहर देखता हुआ पाती है। अरे चाय कब खत्म हो गई !!!!! पता ही न चला। इतनी देर मे पतिदेव ने बेड- टी की गुहार लगा दी है।
     जल्दी से खुद को समेट नलिनी किचन मे जाकर चाय बनाने लगी। मन की वो कोठरी अब रोज़मर्रा की चहल-पहल मे गुम हो गई।
        क्या ऐसी 'कोठरी' केवल नलिनी के मन मे ही है? कभी बैठिए खुद के साथ चाय का कप लेकर,,और उतरिए अपने मन के आंगन में,,,,आपके अंदर भी शायद ऐसी कोई कोठरी हो,,,,,,,,,,,!!!
शुभदिन
शुभदिवस🌼

शनिवार, 15 जुलाई 2017

कुछ यूँ ही,,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

जाने लगे जब वो परदेस
हमने कहा-'कुछ रख जाओ
हमारे लिए प्यार भरा संदेस',,,,

वो बोले-'प्यार भरा क्या होता है?
प्यार तो तुमसे ही शुरू,
तुममे ही खोता है,,,,

हमने कुछ यूँ कहा-

'कुछ बोल जो सहलाएगें
कुछ एहसास जो महकाएगें
रोज़ तो यूँ ना मिल पाएगें हम
उन तन्हा लम्हों मे काम आएगें'

वो अपनी तस्वीर दे गए हैं
उन तन्हा लम्हों की तकदीर दे

मोहे सावन न भाए (कजरी)

(चित्र सभार इन्टरनेट)


अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे
चूड़ी ना भाए कजरा ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे

बदरा से कहि देओ
ऐसे ना बरसें
मन मोरा झुलस
जाए रे
कोयलिया से कहि देओ
ऐसे ना कूकें
सजन मिलन की
हूँक उठी जाए रे

 अबके बसर मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे


झूलन से कहि देओ
ऐसे ना झूलें
सजन की बाहों
के याद दिराए रे
महेंदी से कहि देओ
ऐसा ना महके
पिय के देह गंध
को तरसाए रे

अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे

चूड़ियन से कहि देओ
ऐसे ना खनके
उनकी बतियन के
खनक याद आऐ रे
चुनर धनी से कही देओ
ऐसे ना लहरे
मन पिय के देस
उड़ी जाए रे

अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे!

लिली मित्रा

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

यह कैसा प्रश्नशील प्रभात,,????

                          (चित्र साभार इन्टरनेट)

कोई कल्पना साकार नही आकार ले रही है। अदृश्य प्रकट नही लोप हो रहा है। कोई कविता विधाओं से परे लयबद्ध गढ़ रही है। यह क्या हो रहा है,???? साहित्य का सृजन हो रहा है? या विज्ञान का मर्दन हो रहा है?
     कोई विशेष से अशेष हो रहा है,विस्तृत से व्यापक हो रहा है। नयन झरने का उद्देश्य शोक है या आनंद? मन की क्लांती अशांति का द्योतक है या शांति का? दृष्टि का केन्द्र शून्य है या शून्य का परिवेश?
      मन किधर का रूख कर रहा है ,,इतने प्रश्न?????? कौन सा गूढ़ सत्य प्रकट होने को है? विकट है या सूक्ष्म?? सूक्ष्म के लिए इतने उद्गार,,? ना,,अवश्य ही कुछ विराट है जो सामान्य से परे,,असामान्य से मुक्त है।
        इन्द्रियां सुप्त हैं या जागृत? मन अधीर है या धैर्यशील? प्रभात का सूर्य प्रश्नों की घनी बदलियों मे छुपा है,,,दिनमान का आभास तो है पर विश्वास कहीं संदिग्ध है। हवा है तो, श्वास का आवागमन भी है,, पर शरीर क्यों चेतना शून्य है,?? अचेतन जागा है क्या??? क्यों जागा है? क्या दिखाने को प्रयासरत है? कोई संकेत है??? शुभ है या अशुभ है? शुभ,अशुभ से मन भयभीत क्यों होता है? पढ़ा तो है कई बार,,शुभ -अशुभ, पाप-पुण्य, सही-गलत,न्याय-अन्याय, सब भ्रम है,,, एक मात्र कर्म ही सत्य है ,अन्य ईश से ही उत्पन्न और उसी मे निहित है।
       आज लेखन का शीर्षक क्यों शून्य है। चिन्तन प्रवाह निर्झर तन्द्रा मग्न, विषय विहीन,उत्कर्ष-निष्कर्ष विहीन,भावना-सम्भावना निहित या विहित है। कोई भंवर मे फंसा है क्या? भंवर के चक्कर तेज़ गति से सब खींच रहे हैं । सब खिंच रहा है,,एक बड़े घेरे से संकरें घेरे का आकार लेता। पाताल की ओर। वहाँ जाकर ठहराव मिले शायद,,,,,,,।
    आज आरम्भ भी प्रश्न और शेष भी प्रश्न ही रह गया। ऐसा भी होता होगा कभी-कभी,, यदि होता है तो बड़ा 'विचित्र' है। ये शब्द किसने बनाए हैं??????????  जब सब मिथ्या और छलावा है तो अस्तित्व मे क्यों आया है? मौन क्यों नही रहता सब?
      'छलावा' छल रहा है मन को ,यदि यह ज्ञान है, तो उसको अवसर क्यों देना? जान कर एक आस की प्यास को जागृत रखना ही जीवन है क्या? एक तृष्णा के पीछे भागना ही जीवन है क्या? यदि यही जीवन होता तो गौतम बुद्ध सब तज कर तप क्यों करने लगे। एक तृष्णा एक प्यास उनमे भी थी,,,। इतने सारे प्रश्नों का उत्तर पाने की।
         पर सांसारिकता का त्याग कर,दायित्वों को बिलखता छोड़ वह चले गए। क्या यह उचित था? जीवन के मर्म को समझने के लिए बंधनों का त्याग आवश्यक यदि है,,, तो यह विशाल अनंत जनसमूह किस चक्र मे फंसा है? सब तप क्यों नही करने चले जाते,,? तप का कर्तव्य विरलों को ही क्यों प्रदत्त? मनुष्य बुद्धिशील प्रजाति फिर बुद्धि का प्रयोग मात्र सीमित तक ही सीमित क्यों?
   उफ्फफफफ् यह कैसा प्रभात है??? जैसे प्रश्नों का उजास है।
बससससससससस अब और नही विराम,,,।

बरसो मेरे सजन

(चित्र आभार इन्टरनेट)



सजन रहे बरस
घन रहे तरस
सघन जल सरस
घन रहे तरस,,,

सजन रहे महक
धरा रही दहक
मन रहो बहक
धरा रही दहक

सजन रहे कड़क
विद्युत रही भड़क
प्रेम अगन फड़क
विद्युत रही भड़क

सजन हरे-भरे
विटप तके जरे
उमंग तरे-तरे
विटप तके जरे

सजन रहे चुहुँक
पवन गई हुड़ुक
प्रिये रही कुहुक
पवन रही हुड़ुक

श्रावन बने सजन
बने घन मगन
तरे झरे उमंग
बने घन मगन


बरसो मेरे सजन
भीगूँ मैं मगन
प्रीत करे लगन
भीगूँ मै मगन

सोमवार, 10 जुलाई 2017

और जीवनचक्र चलता रहा,,

   (जिमकार्बेट की एक शबनमी सुबह की याद दिलाता यह चित्र मेरे द्वारा)


रवि के जाने और शशि के आने के बाद,कवि मन जागता है,शशि खिड़की से झांकता है,कवि कल्पनाओं को नापता है,और निशा दोनो को ताकती है। कवि और शशि के नापने और झांकने मे निशा ढलती गई,,वह शाम से रात,और रात से भोर की ओर बढ़ती गई। ना कवि ने सुध ली , ना शशि ने बात की।वह निपट अकेली अपने ही अंधकार की स्याही मे खोती गई,,वह रोती रही, सुबकती गई।
   उधर शशि अपनी ज्योत्सना छिटकाता रहा,कवि की कल्पना को भड़काता रहा। एक अमराई सी वह कागज़ पर संवरती रही कवि की प्यास को तरती रही।
      अब शशि की ज्योत्सना भी ढलने लगी, कवि की कल्पना भी थकने लगी। थके हुए दोनो एक दूजे पर निढाल हो कर लुढ़क गए।शशि और ज्योत्सना भी धीरे धीरे सिमट गए। निशा भी सुबकते हुए सो गई। दूब के तकिए को शबनम से भीगो गई। फिर पता नही कब भोर हो गई। रवि की नवल नर्म रश्मियां अब आसमान पर बिखरने लगीं। कवि आंख मलने लगा और शशि की छवि धूमिल पड़ने लगी। दूब पर पड़ी शबनम मोतियों सी चमकने लगी। प्रातः का संगीत सुन नए गीत रचने लगीं।
    हवा के मंद झोंकों ने उन आंसुओं को सुखा दिया। चूम कर निशा के मस्तक को उसे रवि ने सुला दिया। यही सिलसिला रोज़ चलता रहा । कवि बदलता रहा, शशि अपनी कलाओं के साथ कभी दिखता कभी छुपता रहा। नही बदली तो बस निशा,, नही बदला तो बस रवि,,,,,,,,,,,,,,,,

रविवार, 9 जुलाई 2017

पल्लवी के प्यार मे😃😃

                             घटा सी लटा
                             मनमोहिनी अदा
                             सजन हैं फिदा
                             रूप यूँ खिला
                             बंसन्ती छटा




ये हैं हमारी
सखी पल्लवी
अली जी की
बगिया की कली

कहीं हमसे
छिंड़को कुछ
हमपर भी
काव्यमयी लड़ी

लिखने लगी थी
मिश्री की डली
कलम छिटककर
परे गिरी😜

कह सखी कैसे
रचूँ कोमल कविता
तू तो मिर्ची सी
तीखी बड़ी😃😃

दिल की है साफ
कहे कड़क बात
नही सहती ये
किसी की बकवास


झांसी की रानी
डराए खड़ी😜
बिगड़ गई
तो आफत बड़ी

खैर मना लिली
पल्लो के सामने
नही तू पड़ी
कर देती तेरी
खटिया खड़ी

जानेमन जानेमन
तू अपने आप मे
एक अनोखी लड़ी,
प्यारी बड़ी !!😘😘

सस्नेह लिली☺

शनिवार, 8 जुलाई 2017

अंतरद्वंद

(चित्र इन्टरनेट से)


                       

मौन कौन?
मै या मन,,?
मै कौन?
यदि मै मन नही
तो मन कौन?

खाली भौन
मे चित्कार
करे मौन
गूंजे पुकार
कहता कौन?
मै या मन?

जिह्वा शांत
अन्तर अशांत
विचलित प्रश्न
सुनता कौन?
मै या मन?

स्वयं से तर्क
स्वयं से वितर्क
जूझे निष्कर्ष
क्लांत कौन ?
मै या मन?

खोजे तट
लहरें विकट
द्वंद प्रकट
निकाले कौन?
मै या मन?

अन्तरद्वंद
चल रहा विषम
प्रतीक्षारत
अंत करे कौन?
मै या मन?
**********


जन्मदिन मुबारक हो नीतू😊

                     ओवन मे बेक होकर ऑरेंज केक होगई
                       तुम्हारे जज़्बात स्पाॅन्जी
                       लज़्जत से भरी हर बात होगई!!


बताऊँ मै आपको मेरे हिसाब से दुनिया तीन तरह की होती है- 1 मेरी दुनिया, 2- आपकी दुनिया, 3- ऑनलाइन दुनिया । मेरी दुनिया और आपकी दुनिया तो आप और मेरे  समझने की चीज़ है,, पर ऑनलाइन दुनिया वह दुनिया है जहाँ मै और आप जुड़ जाते हैं। इस जुड़ाव को नकारा नही जा सकता क्योंकि ये कहीं ना कहीं मेरी और आपकी दुनिया का एक अहम हिस्सा बन जाते हैं। कुछ नए रिश्ते बनते हैं कुछ टूट जाते हैं। कुछ ऐसे ही अहम रिश्तों की बात लिखने का मन कर रहा है, आज। यूँ तो बहुत सारे प्यारे दोस्त दिए हैं इस ऑनलाइन दुनिया ने,, पर आज मै "ऑरेन्ज केक' सी फ्लेवरफुल 'नीतू' की बात करूँगी, जिसे हमारी 'चटर-पटर गैंग' प्यार से 'नीट्स' बुलाते हैं।
     आज हमारी 'नीट्स' का "हैप्पी बर्थ डे टू यू है"😃😃 जन्मदिन की शुभकामनाएँ 'नीट्स'!!!!!
   जीवन हमेशा तुम्हे 'फवाद खान' सा 'हैन्डसम'❤ दिखे,,मुझे पता है यह लाइन पढ़कर तुम्हारे मुँह से हायययययय फवाद बस एक बार मिल जाओ निकलेगा 😃😃😃😃😃 तो भगवान से प्रार्थना है कि 'ज़ारून' उर्फ 'फवाद' तुमसे ज़रूर मिलने आए !!!
      जीवन तुम्हारे लिए 'महेन्दर सिंह धोनी' जैसा मुस्कुराता हुआ बने!! धोनी के शाॅट्स, धोनी की विकिट कीपिंग, धोनी का सौम्य स्वभाव और उसकी सभी खूबियां जो तुम्हे पसंद हैं...तुम्हारा जीवन तुम्हे वैसा ही दिखे। जीवन एक क्रिकेट मैच सा हो तुम्हारे लिए, जिसके शुरू होने से पहले तुम एक छोटे बच्चे के जैसे उत्साह और कौतूहल से बेसब्री से अपने 'शेट्टी जी' के साथ टी वी के सामने बैठकर उसका लुफ्त उठाओ।
फेसबुक पर अपने मज़ेदार स्टेट्स डालो- " और करो धोनी का कैच मिस"... 😃😃😃 इंडिया मैच हार जाए तो नीट्स के दुख से पूरा फेसबुक आंसू की तरह बहे, इंडिया अगर जीत जाए तो पूरा फेसबुक खुशी से झूम उठे।
       तुम हर एक पल को अपने 'शेट्टी जी' के साथ पूरी तरह जियो,। कभी रात मे आइसक्रीम खाने चली जाओ, तो कभी कोई स्वीट डिश खाने चली जाओ।
      सेल्फी का ज़माना तो अभी आया है...पर हमारी नीट्स ने का अपने आप को खुश रखने के लिए,अपनी सुन्दर फोटोज़ अपलोड करने का ज़माना बहुत पुराना है। शायद 'सेल्फी अपलोड' करने का फैशन तुमसे ही सीखा है सोशल मीडिया ने। ये तुम्हारी ज़िन्दादिली की एक पहचान है। जितनी खूबसूरती से तुम अपने हर भाव को सेल्फी के जरिए पेश करती हो...यह भी एक हुनर है।
     तो हमारी 'स्टाइलिश सेल्फी क्वीन नीट्स' तुम्हारे लिए जीवन एक सेल्फी की तरह हो,जिससे तुम अपने हर 'मूड' हर भाव को अपने हिसाब से पेश कर सको उसे जी सको, चाहे वो 'ईद वाली सेल्फी' हो या 'बारिश मे भींगने' वाली...।
    तमाम परेशानियों,उतार-चढ़ाव,कुछ कहे कुछ अनकहे दुखों को दिल मे समेटे जीवन के हर पल को कैसे जीते हैं यह 'नीट्स' से सीखना चाहिए।
     आज तुम्हारे जन्मदिन पर मेरी तरफ से तुम्हारे लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएं!!!  शेट्टी जी, रितु, मयंक, नोनू सिंह,सुनील जी, फवाद, धोनी,सेल्फी,जगजीत सिंह जी की गज़ल..,सबसे अहम तुम्हारे मम्मी और पापा के आशिर्वाद के  अलावा  तुम्हारे ढेर सारे दोस्तों से तुम्हारी जीवन की बगिया हमेशा खिली ,रहे महकती रहे,सजी रहे…
इसी कामना के साथ
लिली 😊

सोमवार, 3 जुलाई 2017

परिवर्तन,,

                          (चित्र संभार इन्टरनेट)

मेरी प्रथम लघुकथा,,"परिवर्तन" ,,,एक शुरूवात, एक प्रयास,,,,

कभी कभी कैसे बुलबुले उठते हैं मन मे,,कुछ बड़े तो कुछ छोटे,,,जैसे मन मे कुछ खौल रहा हो,,तमाम तरह के वैचारिक बुलबुल उभरते और फटते हुए। कहीं पढ़ रही थी कि मनुष्य चाहे जितना भी व्यस्त क्यों ना हो एक निश्चित समय उसे खुद के साथ बिताना चाहिए,,, अच्छा लगता है खुद मे डूबना। अपनी ही कही और की गई क्रियाओं का अवलोकन करना। अपनी अदालत मे जज भी मै और अभियुक्त भी मै,और वकील भी मै,,।  
    अक्सर खो जाया करती थी नीलिमा ऐसी अदालतों की न्यायिक कार्यवाहियों में। बहुत अंदर तक गोता मारना पड़ता था,क्योंकी न्यायालय के सभी किरदार उसे ही निभाने पड़ते थे, निष्पक्ष न्याय की अपेक्षा सभी किरदारों को होती थी।
     रोज़ एक नया मुक्दमा । आज का केस था ,, आकाश का कल रात नियमानुसार बात करके ना सोना। अक्सर दोनो मोबाइल पर सोने से पहले कुछ बातें करते और फिर 'गुडनाइट' कह कर सोने की तैयारी।
     हलांकि दोनो की प्रेम कहानी के शुरूवाती दौर मे ये बाते अंतहीन और समय सीमा से परे होती थीं। चूँकि अब एक लम्बा अरसा तय कर चुका है इन दोनों का प्रेम, अब वह उन्मादीपन नही है।एक दूजे के लिए तड़प अभी भी उतनी ही है, परन्तु एक दूजे की परिस्थियों और जीवन की प्राथमिकताओं की समझ अब परिपक्व होने लगी है। हालात्  मजबूर भी बना देते हैं और इंसान को धीरे धीरे परिपक्व भी। नीलिमा के मन मे जिरह चालू है। आइए अब आज के मुक्दमे की पैरवी शुरू करते हैं।
       इतवार था कल ,झमझमाती बारिश थी,, मतलब ये कि मौका भी और मौसम भी। आकाश और नीलिमा ने एक लम्बे अरसे बाद इस इतवारी सुबह को भरपूर जिया। 
   दोनो अलग अलग शहरों मे रहते हैं। दोनो के बीच सम्पर्क का एक मात्र साधन 'मोबाइल'। क्या अद्भुत आविष्कार है मानव मस्तिष्क का!! कभी दूरियों का पाट देता है,तो कभी दूरियां बना देता है यह अद्भुत यंत्र।
     खैर दोनो की सारी दुनिया इन्ही दो लम्हों की बातों पर चलती थी।ईश्वर की कृपा दृष्टि ही थी जो कल मौके मिलते गए और आत्मिक संतुष्टिदायक बातें दोनों के बीच होती रही सुबह के अलावा भी। 
      पर आदत तो आदत है,,असमय जितना भी मिल जाए,,परन्तु अपने निर्धारित समय पर खुराक़ ना मिले तो तड़प और बेचैनी उत्पन्न होने लगती है। और मामला प्रेम का हो,,,,फिर तो कुछ कहने ही नही।।
       आदतन रात साढ़े नौ बजे तक नीलिमा ने आकाश को मैसेज भेज दिया- "जानेमन डिनर हो गया?"
और हर दो तीन मिनट के बाद उत्तर की जाँच करती रही।
फिर खुद डिनर की तैयारी मे जुट गई। तब तक आकाश का कोई जवाब नही आया था।
  एक घंटे बाद नीलिमा ने यह सोचते हुए या यूँ कहिए खुद को समझाते हुए फिर मैसेज भेजा - सो गए क्या?
'गुडनाइट',,! और अपनी अदालत खोलकर बैठ गई जिरह,सबूत,बयांन ,,,,आज सुबह अच्छी बात हुई,,शाम को भी तो कितनी सुखद और सन्तुष्टिदायक वार्तालाप हुआ,,, चलो कोई नही जो अभी हमारी 'निर्धारित शुभरात्रि' चैट नही हुई।
        इतना सब समझने समझाने के बावजूद भी मन नही मान रहा था,,,बार बार आकाश के रिप्लाई की अपेक्षा मे फोन पर हाथ चला ही जाता था। आकाश का मैसेज आया,,देखते ही चेहरा खिल उठा कि दो बातें कर के सो जाएगी वह ,सुबह उठना था जल्दी।
      जवाब था,, 
"ओ सजनी
सताए रजनी
रवि भर मदमस्त
आ जा कामिनी"

 हाँ डिनर हो गया प्रिये।
"मेरा प्यार"
"गुडनाइट"।
 पुरूष कितने सरल और संतोषी होते हैं,,,कभी प्रेम कर के देखिए यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा । 
    जवाब देखते ही नीलिमा ने एक सांस मे कई मैसेज भेज डाले

" थे कहाँ?
 बिना बतियाए जा रहे हैं सोने।
 बता कर जाइए कहाँ थे?
 सुनिए,,
 सुनिए,,
 देखिएगा मत,,
 दिल दुखा कर गए,,,।"

परन्तु कोई जवाब पलट कर नही आया,,फोन भी किया पर व्यर्थ क्योंकि महाशय 10 मिनट के अंदर ही निद्रादेवी की आगोश मे जा चुके थे।
नीलिमा रात एक बजे तक इधर-उधर करती रही फिर ना जाने कब उसकी भी आंख लग गई।

      "ओह, सो गया था। तुम गुडनाइट कर दी थी इसलिए"
आकाश के  गुडमार्निंग के साथ यह जवाब आया रात के मैसेजों का,,,। 
    बस फिर क्या था,,,एक तरफ नारी मन का गहन मंथन और उससे उपजे तरह-तरह के गम्भीर निर्णय,,और दूजी तरफ सहज-सरल और संतोषी पुरूष मन,,तीक्ष्ण हृदयभेदी प्रहारों को झेलता हुआ। 
     एक छोटी सी गलती कैसे जीवन दर्शन तक का चिन्तन करवा देती है यह विचारणीय एंव दर्शनीय है,,, और यदि आपने प्रेम किया है तब तो ऐसे 'दार्शनिक तर्क-वितर्क" आए दिन झेलने पड़ सकते हैं।

    नीलिमा ने खुद का आत्ममंथन इतनी देर मे कर लिया था। उसके मन की अदालती जिरह बाज़ी ने यह परिणाम निकाले थे-"कभी कभार बिना टाइम बात लम्बी कर लूँ तो मन मान ले की होगया कोटा पूरा अब अपना काम कर नीलिमा" 

   बिचारे आकाश ने अपने बचाव मे भोली सी दलील रखी-" "देखी न एक दिन तुम्हारे goodnight के कारण गफलत हो गयी तो कैसे पटखनी दे रही हो मुझे।"
 पर कहाँ नीलिमा की अदालत अंतिम निर्णय ले चुकी थी,,, "अब से गुडनाइट और गुडमार्निंग बंद,, कोई बंधन नही
 सब उन्मुक्त आत्मा की तरह"।

आकाश की कोमल गुहार- "उफ़्फ़,,,!! इतनी नाराज़गी
 मेरी तो सोचो कुछ क्या बीतेगी,,?
उन्मुक्त तुम्हारे बिना ?
बावली"

नीलिमा- "नाराज़ नही हूँ,, उतार रही हूँ सब"।
आकाश- "दोनों आत्मा एक।
 अलग की बात कितनी निरर्थक
 समझो हम हैं"। 

नीलिमा-"वही तो समझ रही हूँ,,अब कहाँ पहले जैसे करती हूँ
 फोन नही आता था तब कितना आफत करती थी,,।"
आकाश-"संयुक्त भी नहीं,एक ही आत्मा दो शरीर में स्पंदनों को संचालित कर रही हैं। हमारे बीच तेरा-मेरा की कोई संभावना नहीं।"

नीलिमा- "बस यही फिलोसफी उतार रही हूँ
पर आपकी स्थिति तक आने मे थोड़ा और समय लगेगा"।
  
     आकाश-"यह बताओ हमारी बातें कब बंद रहती हैं? कौन सा पल है जिसमें हम एक दूजे से पल भर को अलग हों। बता दो ज़रा?"
नीलिमा-" कभी नही,,होता"
 हमेशा ख्यालों मे रहते हैं,हवा के भांति।"
आकाश-"तो यह फोन कहां से आ गया??
 सही बोली। हवा की तरह"
नीलिमा-"वही तो बोल रही हूँ, फिर फोन आए ना आए कोई फरक ही नही पड़ेगा, पर उस स्थिति तक आने मे मुझे समय लगेगा,,,। उसी की तैयारी चल रही।"

आकाश-"पर फिर भी फोन जरूरी है। आवाज से स्पंदनों से छूटे भाव सुनने को मिलते हैं।"

नीलिमा- "एक बार आपका फोन खराब हुआ था ,,आपसे दो दिन कोई बात नही हो पाई थी,,कैसी हालत हो गई थी,,पर अब वैसा नहीं करना"।(एक पुरानी घटना का संदर्भ देते हुए)

आकाश-"फोन को नकारा नहीं जा सकती है। सम्पूर्ण सम्प्रेषण हो सके ऐसी कोई अभिव्यक्ति नहीं है। इसलिए अभिव्यक्ति के कई साधनों का उपयोग लाजिमी है।"

 नीलिमा-( कटाक्ष मारते हुए)" यह अभिव्यक्ति भी एहसासों मे हो जाएगी।"

आकाश- "एक दिन फोन न आए तो शाम तक हालात बिगड़ जाएंगे। अब तो और बुरी हालत होगी। दो दिन तो प्राण ले लेगा।
 अभी  मैन कि फोन करूं?"
नीलिमा- " नही अभी नही बात करनी" मुँह फुलाते हुए जवाब दी।
आकाश -" फिलॉसॉफी की ऐसी की तैसी"।

नीलिमा -"ना , ऐसी की तैसी क्यों,,,?यह अपनानी बहुत ज़रूरी है
 वरना जीवन काटना भारी"।

आकाश- "आज फोटो की मांग नहीं की? (यह भी एक नियम था रोज़ तैयार होकर आकाश अपनी फोटो नीलिमा को भेजता था, और नीलिमा सारा दिन उस फोटो को जाने कितनी बार निहारती थी,,बातें करती थी, आकाश के चेहरे के भावों को पढती रहती थी)
दो शब्दों का खींजा सा जवाब नीलिमा का-"आपने भेजी नही"।
आकाश-"तो पूछ तो सकती थी कि क्यों न भेजी ?
 कितनी दूर करती जा रही हो मुझे,,।
 जैसे कोई अजनबी हूँ,,।
 इत्तफाक से मिल गया था,,।"
  उफ्फ एक छोटी सी चूक के घातक परिणाम झेलता आकाश,,,। एक तो उमस भरा मौसम ,पसीने से खस्ता हाल,,उस पर प्रेमिका के बिगड़े मिजाज़ की गर्म हवाएं,,, ऐसा दंड,,,,,! राम बचाएं ,,,!!

'मियां की जूती मियां के सर' को सिद्ध करता उत्तर दिया  नीलिमा ने -"सोचा आप व्यस्त होंगें।"

मौसम और माशूका के वार को सहता हुए आकाश बोला- "देखो देखो दुनियावालों
मेरी प्रिये बदल रही"।

माशूका से जीतना इतना आसान नही,, दनदनाता हुआ उत्तर  आया-"आपमे ढल रही हूँ।"

सीमा पर तैनात जवान के भांति हर वार को वीरता के साथ झेलता आकाश,,,,, बोला-"तर्क हर गलती को छुपा लेता है।
 ढल रही,,
शानदार जवाब,वाह!!
 ये मारी।"
दार्शनिकता के समन्दर मे डूबती नीलिमा का निर्णायक जवाब -" आप को दुविधा मे नही डालना कि,,जीवन की प्राथमिकताएं  देखूँ या नीलिमा??
 प्राथमिकता पर ध्यान दें आप।"


आकाश- "प्राथमिकताएं तो चल ही रही हैं, नीलिमा तो मेरी सांस है। 
उसे देखना नहीं उसे तो जिये जा रहा हूँ।
 प्राथमिकता तुम "

नीलिमा के अंदर का वकील मुक्दमे पर अपनी पकड़ बनाता हुआ- "गलत "
आकाश- "क्या गलत। दूर कर रही हो,?"
 नीलिमा-"प्राथमिकताएं विवश करती हैं
मै आपको विवश नही करना चाहती।"

आकाश थोड़ी दृढ़ता के साथ - "विवशता कभी कभी आती है। रोज नहीं"।
नीलिमा -"एकदम भी नाराज़गी नही है।
 बस यह सब बोल देती हूँ तो अपने आप को एक पायदान चढ़ा हुआ पाती हूँ।"
 अपने आप को अब ना ढीगाऊँगीं
 हे प्रियतम तुम रहो कर्मशील कर्तव्यपथ
पर ,मै बाधा बन ना मार्ग अवरोध लगाऊँगीं,, से भाव नीलिमा के मन मे उफान मारने लगे थे ।

आकाश- पूरी चेष्टा के साथ बात को सम्भालने मे लग गया,,, "छोड़ दो फिर कटी पतंग की तरह। यह विवश करना क्या है?
 थोड़ी ज़िद न हो तो मोहब्बत बेरंग हो जाती है।
 तुम्हारे प्यार के पंजे से लटका मैं आसमानों का विचरण कर रहा और तुम विवशता की बात कर रही।"

नीलिमा-"एकदिन आपको  लगेगा की नीलिमा सब समझ जाएगी।"

आकाश-"क्या समझ जाएगी
 बोलो??"

नीलिमा-"कभी किसी कारण बात ना हो पाई,,तो इस तरह की बातें कर के आपको परेशान नही करेगी।
 वह यह समझ जाएगी अवश्य ही कोई कारण रहा होगा।
 अभी भी समझ आता है
 पर समझ कर भी ना समझ बन जाती हूँ।"

आकाश-"अपनी स्वाभाविकता को मत बदलो
 जैसी हो वैसी ही रहो। बेहद प्यारी लगती हो।"

नीलिमा-"पर मुझे खुद को बुरा लगता है, सब समझते हुए भी ऐसे तर्क-वितर्क कर समय नष्ट करती हूँ।"

आकाश-" तो क्या हुआ। हर बात प्यारी और अच्छी हो यह भी तो संभव नहीं।
 सहजता में ही मजा है।
कोई परिवर्तन नहीं।"

नीलिमा-"जो है वह जाएगा थोड़े ही,,,
 मात्रा कम बेशी हो सकती है बस।"

बात का रूख बदलते हुए आकाश ने शरारत भरा प्रश्न पूछा-"
"हमारा बच्चा कब होगा,,,?"
नीलिमा - (मूड मे कोई परिवर्तन नही)
"हो गया,,"
आकाश चौंकते हुए- "कब,??????"
 
नीलिमा- "परिवर्तन नाम रखा है बच्चे का,,,।"
"चलती हूँ नाश्ता बनाना है।
शुभदिन"
आकाश के लिए जवाब की कोई गुन्जाइश ना रखते हुए नीलिमा ने मुक्दमे का फैसला सुना दिया।

आए दिन ऐसे मामले दोनों की अदालत मे आते रहते हैं। निर्णय लिए जाते हैं,,,और दूसरे ही पल,,पुनः एक दूसरे के प्रति उनकी अकुलाहट फिर बांवरी होने लगती है।

********समाप्त*******

शनिवार, 1 जुलाई 2017

आज रंगने का मन कर रहा है,,

                        (चित्र इन्टरनेट से)

रंग को देखकर अक्सर मन उन्मादी हो उठता है,,और कुछ ऐसे एहसास उभर आते हैं,,,,
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आज लिखने का नही,
रंगने का मन कर रहा है।

किसी कोरे कैनवास पर,
रंगों को उड़ेलने का
मन कर रहा है।

हर रंग मे डूबों दूँ
अपनी पूरी हथेलियां,
उन्ही हथेलियों को
कैनवास पर सहलाने का
मन कर रहा है।

कौन सा रंग उठाऊँ पहले?
यह सोच कर नही,,,
बेसुध हो उनकी
चिकनाहट महसूस करने का
मन कर रहा है।

आंखें रंगों की रौनक
मे डूबती रहें,
मुझे बस इस रंगत से
खुद को रंगने का
मन कर रहा है।

रंग उड़ाने का मन
कर रहा है,
रंगों से भिगाने का
मन कर रहा है,,
काश मिला होता
तस्वीर बनाने का हुनर,,
आज मेरे महबूब को कैनवास पर
उतारने का मन कर रहा है।

फिर छूकर तेरी तस्वीर को
उसे हक़ीकत बना देती,
जी भर के चश्म-ए-क़रार को
जीने का मन कर रहा है।

हर तरफ रंग हों,
हर आरज़ू रंग हो,
एहसास रंग हों,
मै भी सतरंगी बन जाऊँ
खुद को ऐसा रंगने का
मन कर रहा है।

लिली मित्रा
#मेरीअभिव्यक्तियों से