मंगलवार, 11 जुलाई 2017

यह कैसा प्रश्नशील प्रभात,,????

                          (चित्र साभार इन्टरनेट)

कोई कल्पना साकार नही आकार ले रही है। अदृश्य प्रकट नही लोप हो रहा है। कोई कविता विधाओं से परे लयबद्ध गढ़ रही है। यह क्या हो रहा है,???? साहित्य का सृजन हो रहा है? या विज्ञान का मर्दन हो रहा है?
     कोई विशेष से अशेष हो रहा है,विस्तृत से व्यापक हो रहा है। नयन झरने का उद्देश्य शोक है या आनंद? मन की क्लांती अशांति का द्योतक है या शांति का? दृष्टि का केन्द्र शून्य है या शून्य का परिवेश?
      मन किधर का रूख कर रहा है ,,इतने प्रश्न?????? कौन सा गूढ़ सत्य प्रकट होने को है? विकट है या सूक्ष्म?? सूक्ष्म के लिए इतने उद्गार,,? ना,,अवश्य ही कुछ विराट है जो सामान्य से परे,,असामान्य से मुक्त है।
        इन्द्रियां सुप्त हैं या जागृत? मन अधीर है या धैर्यशील? प्रभात का सूर्य प्रश्नों की घनी बदलियों मे छुपा है,,,दिनमान का आभास तो है पर विश्वास कहीं संदिग्ध है। हवा है तो, श्वास का आवागमन भी है,, पर शरीर क्यों चेतना शून्य है,?? अचेतन जागा है क्या??? क्यों जागा है? क्या दिखाने को प्रयासरत है? कोई संकेत है??? शुभ है या अशुभ है? शुभ,अशुभ से मन भयभीत क्यों होता है? पढ़ा तो है कई बार,,शुभ -अशुभ, पाप-पुण्य, सही-गलत,न्याय-अन्याय, सब भ्रम है,,, एक मात्र कर्म ही सत्य है ,अन्य ईश से ही उत्पन्न और उसी मे निहित है।
       आज लेखन का शीर्षक क्यों शून्य है। चिन्तन प्रवाह निर्झर तन्द्रा मग्न, विषय विहीन,उत्कर्ष-निष्कर्ष विहीन,भावना-सम्भावना निहित या विहित है। कोई भंवर मे फंसा है क्या? भंवर के चक्कर तेज़ गति से सब खींच रहे हैं । सब खिंच रहा है,,एक बड़े घेरे से संकरें घेरे का आकार लेता। पाताल की ओर। वहाँ जाकर ठहराव मिले शायद,,,,,,,।
    आज आरम्भ भी प्रश्न और शेष भी प्रश्न ही रह गया। ऐसा भी होता होगा कभी-कभी,, यदि होता है तो बड़ा 'विचित्र' है। ये शब्द किसने बनाए हैं??????????  जब सब मिथ्या और छलावा है तो अस्तित्व मे क्यों आया है? मौन क्यों नही रहता सब?
      'छलावा' छल रहा है मन को ,यदि यह ज्ञान है, तो उसको अवसर क्यों देना? जान कर एक आस की प्यास को जागृत रखना ही जीवन है क्या? एक तृष्णा के पीछे भागना ही जीवन है क्या? यदि यही जीवन होता तो गौतम बुद्ध सब तज कर तप क्यों करने लगे। एक तृष्णा एक प्यास उनमे भी थी,,,। इतने सारे प्रश्नों का उत्तर पाने की।
         पर सांसारिकता का त्याग कर,दायित्वों को बिलखता छोड़ वह चले गए। क्या यह उचित था? जीवन के मर्म को समझने के लिए बंधनों का त्याग आवश्यक यदि है,,, तो यह विशाल अनंत जनसमूह किस चक्र मे फंसा है? सब तप क्यों नही करने चले जाते,,? तप का कर्तव्य विरलों को ही क्यों प्रदत्त? मनुष्य बुद्धिशील प्रजाति फिर बुद्धि का प्रयोग मात्र सीमित तक ही सीमित क्यों?
   उफ्फफफफ् यह कैसा प्रभात है??? जैसे प्रश्नों का उजास है।
बससससससससस अब और नही विराम,,,।

1 टिप्पणी:

  1. तृष्णा ही जीवन है। उलझन ही नए राह की तलाश है। गौतम बुद्ध ने तृष्णा का त्यजन कहां किया था बल्कि एक तृष्णा के बजाए दूसरी की ओर गए थे। वैचारिक द्वंद ही जीवन को गतिमान और कीर्तिमान बनाते हैं। यह प्रश्नशील प्रभात जीवन के किसी नए पटल को खोलने की प्रक्रिया है। यह एक सहज, स्वस्थ और स्वाभाविक प्रक्रिया है। एक नई रोशनी के आगमन का संकेत है।

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