मंगलवार, 11 जुलाई 2017

बरसो मेरे सजन

(चित्र आभार इन्टरनेट)



सजन रहे बरस
घन रहे तरस
सघन जल सरस
घन रहे तरस,,,

सजन रहे महक
धरा रही दहक
मन रहो बहक
धरा रही दहक

सजन रहे कड़क
विद्युत रही भड़क
प्रेम अगन फड़क
विद्युत रही भड़क

सजन हरे-भरे
विटप तके जरे
उमंग तरे-तरे
विटप तके जरे

सजन रहे चुहुँक
पवन गई हुड़ुक
प्रिये रही कुहुक
पवन रही हुड़ुक

श्रावन बने सजन
बने घन मगन
तरे झरे उमंग
बने घन मगन


बरसो मेरे सजन
भीगूँ मैं मगन
प्रीत करे लगन
भीगूँ मै मगन

1 टिप्पणी:

  1. इस काव्य को पढ़ते समय बारिश की अनुभूति हो रही है और एहसासों की फुहारें भी सिहरन से गुजार रही हैं यही तो होता है सशक्त और सहज लेखन का प्रभाव। सामयिक और प्रभावित करनेवाली वाली रचना।

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