शनिवार, 15 जुलाई 2017

मोहे सावन न भाए (कजरी)

(चित्र सभार इन्टरनेट)


अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे
चूड़ी ना भाए कजरा ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे

बदरा से कहि देओ
ऐसे ना बरसें
मन मोरा झुलस
जाए रे
कोयलिया से कहि देओ
ऐसे ना कूकें
सजन मिलन की
हूँक उठी जाए रे

 अबके बसर मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे


झूलन से कहि देओ
ऐसे ना झूलें
सजन की बाहों
के याद दिराए रे
महेंदी से कहि देओ
ऐसा ना महके
पिय के देह गंध
को तरसाए रे

अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे

चूड़ियन से कहि देओ
ऐसे ना खनके
उनकी बतियन के
खनक याद आऐ रे
चुनर धनी से कही देओ
ऐसे ना लहरे
मन पिय के देस
उड़ी जाए रे

अबके बरस मोहे सावन ना भाए
मोरे साजन गए परदेस रे!

लिली मित्रा

1 टिप्पणी:

  1. आपका यह प्रथम प्रयास कजरी लिखने का है किंतु इसके साथ ही आप का प्रयास भारतीय संस्कृति की ओर भी उन्मुख है। वस्तुतः रचनाकार केवल स्वान्तः सुखाय के लिए ही नहीं लिखता है बल्कि समाज के लिए धरोहर देता है और एक सार्थक संकेत भी। घर में पड़े झूले तो नई पीढ़ी देख लेती है लेकिन जब सावन में कजरी के संग झूले को देखती है तो स्वाभाविक तौर से उनका मन खेत और खलिहानों को ढूढने लगता है। यहीं कजरी अपनी पूर्णता प्राप्त कर लेती है। एक सुंदर रचना-कजरी।

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