सोमवार, 10 जुलाई 2017

और जीवनचक्र चलता रहा,,

   (जिमकार्बेट की एक शबनमी सुबह की याद दिलाता यह चित्र मेरे द्वारा)


रवि के जाने और शशि के आने के बाद,कवि मन जागता है,शशि खिड़की से झांकता है,कवि कल्पनाओं को नापता है,और निशा दोनो को ताकती है। कवि और शशि के नापने और झांकने मे निशा ढलती गई,,वह शाम से रात,और रात से भोर की ओर बढ़ती गई। ना कवि ने सुध ली , ना शशि ने बात की।वह निपट अकेली अपने ही अंधकार की स्याही मे खोती गई,,वह रोती रही, सुबकती गई।
   उधर शशि अपनी ज्योत्सना छिटकाता रहा,कवि की कल्पना को भड़काता रहा। एक अमराई सी वह कागज़ पर संवरती रही कवि की प्यास को तरती रही।
      अब शशि की ज्योत्सना भी ढलने लगी, कवि की कल्पना भी थकने लगी। थके हुए दोनो एक दूजे पर निढाल हो कर लुढ़क गए।शशि और ज्योत्सना भी धीरे धीरे सिमट गए। निशा भी सुबकते हुए सो गई। दूब के तकिए को शबनम से भीगो गई। फिर पता नही कब भोर हो गई। रवि की नवल नर्म रश्मियां अब आसमान पर बिखरने लगीं। कवि आंख मलने लगा और शशि की छवि धूमिल पड़ने लगी। दूब पर पड़ी शबनम मोतियों सी चमकने लगी। प्रातः का संगीत सुन नए गीत रचने लगीं।
    हवा के मंद झोंकों ने उन आंसुओं को सुखा दिया। चूम कर निशा के मस्तक को उसे रवि ने सुला दिया। यही सिलसिला रोज़ चलता रहा । कवि बदलता रहा, शशि अपनी कलाओं के साथ कभी दिखता कभी छुपता रहा। नही बदली तो बस निशा,, नही बदला तो बस रवि,,,,,,,,,,,,,,,,

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