शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

कुछ खोया ,,कुछ पाया,,

                        ( चित्र इन्टरनेट से)


            ज़िन्दगी का एक वर्ष कुछ नए अनुभव जोड़ गया
           अनमोल पलों के संग कुछ खट्ट-मिट्ठी यादें जोड़ गया।

अधूरी ख्वाहिशों को पूरा करने को 365 दिन जोड़ गया
जो मिल गई बिन मांगे उनसे खुशिया जोड़ गया।

         जीवन पथ पर छूट गए कुछ हाथ हमारे अपनों के
         पर यह भी सुन्दर काम किया कुछ नए रिश्ते जोड़ गया।

जाने वाला तो जाता हैं आने वाले के स्वागत में
कुछ और अनोखा देने को वो एक अनोखा जोड़ गया।

       कोई सपना साकार हुआ ,कुछ बिन जागे दम तोड़ गया
       नई उम्मीदों की नवल प्रातः संग नवल लक्ष्य जोड़ ।

उत्साह ,कौतूहल, जिज्ञास के कुछ अद्भुत उत्तर छोड़ गया
नई उमंगों नये क्षितिज संग एक और नववर्ष जोड़ गया।




अभिलाषा,,,,,,,,

(चित्र इन्टरनेट से)


तुम तो निर्णय कर चुकी
कि मैं तुमसे मिल न पाउँगा,
ज़िद मेरी भी सुनलो प्रिये
मिले बिना न जी पाउँगा।

प्रेम सुवासित पुष्प,प्रिये मै ह्दय लिए,
बस कालचक्र में बाधित हूँ ,
अवसर पा गजरे मे गुथ प्रिये
तुम्हारे जुड़े मे गुथ जाउँगा।

जनमो से मै प्रीत का रीता ,
खाली गागर लिए खड़ा,
तुम अमृत सरिता सी बहती,
मै डूब प्रेम-कलश भर जाउँगा।

अतृप्त,अधूरा, बिखरा-बिखरा ,
आत्म मिलन को विह्वल हूँ,
दिव्य मिलन कर तुमसे प्रियतमा,
तुममे ही मिल जाउँगा।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

प्यार की किताब,,,,,,,,,,,,,,, प्रिया के यादों के झरोखों मे

कविता लिखने की प्रेरणा मुझे तुमसे मिली प्रिया ,, तुम्हारी ही पंक्तियों को तुम्हे समर्पित करना चाहती हूँ-" हर इन्सान के दिल में यादों की एक ऐसी किताब होती है, जो कभी अचानक से खुल जाती है,और भाग-दौड़ की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में दो पल राहत का एहसास दिला जाती है। "                             

प्रिया के यादों के झरोखों से
****************

          मन के किसी कोने में दबा कर रखी थी
          किताब तेरे प्यार की
         आज यादों की आंधी ने फिर से
          कुछ पन्नो को लुढ़का दिया।

          एक सूखा हुआ गुलाब दबा के रखा था
          किसी पन्ने मे
          तेरी यादों की खुशबू ने फिर से
          उसे महका दिया।

          वो खास लम्हे हमारी मुलाक़ात के
          पन्नो मे मोड़ कर रखे थे
          तेरी यादों की उंगलियों ने फिर से
          उन्हे पलटा दिया।

          दिल से लिखी कुछ पंक्तियां फिर से
           अचानक दिख गई
           उस रेशमी एहसास ने फिर से
           मुझे तड़पा दिया।

एक रात जागती,,, एक रात की याद मे,,,

                            (चित्र इन्टरनेट से)
  शान्त दिसम्बर की नीरव रात सोने की पूरी तैयारी कर चुकी थी,तकिये पर सर रख,,नरम कम्बल को ओढ़ रात लेटकर ,आंखों को बंद करने की कोशिश कर रही थी, परन्तु आंखे तो अपलक खिड़की से बाहर आसमान को निहारने लगी। सूनसान वातावरण में अपनी ही सांसों की आवाज़ घड़ी की टिकटिक के साथ ताल मे ताल मिलाती सुनाई पड़ी,,,,,रात हैरान नही है कि उसे नींद क्यों नही आ रही ? वो असल मे जागना चाहती है ,,,कुछ ऐसे पलों को याद कर मुस्कुराना चाहती है,,,,जिन्हे वो 'उस रात' जी कर आई थी। "एक रात जागती,,,एक रात की याद मे" एक रोमांचक शीर्षक ,,,! रोमांचक अनुभूतियों से थिरकती 'वो रात' न जाने कितनी रातों की नींदें उड़ाएगी,,,ये तो राम ही जाने,,,।
    सुन लिजिए इसकी अनुभूतियां,,,नही तो यह बिस्तर पर छटपटाती रह जाएगी। ना खुद सोएगी न 'उस रात' को सोने देगी । बड़ी जद्दोजहद के बाद कुछ पल मिले थे ज़िन्दगी से। मानो एक लम्बी कोशिश और विपरीत बहाव में तैरने के बाद कश्ती को किनारा मिला हो।
     सर्दियों की धुंध भरी भोर मे,रास्तों को टटोलती,कई अज्ञात क्षणों की रूपरेखा खींचती हुई वह रात बढ़ रही थी। उस दिन मन शान्त,कौतूहल रहित था, विवेक जागृत था ,,,सतर्कता तैनात थी,,,लग रहा था जैसे सोच-विचार कर कोई रणनीति तैयार की गई हो,,एक चूक के,,,,,, घातक परिणाम  ।इन सब के बावजूद मन की गहराई मे प्रतीक्षा थी एक खूबसूरत,महकती, थिरकती, बहकती मदहोश रात की,,,।
    प्रतीक्षा एक 'एहसास' के प्रत्यक्ष दर्शन की जिसे एक लम्बे अरसे से बस सुना, पढ़ा और शब्दों में अभिव्यक्त किया। अपरिचित नही वह,,,,,पूरी तरह से एक दूसरे में रचा-बसा ।  कितना रोमांचक था सब कुछ !!!!
      भोर की धुंध को चीरती 'प्रतीक्षा' जब अपने गन्तव्य तक पहुँची ऊपर से बहुत शांत और सतर्क परन्तु भीतर से जैसे धरती की तीन परतों के नीचे से हलचल हिडोले मार रही थी।
     आखिरकार 'प्रतीक्षा' बहुत ही औपचारिकता और शिष्टाचार के साथ अपने 'परिचित एहसास' के रू-ब-रू हुई। नज़रे एक दूसरे को जी भर देखना चाह रही थीं, स्पर्श एकदूजे को अनुभव करने चाह रहा था,आलिंगन ह्दय का स्पंदन सुनना चाह रहा था,नसिका देह गंध को मन-मस्तिष्क मे भर लेने को आकुल थी,,,समस्त इन्द्रियां तरंगित हो उठी थीं,,,परन्तु सामाजिक बंधनों की मर्यादाओं ने प्रथम मिलन को एक औपचारिक रूप देना उचित समझा। फिर भी मन 'अपने एहसास' को समक्ष पा कर जैसे असीम आन्नद मे मग्न था।
       कुछ पल चुराने की कोशिश की थी बंधनो से,,,,,,कुछ कदम साथ चले थे सड़कों पर ,,,एक टेबल के आमने-सामने बैठकर एक एक प्याला चाय पी थी,,, कल्पना मे एक दूजे को लेकर जो रूपरेखा तैयार की थी उससे मिलान करने के लिए थोड़ा समय निकाल पाए थे सामाजिक बंधनों की आंखों मे धूल झोंककर । रात मुस्कुरा रही है,,, उन नीजि क्षणों को अभिव्यक्त कर के। हाथों से छुआ नही पर आंखें छू गई थी हर भाव को,,,,,,,चित-परिचित एहसासों की मिलन बेला,,,,रात को रजनीगंधा सी महका गई।
       शाम की प्रतीक्षा थी, लोगों की जमजमाहट के बीच नज़र बचाकर आंखे चार हो जाने की आशा थी,,,उस रात के लिए श्रृंगार करने की भी बड़ी उत्सुकता थी,, बालों का जूड़ा, आंखों मे कजरा,माथे की बिन्दिया ,सब कुछ लगा कर आइने से पूछता सजनी का मन,,,,,बोल ना,,लगती हूँ ना पिया की प्यारी ???? प्रीत का सुर्ख लाल लिबाज़ पहन जब रात सीढ़ियों से नीचे उतरी,,,, सामने ही उनको बैठा पाया,,,उनकी एक नज़र जैसे पल भर मे ह्दय गति को सामान्य से दुगुना कर गई।
       बदली मे छुपते चाँद से तुम और चाँद की चितेरी रात की खोजती नज़र,,,,वो मुस्कुरा के देखना,,,अभी भी उच्छावासों की गति को बढ़ा देता है। बिहारीदास जी का दोहा जैसे इसी परिवेश को व्यक्त करता हो,,,,
"कहत नटत रीझत-खीजत मिलत खिलत लजियात,
 भरे भौन मे करत हैं नयनन् हूँ सो बात।।"
       एहसासों का चाँद अपनी प्रिये को देखकर चमक उठा,उसकी प्रीत की चाँदनी में रात सवंरने लगी,चाँद की चाहत भरी नशीली नज़र रात को मदमस्त करने लगी वह महक उठी,चहक उठी,झूम उठी,थिरक उठी,,, चाँद की हर मुस्कुराती नज़र को अपनी आगोश मे भर गुनगुना उठी,,,,"लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो,,,,,,,!"
       अविस्मरणीय यादों के सितारों से झिलमिलाती संगीतमयी रात न जाने कितनी रातों को थिरकाएगी??? ज़बां से कम नयनों से खूब बोली वह रात,,, एहसासों को छू तो न सकी,,,नयनों के आलिंगन मे न जाने कितनी बार खिली वह रात,,,,!!!! उस रात की चमक को पलकों मे बंदकर सो गई आज की रात,,,,शायद सपनों मे फिर से महफिल सजे 'एहसासों' से लिपट फिर से झूम जाएगी रात,,,,,,,,,,!!!!
        

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

विश्व रूप सा प्रेम तुम्हारा

                      (चित्र इन्टरनेट से)

             हे प्रियतम! विश्वरूप सा वृहद प्रेम तुम्हारा
             मेरा सर्वस्य तुमसे ही उत्पन्न है,
             तुममे ही विलीन हो जाएगा।

            हे प्रियतम! दिव्य प्रकाशपुंज सा प्रेम तुम्हारा
            मेरे अन्तर्मन का तम तुमसे ही ज्योर्तिमय है,
            तुममे ही प्रकाशित हो जाएगा।

            हे प्रियतम! महासागर सा धीर-गम्भीर प्रेम तुम्हारा
            मेरी समस्त भावनाएँ तुमसे ही तरंगित हैं,
            तुममे ही समाहित हो जाएगीं।

            हे प्रियतम! हिमाद्रि श्रेणियों सा उच्च प्रेम तुम्हारा
            मेरी समस्त आकांक्षाएँ तुमसे ही पराकाष्ठित हैं,
            तुममे ही स्थिर हो जाएगीं।

           हे प्रियतम! प्रचंड वायुवेग सा प्रवाहित प्रेम तुम्हारा
           मेरा सर्व उल्लास तुमसे ही गतिमान है,
           तुम्हारे आवेग मे ही बह जाएगा।

          हे प्रियतम! दिव्य अलौकिक अनुभूति सा प्रेम तुम्हारा
          मेरा अस्तित्व तुमसे ही दीप्तमान है
          तुममे ही चिरनिद्रा मे लीन हो जाएगा।

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

जीवनसाथी

                        (चित्र इंटरनेट से)

              जीवन की जटिलताओं से परे,जीवन की                     सरलताओं को आत्मसात कर साइकिल पर                  सवार दो मतवालों की मस्ती😊😊*****


                 एक दीवानी,,,बस आपकी
                 और कहे पगला ,,,,तुम्हारा
                 चली जीवन की साइकिल
                  गुनगुनाए,,,,तरा-रा-राऽऽ

                  उबड़-खाबड़ से हैं रास्ते
          :       कभी तेज़ कभी आहिस्ते
                  धड़कने बजती ट्रिगं-ट्रिंग
                  दो राही चले,,,हसंते-हसंते

                  बैठूँ मै रखके, कांधे पे हाथ
                  झूमे मस्ती में दिलों का साथ
                  लहराती चली रे साइकिल!!!
                  गीतों का रेला बन गूजे रे पाथ
               

                   एक दीवानी,,,बस आपकी
                   और कहे पगला,,,तुम्हारा
                   चलो क्षितिज के पार चलें
                   हम गुनगुनाते,,,,तरा-रा-रा।


गीतांजली ,,, जीवन संगीत

(प्यारी गीतांजली को चित्र के लिए आभार)


             किसकी तरंगित बातें आपकी चिलमन झुका गई,
             गाल हुए सुर्ख,और लबों पर मुस्कुराहट छा गई।

             चाँद सी चमक चेहरे की एक दास्तान सुना गई,
             कांध पे सिमट जुल्फ , काली घटा शरमा गई।

             खनक उठी आब-ओ-हवा आपकी आवाज़ से,
              पायल पहन हसरत कोई माहौल को झनका गई।

             बातें तेरी संगीत सी किसको यूँ गुनगुना गई,
             बन के किसकी गीतांजली सरगम नई बना गई ।

             छलक रही रूपमाधूरी सौन्दर्य सरिता बहा गई,
             भावों की लहर उठे सुनहरी छटा बिखरा गई।
 
             किसकी तंरगित बातें आपकी चिलमन झुका गई,
             गाल हुए सुर्ख,और लबों पर मुस्कुराहट छा गई।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

नेहा के नेह मे कुछ पंक्तियां ,,,

          (चित्र के लिए प्यारी नेहा को आभार)

              आपने तो अल्फाज़ों को महका दिया,
              गुलाब से चेहरे से जब नक़ाब हटा दिया।

              एक तो गुलाब उस पे शबनम सा शबाब,
              ठगे से हम, देखते रहे  हुस्न का आब ।

                 सुनहरी धूप सा खिला नूरानी चेहरा,
                 माथे पर लहराती जुल्फ़ों का पहरा।

                 कमान सी भौओं बीच तारे सी बिन्दिया,
                 ख्वाबों में खोई निगाहें उड़ाए निन्दिया।


                 सुर्ख होंठों पर बिखरी तब्बसुम सी नमी,
                 मासूम सी सूरत जैसे कोई खिलती कली ।

                 हुस्न की तासीर ने फितरत को बहका दिया
                 गुलाब से चेहरे से जब नक़ाब हटा दिया ।

मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

पिया का संदेस



                  पिया की बावरी बन गई अंखियां,
                  करेजवा को न भाएं अब प्यारी सखियां।
                  जाने हूँ न ठाह इनकी पिया का देस,
                  जिया को ठंडक पहुँचाए तोहरा संदेस।

रात रोए बिरहन सी,दिन लगे भार,
भाए नही मोहे कोई साज न सिंगार।
तन-मन सब वार तोह पे जोगन बन जाऊँ,
तुम श्याम पिया मेरे मै मीरा कहलाऊँ।

              जादूगरनी तुम कहो,मै कहूँ चितचोर,
              तुम संग उलझ गई सजन जीवन की डोर।
              मांग मे नही सिंदूर तेरे नाम का तो क्या,
              आत्मा ने रच लिया तेरे संग ब्याह।

सागर सी प्रीत तेरी मै सरिता की धार,
जनमों से हूँ मै सजन तेरे हिया का हार।
जाने हूँ फिर भी ठाह नही पिया का देस,
जिया की ठंडक एक तोहरा संदेस।।

बुधवार, 30 नवंबर 2016

एक शाम अकेली सी,,

                          (जिम काॅर्बेट की एक सुहानी शाम)


             एक शाम अकेली सी,एक रात हुई तन्हा,
             चाँद को खोजे ज़मी,बेचैन सा हर लम्हा।

             हर याद सितारों सी, हर शय में तेरा मजमा।
             कोई आज ख्यालों में ,अंम्बर सा फैल गया,
         

             आहट तेरी बातों की ,सुनसान सी राहों पे,
              तेरी चाप है मस्तानी, हर रस्ता ठहर गया।

              हर शजर पे बिखरी है, अंगड़ाई तेरी मस्ती की,
              छू कर जो हवा गुज़री,मेरा दामन लहर गया।

              खामोश से मौसम मे, कोई साज़ नया गूँजा,
              धड़कन दिवानी, हर अरमान मचल सा गया।।

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

"मै"

                     (चित्र इन्टरनेट से)

मेरा 'मै' कुछ सुगबुगा सा उठा है,साधारणतयः बहुत ही शान्त रहने वाला अन्तरमुखी है। आज अकस्मात बोल उठा,और बहुत कुछ बोल गया,,,,,,,,मै न तो कट्टर नारीवादी हूँ न ही विरोधी, ये विचार एक सहज मनोभावों का बहाव है। नारी को प्रकृति का रूप माना गया है,प्रकृति एक गूढ़ रहस्य है। नित नए रहस्य प्रकृति को एक नवीनता प्रदान करते हैं, यही उद्घाटित रहस्य जीवन के प्रति  जिज्ञासा का पुट डाल देते हैं एंव जीवन मे प्रगतिशीलता बनाए रखते हैं।
   सृष्टि की समस्त नारी जाति रूप रंग,आचार व्यवहार मे भिन्नता लिए हुए क्यों न हो परन्तु उनका 'स्त्रैण' उनकी आत्मा का मूल समभावी होता है। वेद-पुराणों मे स्त्री को भौतिकता का प्रतीक माना गया है, और प्रकृति के गुणों को स्त्री गुणों का दर्पण कहा गया है।
    जब 'मै' की बात करती हूँ तो डूब जाती हूँ एक प्रश्न चिन्ह अपना आकार बड़ा करता नज़र आता है,,,,,,मेरा नाम मेरी पहचान है? या मेरे द्वारा निभाई जाने वाली विभिन्न भूमिकाएं मेरी पहचान हैं? जब सुनती हूँ "खुद से प्यार करो" तो भ्रमित हो जाती हूँ,,,, कि अपने  द्वारा निभाई जाने वाली कौन सी भूमिका से प्यार करूँ????????  क्योकि मै मुझमे बहुत कुछ समेटे हुए हूँ,,,,किसी एक का त्याग करते ही मेरा व्यक्तित्व अधूरा हो जाता है।
   नारी की सृष्टि जन्मदायिनी, जीवनचक्र को निरन्तरता प्रदान करने वाली, ऊर्जा एंव शक्ति संचार, करने वाली एक ऐसी सशक्त धुरी  के रूप मे हुई है, जिसके कारण सृष्टि सतत् प्रवाहवान है।  स्त्री 'मै' का विस्तार कितना व्यापक और रहस्यमयी है इसकी कल्पना करपाना असम्भव है।
       जीवन के कई उतार-चढ़ावों की मूक दृष्टा रहकर मैने बहुत कुछ सीखा,और अनुभव अर्जन चालू है। अपने उन्ही अनुभवों को व्यक्त करने लगी हूँ आज,,,!!!!
      पृथ्वी की भांति बहुत कुछ गर्भ छुपाकर रखा,उपरी सतह स्थिर आन्तरिक हलचल को कभी प्रकट नही होने दिया, परन्तु कुछ असहनीय हुआ तो हलचल भूकंप की तरह आई और बस्तियां उजाड़ गई। ,,,, हताहत 'मै' भी हुआ , ये विनाश अनुभवों के ध्वंसावशेष छोड़ गए।
    अपनो मनोभावों को जब खुल कर प्रस्फुटित होने दिया,,,,पृथ्वी पर ऋतु-परिवर्तन देखे गए। "मै" जब प्रेम से सराबोर हो उठी तो बसंत सर्वत्र अपना सौन्दर्य बिखेर गया,,,रंग-बिरंगे पुष्पों और आम के बौर की महक, मादकता और नैसर्गिकता के चरम पर पहुचँते हुए देखी गई।
   क्षोभ,कष्ट,वेदना की ऊष्मा ने ग्रीष्म ऋतु कि भांति पूरे वातावरण को शुष्क और कटीला बना दिया,,,ऊष्मा और ताप से नदियों का जल वाष्प बन मेघ बन गए,,,,,और जब ये मेघ भारी होकर द्रवित नयनों से बरस पड़े तो वर्षा ऋतु का आगमन हुआ।
     "मै" जब स्वंय को व्यक्त करने मे असमर्थ हुआ, अपेक्षा की,,,,कोई मेरे नयनों की मूकभाषा को समझ जाए,,,मेरी कर्तव्यपरायणता, मेरी निष्ठा,मेरे समपूर्ण समर्पण को स्वीकृति दे,,,,,अनुकूल प्रतिक्रिया के संकेत ना मिलने पर मैने स्वयं को 'शीत-काल' की भांति सिकोड़ लिया,,,अपनी इच्छाओं ,आशाओं को ह्दय के मोटे कम्बल मे लपेट लिया।
       मै चंचल नदी की भांति निःशब्द नीरव जंगलों मे जीवन के सभी अवसादों को परे रख अलमस्त हो बही ,,,ऊँचे पहाड़ों से पूरे आवेग के साथ बेपरवाह हो नीचे गिरी,,,,,सब कुछ अपने वेग मे समेटे मै बहती गई,,,देती गई,,बिखरती गई,,सिमटती गई,,झुकती गई,,खुद को संवारा भी,संभाला भी,उजाड़ा भी और बसाया भी,,,,,,,,,,,,,, एक छोटा सा "मै" ,,,,,, इतना विस्तृत,,, अचम्भित कर गया!!!!!!! खुद को किसी के बाहुपाश में बांध अपने सभी गुण-दोष ,सफलता-असफलता की चिन्ता को दरकिनार रखने की आशा भी की, तो सभी बंधनों को तज उन्मुक्त गगन मे उड़ने भी लगी।
    ज़िद भी की,नादानी भी की, परस्वार्थ का साधन भी बनी,,,, सह भी गई,,कह भी गई,,,,मेरा रूप तो वृहद विशाल है,,,,किस रूप से प्यार करूँ?????? यह सब बस लिखा,किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की अभिलाषा नही। एक चंचल मृग की तरह अभिव्यक्तियाँ कुलाचें भरने लगी ,हाथों की उंगलियाँ लिसपिसा उठीं,,,और कलम चल पड़ी।
   'मै' दयनीय नही है,,वह चट्टानों सा सशक्त और कठोर भी है, "मै" सहानुभूति  की याचना नही करता,,,,स्वालम्बी,दृढ़निश्चयी ,और परिस्थिति के अनुरूप ढालने मे यथासम्भव सक्षम है। जीवन के दायित्वों का निर्वाहन कुशलतापूर्वक करते हुए अपनी अभिरूचियों और संवेदनाओं को सवांरना और संचित करना भलि-भांति जानता है।
    मैने ये अनुभव किया है सृष्टि की सुन्दरतम रचना हूँ "मै" ,,,,, एक अद्भुत शक्ति का संचार पा रही हूँ आज। एक लम्बा सफर तय करना है,, उत्सुकता है कौतूहल है मार्ग मे आने वाले पड़ावों के प्रति ,स्वयं को और जान पाने के प्रति ,,और आप साथ हैं तो सांझा करने का अवसर भी मिलता रहेगा,,,इसी आशा के साथ लेखनी को विराम,,,,,।


बुधवार, 16 नवंबर 2016

मेरे जीवन की काव्यमयी यात्रा की रूपरेखा,,,

                       (चित्र इन्टरनेट से)
 एक अनुभूति सर्द प्रभात की सिहरन के साथ पाई, जब जीवन मे 'कविता' को जीने लगे मनुष्य ,तो उसे लिख पाना कठिन होजाता है। सुन्दर उपमाएँ ,अलंकार,शब्द सब आसपास नर्तन करते हैं परन्तु उन्हे एक निश्चित निर्धारित पंक्तियों मे समेट पाना कठिन हो जाता है।
   पद्य गद्य बनने लगता है ,और गद्य मे पद्य का रस आने लगता है,,,,आपको हास्यकर लगा ना,,,? पर मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है। कुछ वैसा ही जैसा रसना द्वारा स्वादिष्ट भोजन का रसास्वादन पाकर जो आत्मतृप्ति होती है उसे खाने वाला अनुभव तो करता है परन्तु तत्काल उसकी अभिव्यक्ति नही कर पाता।
  एक विचार यह भी आया कि- काव्य को जीने मे जब परमानंद की अनुभूति होने लगती है तब ह्दय अधिक सक्रिय हो धमनियों मे भावनाओं का रक्तसंचार सम्पूर्ण वेग के साथ करने लगता है,फलतः मष्तिष्क की  'सोच-विचार', "नाप-तोल" करने का चातुर्य निष्क्रिय पड़ जाता है। हाथ मे कलम और डायरी लेकर बैठ तो जाती हूँ, परन्तु ह्दय से होने वाली भावनाओ का निरन्तर प्रवाह हाथों  रोक देता है, मष्तिष्क उनके वशीभूत हो बोल उठता है- "अरे ज़रा रूक ,,,,इस मखमली एहसास के हर एक घूंट का ज़ायका लेते हुए पी तो लूँ,,,,,,,!!!! समस्त इन्द्रियां भावनाओं के समुन्दर मे गोते खाने लगती हैं। कैसे दिल  दिमाग पर हावी होता है,,,,,,,,,,, है ना,,,,!!!!
      भावनाओं के रसास्वादन मे पूर्णतया सराबोर होने के पश्चात जब मै उस अलौकिक तंद्रा से बाहर आकर कुछ नपे तुले शब्दों में अभिव्यक्ति करने का प्रयास करती हूँ तब मुझे शब्दों का अभाव दिखता है और यदि शब्दों का जुगाड़ कर भी लिया तो वह रस नही भर पाती जिसका पान मैने किया।
    शुष्क मरुस्थल मे बैठ निर्मल शीतल जल की प्यास मे कई कविताएँ लिख जाएं,परन्तु जब तिलमिलाती प्यास मे शीतल जल मिलजाए,,,,,, उस तृप्ति की अभिव्यक्ति कर पाना क्या सचमुच सम्भव है,,,,,?
   'कविता' का जीवन मे आना ईश्वरीय आशिर्वाद है,,,,, मनुष्य का प्रारब्ध है। जो इस आशिर्वाद से अविभूत हुआ,,,जिसने कविता को 'जिया'  वह बस उसी का होकर रह गया,फिर तो कविता एक वातावरण के भाति चतुर्दिक आच्छादित हो जाती है, मनुष्य कवितामयी हो प्रत्येक क्षण को 'जीने' लगता है, जीवन के अन्य सभी कार्य स्वचालित हो जाते हैं। एक ऊर्जा एक रचनात्मकता का सृजन होता है, और यह रचनात्मक सृजन व्यक्तित्व को एक आभा प्रदान करते है।
    यहाँ तक लिखने के बाद मै इस निष्कर्ष पर आई कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन की 'कविता' को पहचान कर उसे पाने का प्रयास करना चाहिए,,,,और यहीं से एक विकास प्रक्रिया का उद्गम होता है,,,,,,'प्रयास' 'प्राप्ति' 'प्रवाह',,,,,,,,।
   जब हम कविता को जीवन मे लाने का यथासम्भव 'प्रयास' करते हैं,,, साधना कर उसे शब्दों से सुस्जित करते हैं,,, भावों का आलिंगन देते हैं,,और अभिव्यक्ति का प्रोत्साहन देते हैं,,, विचारों का आदान-प्रदान,,,,,करते हैं, यह एक लम्बी प्रक्रिया होती है। परिणाम स्वरूप विकास का द्वितीय चरण 'प्राप्ति आता है। दोनो के पारस्परिक विलयन का चरण , एक दूसरे मे पूरी तरह डूब एकीकार होजाने का समय,,,,,,।
      पारस्परिक विलयन के फलस्वरूप कविता की हर विधाओं से परिचित हो हम कवितामयी हो जाते हैं इतना आत्मसात कर लेते हैं एक अन्य को,, कि विकास के तृतीय चरण मे पहुँच 'प्रवाहित होने लगते हैं,,,उसे जीने लगते हैं।  इस चरण मे अभिव्यक्ति के लिए सोचे विचारे', नपे तुले अथवा सटीक शब्दों की जुगाड़ की आवश्यकता नही होती। काग़ज -कलम लेकर बैठते ही भाव अविरल रूप से प्रवाहित होने लगते हैं।
    अविरल भाव प्रवाह की इस बेला मे आत्मअभिव्यक्ति के दो रूप दिखाई देते हैं,,,, या तो वह निःशब्द या मूक हो जाती है,,,,या फिर काग़ज पर खींची लाइनों की परवाह किए बगैर लहराती हुई रस-सागर उड़ेलती हुई बहने लगती है। सब स्वचालित हो जाता है, उन्मुक्त हो जाता है।
   मै भी जीवन मे कविता को लाने के लिए सतत् प्रयासरत हूँ ,अपनी इस प्रयास यात्रा की शुरूवाती  रूपरेखा को इस लेख मे खींचने का प्रयत्न किया है,,,,,पता नही यह लेख विकास के तीन चरणों 'प्रयास',प्राप्ति' और 'प्रवाह' तीनों मापदंडों पर खरा उतरा या नही ,,,इसका निर्णय आप पर छोड़ा 😊।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

जुगलबंदी

(चित्र इन्टरनेट से)


                     एक चादर और दो बदन
                     प्यार का एहसास और नरम सी छुवन

                     सांसों की सांसों से जुगलबंदी
                     नयनों की नयनों से कहा सुनी

                     बाहुपाश मे रंग बदलता अभिसार
                     गुलाबी सी सिहरन में प्यार का विस्तार

                     कलिदास की मेघदूत,तुम रवीन्द्र का संगीत
                    प्रीत की बांसुरिया पर थिरके पायलिया के गीत

                    अह्लादित भावों से करे प्रीत है श्रृगांर
                     लाज भरे नयन बने पिय गले का हार

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016

जुगलबंदी



(चित्र इंटरनेट की सौजन्य से)

                ☆☆इश्क की इबादत☆☆


            करूँ इश्क़ की बात तो इबादत लगे
            ग़मज़दा ख़यालों की शहादत लगे
            एहसास उनकी खुश्बू का खिलाये फूल
            मशगूल ज़िन्दगी की यह आदत लगे

            वह भी बहुत मशरूफ व्यस्त हम भी
            ज़िन्दगी लगे खिली जो सोहबत मिले
            इतवार की सुबह बिस्तर पर बिछे हुए
            ख्यालों में चिपके रहे जो मोहब्बत मिले

            रु-ब-रु मिला न स्पर्श किया उनका अभी
            कभी जुदा न हों उनसे यह हिदायत मिले
            संवर जाती हैं लटें दे रुखसार को लाली
            कल रात सो गया जल्दी जो तोहमत मिले

             इश्क़ अपना जुगनू सा टिमटिमाता रोशन
             बस दुआ मिले यूँ ही दर बदर रहमत मिले
             बड़े तकदीर से होती है मोहब्बत भी नसीब
             मिले सभी को सही प्यार न जहमत मिले।

             ************************

        ☆☆बंदगी की अलख जगी☆☆☆


               डूब गया मैं संग तिहारे सजनी
               मनवा बेईमान तुम्हें निहारे सजनी
              अंग अंग अगन लगी एक थाप चली
              किस गति से तुम्हारे पास पधारूँ सजनी

              तुम तलाश हो पलाश हो बस आस हो
              एक एहसास हो मधुमास हो बस ख़ास हो
              प्रीत विश्वास लिए टिप टिप करे धमनी
              कहो क्या आज करूँ अंग साज सजनी

              मन मुक्त है तुम उन्मुक्त हो सब व्यक्त
             अंग संग नहीं हो तुम कहीं न हो अभिव्यक्त
             क्या सोच रही क्या खोज रही ज़िन्दगी
             बंदगी की जगी अलख पुकारे मनवा सजनी

              चाहत की बंधन हो प्यार भरा क्रंदन
              निस दिन बयार मन तुम्हारा करे वंदन
              सांस सांस मेरी गुहार करे प्यारी सजनी
              तुम ही मेरी भोर खिली मादक सी रजनी।

              *****************************

           ☆चाहत भागे बिना लगाम☆

            मैं घर में खाली हूँ बैठा
            वह निपटाएं घर का काम
            इश्क़ बेचारा बन कर बैठा
            चाहत भागे बिना लगाम

            सब समझौता से ही चलता
            प्यार हो या घर के काम
            कामवाली जब आये रोज
            फिर भी घंटो करती काम

            यही भारतीय नारी है
            लिए घर की जिम्मेदारी है
            इश्क़ विश्क सब देती समेट
            घर के आगे सबको प्रणाम

            मैं घर में खाली हूँ बैठा
            वह निपटाएं घर का काम
            इश्क़ बेचारा बन कर बैठा
            चाहत भागे बिना लगाम।
*****************************

 गौरैया नही बोली
*************
सुबह कुलबुला उठी
प्रिये कुछ नहीं बोली
सूरज भी निकल आया
पर गौरैया नहीं बोली

सुबह की खामोशी
गहन मौन हिंडोली
बाधित सम्प्रेषण
प्रिये कौन सी पहेली

हर सुबह गुनगुनाती
प्रिये रोज मिले नवेली
आज क्या बात हुई
प्रिये रुकी रही अकेली

अबोला आसमान रहा
धरा की रही ठिठोली
एकतरफा चैट रहा
यह कैसी सुबह हो ली।

परिवर्तन



               आज द्रवित भावों को उन्मुक्त हो,
               अविरल कागज़ पर बह जाने दो।

               छंदबद्धता की तोड़ सीमाओं को,
               कविता में ढल रच जाने दो।

               सशक्त जीवन के आधार लगे हिलने,
               रोको न इसे ढह जाने दो।

               परिवर्तन का चक्र धड़ाधड़ भागे,
               स्वीकारो परिवर्तन व्यर्थ न जाने दो।

              नवजीवन अंकुर भविष्य में अकुलाए,
              आशाओं को हो सिंचित नव उम्मीद जगाने दो।

              ध्वंसावशेष की बानगी बतलाये वह बातें,
              धूल से कर अभिषेक, कूट शब्द् खुल जाने दो।

              मोह बंध से परे जीवन की यह थिरकन,
             आत्मसात कर भाव, सत्य सुगम हो जाने दो।

अलमारी का 'वो कोना'

                           (चित्र इन्टरनेट से)

  दिल करता है तुमको अपनी अलमारी के किसी कोने मे
  अच्छे से सहेज कर रख दूँ,और
  मशगूल हो जाऊँ रोज़मर्रा की भाग दौड़ मे।

  मशरूफियत इतनी हो कि अलमारी का 'वो कोना'
  दिल के किसी कोने मे दफ्न हो जाए,
  कोई साज़ कोई आवाज़ वहाँ तक न पहुँच पाए।


  मेरी सुबह बालों का जूड़ा बड़ी बेतरबी से बनाते हुए
  किचन की तरफ दौड़ते हुए शुरू हो,और
  रात जूड़े के क्लचर को तकिए के नीचे खोंसकर सो जाए।

  इतवार की अलसाई सुबह,चाय का प्याला,मोबाइल मे
  तुम्हारी पुरानी 'चैट' को पढ़ते हुए शुरू हो
  फिर 'सन्डे स्पेशल ब्रेकफास्ट' की तैयारी मे धूमिल पड़ जाए

  कुछ साल बाद अस्त-व्यस्त अलमारी को करीने से लगाने बैठूँ
  'उसी कोने 'मे मेरा हाथ चला जाए, मैं धीरे से तुम्हे निकालूँ
   मुस्कुराते होंठों और सजल नयनों से जीभर देखूँ।

  साड़ी के आंचल से तुम्हारे चेहरे को पोछू,हृदय से लगाऊँ
  भारी मन से वापस उसी कोने में सहेज कर रख दूँ।
  आंखों के आसूँ गालों तक आकर सूख जाए

   एक गहरी सांस के साथ फिर से मशगूल हो जाऊँ
   अलमारी का 'वो कोना' दिल के किसी कोने में खोजाए
   कोई साज़, कोई आवाज़ वहाँ तक ना पहुँच पाए।

  

रविवार, 2 अक्टूबर 2016

दादा जी की यादें

                      (मेरे सुपुत्र प्रीतीश द्वारा रचित)

           
                   एक छोटा सा सपना लेकर आए थे वो,
                   वह नहीं हैं अब,उनकी याद दिलाते हैं जो।

                    नाक पर उनके रहता था चश्मा,
                     बातों मे उनकी अजब करिश्मा।

                    अब क्रिकेट देखने मे क्या मज़ा
                    उनकी टिप्पणी के बिना,

                    शिखर हटाओ, धोनी लाओ
                    छक्का मारो ,मैच बचाओ।

                     हरदम कुछ थे नया  सिखाते,
                     बात पते की थे सदा बताते।

                     न भूलूगाँ मै उनको कभी
                     यादें रूलाए मुझे सभी।

                   
               
                 
           
   

A heartfelt tribute to a Grandfather by his Grandson......


   Your advices of gold will never get old

( poem by my elder son Pritish)

           Those deep thinking eyes
           I will never see
           The stern but soft voice
           Will never be heard.
    Oh! Those fruitful discussions
         We won't have any
        I have seen greats
But like you, I've not seen any.
       You old wise brigadier
       I'll remember you always 
Your eyes in mine, and your voice in my  ears.
   Your loss is difficult to bear
   But your thoughts will stay with me
   Forever.
   It will be hard to let you go,
My friend ! Harder it will be to forget
Your smile in the end.
   Your advice of gold
    Will never get old.
    You are gone but you left your ideas
    And traits you wore.
Your presence will never be absent,
      but Home and my heart aren't the same anymore.



गुरुवार, 15 सितंबर 2016

तुम चाँद मै चाँदनी

                   
                      चाँद हो तुम मै चाँदनी हूँ
                      तुम्हारे प्यार की रोशनी हूँ
                      चमक तुम्हारी दिल की दमक
                      ओ मेरे राग मै तेरी रागिनी हूँ।

मेघ हो तुम मै दामिनी हूँ
तुम्हारे कल्पनाओं की कामिनी हूँ
लिए भावनाओ के रंग जामनी हूँ
थाम हाथ चलूँ मै जीवनसंगिनी हूँ।

                     सागर हो तुम मै तरंग हूँ
                    तुम्हारे प्रेमधुन मे मस्तमलंग हूँ
                    कभी शांत तो कभी हुड़दंग हूँ
                    जीवन की लहरों मे तेरे संग हूँ।

रविवार, 11 सितंबर 2016

प्रिय बैरन भई अंखियाँ

       



ना जाने क्यों भर आई अंखियाँ,
ओ प्रिय हमने न की कोई बतियां।

प्रिय बड़ी बैरन भई अंखियाँ,
तुम नयनन् मे बसे,
इन्हे सुहाए ना ये बतियां,
येही कारन भर भर आए अंखियाँ
असुअन की धार संग
पिया को बहाए अंखियाँ।

ना जाने क्यों भर आई अंखियाँ,
ओ प्रिय हमने न की कोई बतियां

सुन रे पिया बड़ी चालबाज भईअंखियाँ
जो देखूँ नयन भर के तोहे
पलकन ने झुकाए अंखियाँ
प्रीत की तोसे न बतावन दे बतियां।

ना जाने क्यों भर आई अंखियाँ,
ओ प्रिय हमने न की कोई बतियां

पिया तुम बतियाओ मोह से
तो लजाए सकुचाये यह अंखियाँ
बिन कहे सबहिं से रहि बोले
सौतन बन गयी सजन यह अंखियाँ

हाय बड़ी बैरन भई अंखियाँ
येही कारन बिन बात भर आए अंखियाँ।


बुधवार, 31 अगस्त 2016

बाल कविताएँ

               गुरू की महिमा

                   (अध्यापक दिवस विशेष)
          गुरू ज्ञान का सागर है,
          सतपथ पर दीप उजागर है,
          जीवन का पाठ पढ़ाने वाले
           गुरू ब्रह्म के बराबर है।

                    निस्वार्थ भाव से बाँटे ज्ञान,
                    मन-मस्तिष्क का करे उत्थान
                    गुरू महिमा का कोई ओर न छोर
                    शीष झुकाकर करो प्रणाम।
             
                       *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*


                         मेरे सपनों का भारत

                        (नन्हे-मुन्नो के कोमल मन सा भारत)


           खुली हवा और स्वच्छ धरा हो,
           खेल-कूद के लिए जगह हो
           हर नन्हे हाथों मे कलम और
           आँखों मे सुन्दर सपना हो।
                    ऐसा मेरे सपनों का भारत 
                    मेरे कोमल मन सा भारत।।
            जाँति-पाति के झगड़े ना हों
             भेद-भाव के रगड़े ना हों,
            सब मिलजुलकर गाए गान,
            मेरा भारत बने महान।
                     ऐसा मेरे सपनों का भारत,
                      मेरे कोमल मन सा भारत।।
            
           

सोमवार, 22 अगस्त 2016

बोल सखी क्या बात करूँ,,,,,,,?

(प्रिय सखी गीतांजली को आभार)

                       बोल सखी क्या बात करूँ,
                       मनु हृदय का हार बनूँ?
                       बाहुपाश मे उनके कसकर,
                       उच्छावासों से मौन संवाद करूँ।
   
                      बोल सखी क्या श्रृंगार करूँ,
                       पिय नयनन् की ठाह बनूँ
                       या तज सारे सौन्दर्य  प्रसाधन
                       सहज रूप मे आन मिलूँ ?

                        लाज शरम से नयन झुकाकर
                        प्रेमपाश का वरण करूँ,
                        या शब्दों मे उनको भरकर
                         प्रीत गीत का पाठ करूँ ?

                          नृत्यमयी हो धरा गगन सब
                          प्रिय संग ऐसा रास रचूँ,
                          अंग अंग हो प्रीत की थिरकन
                          कौन सा ऐसा ताल गढूँ ?

                          बोल सखी क्या बात करूँ?
                          मनु हृदय का हार बनूँ.......

शनिवार, 30 जुलाई 2016

शब्दों की महिमा

                                         (चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)

   'शब्द ब्रह्म है', 'शब्दों का चातुर्य','शब्दों का भ्रमजाल','शब्दों का पहाड़',,,,,ढाई अक्षर का यह 'शब्द'  कितना प्रतिभाशाली,,,कितना प्रभुत्वशाली !!!!!!इसकी महिमा अबरम्पार है,कभी सोचती हूँ तो अस्मंजस्य के विशाल सागर में डूबती जाती हूँ।
    इनका प्रभुत्व और प्रभाव कल्पना से परे है,'शब्दों के तीर ह्दय को चीर भी जाते हैं, तो घावों पर मलहम भी लगाते हैं। हतोत्साहित चित्त को उत्साह से लबालब कर सकते हैं तो थोडे से प्रयास मात्र से जोश से भरा मटका चकनाचूर भी कर सकते हैं।एक युद्धनायक  के मुख से निकलने वाले वीरता, त्याग,बलिदान की भावना से भरे 'शब्द रूपी अग्निबाण' सेना पर जोश और उत्साह की अग्निवर्षा कर देते हैं जो कि कभी कभी साधन व संख्या के अभाव मे भी सेना के मनोबल को नही टूटने देते।
     एक उदास और एकाकी मन को यदि 'प्रसन्नचित एंव चुलबुले शब्दों' का सानिध्य मिल जाए,,,तो कब उदासीनता और एकाकीपन रफूचक्कर हो जाता है,पता ही नही चलता।
ह्दय मे प्रेम पुष्प खिला सकते हैं तो उतनी ही सक्रियता से मन को हताहत भी कर सकते हैं। द्वेष,घृणा,भय आदि सभी मनोभावों को बखूबी अपने मे आत्मसात कर ये 'शब्द 'परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढालने का दमखम रखते हैं।
         यह सब शाब्दिक चमत्कार तभी सम्भव है जब आप 'शब्दों के धनी' हैं और उनका समयानुसार उचित प्रयोग करने मे सक्षम हैं,,,,,,,,मात्र भावनाओ का उफान 'शब्दों' के अभाव मे शून्य है। एक कवि, या लेखक जब सुन्दर और उपयुक्त शब्दों के साथ मनोभावों को अभिव्यक्ति देता है,,,,विषय का सौन्दर्य मन्त्रमुग्ध कर देता है।
       जहाँ लेखक,वक्ता यदि 'शब्दों के भ्रमजाल' से भ्रमित कर सकता है तो, मात्र अपने 'शब्द-कौशल' को दर्शाने हेतु भाव रहित, रस विहीन 'शब्दों का पहाड़' भी बना सकता है। विषय मे रूचि भी उत्पन्न कर सकता है या नीरस भी बना सकता है।
       कुशल वक्ता अपने 'शब्द चातुर्य' से जनसमुदाय के समक्ष कुशलता से अपनी बात रख ,अपने वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जनमत का रूख अपनी तरफ मोड़ सकता है।
       सम्पूर्ण समर्पण और प्रेमभाव से प्रस्तुत किए गयें शब्द दूर से ही जन्म-जन्मान्तर के बन्धनों मे बांध देते हैं,,, तो कुंठा और क्रोध भाव से भरे शब्द एक ही झटके मे सभी बन्धनों को तोड़ देते हैं।
     शब्द 'कटार' है,, शब्द 'ढाल' है,,,शब्दों से ही भावों की अभिव्यक्ति है,,,शब्द 'तृष्णा है,,,शब्द ही तृप्ति है। भावनाओं सम्वेदनाओं का मानव जीवन मे तब तक कोई अस्तित्व नही है,जब तक उन्हे उचित,उपयुक्त शब्दों मे ढालकर अभिव्यक्त ना किया गया हो।
       यह लेख शब्दों के महिमा जाल में फंसे मेरे हतप्रभ मन की एक शब्दमयी अभिव्यक्ति है,,,मेरी आत्मानुभूति है,,,,
जो कि बस शब्द रूपी ब्रह्म का एक सूक्ष्म अंश मात्र है।
और भी बहुत कुछ है मेरे चिन्तन से परे। 'शब्द ब्रह्म' है इसी निष्कर्ष के साथ मै फिर से इस महिमामय अस्मंजस्य के दिव्य सागर मे डूब जाना चाहती हूँ।
          

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

प्रेम का विस्तार




                 प्रेम का विस्तार
                 क्षितिज के उसपार
                 आत्मा से तन तक
                 जन्मों के बन्धन तक
                 ऐसी है ये डोर
                 जिसका न कोई छोर।

                  पर्वत सा धीर
                  सागर सा गम्भीर
                  पुष्प सा कोमल
                   झरने सा निर्मल
                   कहाँ जोड़ दे जाकर तार
                   है कल्पना के पार।

                   प्रेम का विस्तार
                   क्षितिज के उसपार।

                   एक शाम सा उदास
                   कभी भोर सा उल्लास
                   प्रतिक्षण है प्यास
                   दूर तक न कोई आस
                   शीतल मंद बयार
                   जीवन का आधार

                    प्रेम का विस्तार
                   क्षितिज के उसपार

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

तुम्हारी यादें,,,,

 कभी तरन्नुम सी
                               कभी तब्बसुम सी
                               कभी हल्की सी
                               कभी बहकी सी
                               तुम्हारी यादें ,,,

                          आज बहुत थाम के बैठी हूँ
                          इनको , पर,,

                              कभी बज उठती हैं,
                              कभी चमक उठती हैं,
                              कभी सिहर जाती हैं,
                              कभी बिखर जाती हैं।

                              कभी धूप सी,
                              कभी घटा सी
                              कभी पुष्प सी,
                              कभी लता सी,
                              तुम्हारी यादें,,,,

                         आज बहुत बांध कर बैठी हूँ
                         इनको पर,,,,

                              कभी खिल उठती हैं,
                              कभी बरस उठती हैं,
                              कभी महक जाती हैं,
                              कभी लिपट जाती हैं।

रविवार, 10 जुलाई 2016

मेरा स्कूटर,,,,

                            (चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)
  एक स्कूटर सी है जिन्दगी मेरी।सारा दिन सड़कों पर दौड़ती ,,,शाम को गैराज मे सुस्ताती ,,और अगली सुबह 3-4 'किक' के साथ स्टार्ट लेती हुई फर्राटे से सड़के नापती हुई चल पड़ती है।
     बड़ी नीरस सी प्रतीत हो रही है ना आपको लेख की शुरूवात?????सोचते होंगें,क्या सब लिखने लगी मै,,,स्कूटर,,सड़क,गैराज,, हा,हा,हा,हा,,,,,। मेरी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी है,,,,कुछ बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अग्रसर सोच है, एक तपस्या है, भाग- दौड़,,,और एक लंबा समयान्तराल है,,। इन सभी दैनिक आपाधापी से गुज़रते हुए, प्रतिदिन कुछ नूतन अनुभव होते हैं। वही एक जैसे रास्ते,वही चित-परिचित गन्तव्य,वही समयसारिणी,,,परन्तु नित नए अनुभव ।
    सड़कों के 'ट्रैफिक-जाम' से कुशलतापूर्वक निकलती हुई मेरी स्कूटर कभी स्वयं के 'चालन-कौशल' पर इठलाती है,,तो कभी समय,गति और सही निर्णय ना ले पाने के अभाव मे हुई त्रुटि पर मुँह छिपाती है। उन्ही जाने-पहचाने उबड़-खाबड़ रास्तों पर कभी सहजता से आहिस्ता से निकल जाती है, तो कभी उन्ही पर ज़ोर से उछलती हुई अनियन्त्रित हो जाती है।
    सड़के कभी खाली मिल जाए हुजूर तो फिर क्या कहने!!!!!! ,,,मक्खन सी फिसलती है,,,,पहियों और ब्रेक का तालमेल एकदम दुरूस्त,,,रफ्तार के साथ गुनगुनाती है,,,"जिन्दगी एक सफर है सुहाना,,यहाँ कल क्या हो ,किसने जाना",,,, मै और मेरी स्कूटर दुनिया से बेगानी ,एकदम मस्तानी चाल मे दनदनाती हुई,,,,बस पंख ही नही लगते,,,वरना नौबत उड़ने तक की आ जाती है,,,।
      एक बड़ी रोचक और मज़ेदार घटना अक्सर होती है-जब सामने या बगल से गुज़रने वाला वाहनचालक 'गलत टर्न' या 'ओवरटेक' लेने की कोशिश करता है, उस स्थिति मे उसकी अभद्रता और 'ट्रैफिक-नियमो' की उलाहना पर तेज़-तर्रार दृष्टि से कुठाराघात करते हुए बड़ी आत्मसंतुष्टि मिलती है,,,यदि किसी दिन मै ऐसी किसी उलाहनापूर्ण स्थिति का परिचय देती हूँ, तो परिस्थिति से ऐसे 'कन्नी काटती' हुए निकल जाती हूँ, मानो कुछ हुआ ही नही,,चेहरे पर यह भाव दिखाना-" ठीक है यार हो जाता है,,!" 😃
    स्कूटर चालन का सबसे सुखद और आनंदमयी दिन वह होता है,जब बारिश के आसार ना होते हुए भी अकस्मात वृष्टी पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ अवतरित हो जाती है आहहह ,,,,! गीली सड़कों पर मेरी स्कूटर के सामने पूरी लयबद्धता के साथ नाचती हुई बारिश की बूँदें,,,,हवा के तेज़ झोंके इन बूँदों को बिखेरने का पूर्ण प्रयास करती हैं, पर कहाँ,,,,!! अभ्यास इतना पक्का है,पल में,ताल पकड़ वे फिर से छम,,,छम,,,छम कर नाच उठती हैं,,,और इस छमछम के बीच लहराती हुई निकलती हूँ मै,,स्वयं को किसी सिनेमा की कुशल नायिका सा अनुभव करती हुई।
       जानबूझ कर पानी से भरे गड्ढों और सड़कों पर स्कूटर चलाना, वो 'छपाक्' की आवाज़, वो पानी को चीरते हुए पहियों का गुज़रना एक मस्ती और आनंदमयी तरंग उत्पन्न करता है।
    ये महज़ एक स्कूटरचालन नही है,,,' ट्रैफिक जाम' मे बुद्धि, विवेक और धैर्य का परिचय देना जीवन के कठिन क्षणों मे आचार व्यवहार को संतुलित रखना सिखाता है। खाली सड़कों और बारिश मे गुनगुनाते हुए सरपट दौड़ना, जीवन के उन निजी क्षणों को पूर्णता से जीने का द्धोतक है, दूसरों की त्रुटियों पर उन्हे घूरना और स्वयं की गलती पर 'कन्नी काटना' एक बड़ा स्वाभाविक  और सामान्य मनोभाव है।
   मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग,एक निष्प्राण, निर्जीव, धातुओं से निर्मित यह 'वाहन'  मेरे मन-मस्तिष्क मे उद्वेलित होते विचारों, असफलताओं,उपलब्धियों, का साक्षी है,,मेरे हर्षोउल्लास,मेरी पीड़ा और एहसासों का साथी है।
  अगर मै कहूँ मेरा स्कूटर मेरे व्यक्तित्व के विकास को एक रफ्तार देता है,,,,तो गलत ना होगा।

गुरुवार, 30 जून 2016

एक कौतूहलपूर्ण जंगल यात्रा,,,,,,

 
  कभी कुछ नही सोचता मन,,,तो कभी एक छोटी चंचल गौरैया सा फुदकता रहता है । कभी पहाड़ों सा स्थिर, गम्भीर,अचल,शांत, तो कभी झरने सा कलकल करता बहता रहता है। बड़ा रहस्यमयी, बड़ा रोचक, विस्मयपूर्ण तो कभी सहज,सरल,शांत,,,,,,,।
   मन के जंगलों में घूमने निकली थी आज, 'कौतूहल की जीप' पर होकर सवार,,पथरीले,उबड़-खाबड़, धूप-छाँव से प्रश्नसूचक मार्गों पर दौड़ती मेरी 'कौतूहल की जीप' जैसे पग-पग पर नयें भेद खोल रही थी।
  रास्ते के दोनो तरफ 'महत्वाकांक्षाओं' के लम्बे ऊँचे वृक्ष दिखे,,,, कुछ तो जीवन से जुड़ी अनगिनत आशाओं, अभिलाषाओं और इच्छाओं के वृक्ष भी थे,,,सभी के अपने अलग आकार-प्रकार थे। यत्र-तत्र उगी हुई घास और झाड़ियों, नव पल्लवित इच्छारूपी पादपों ने मन की ज़मीन को जंगल का रूप दे दिया था,,,ये इतने सघन कि कभी-कभी जीवन के निश्चित लक्ष्य के मार्ग भी गुम होते प्रतीत हुए,,,तो दूसरी तरफ उच्च महत्वाकांक्षाओं के वृक्षों ने स्वछंद एवम् आनंदमयी जीवन के आकाश को आच्छादित कर रखा था।
    इन आशाओं और महत्वाकांक्षाओं के घने जंगलों से गुजरती मेरी 'कौतूहल की जीप' खुली पथरीली घाटी पर आ पहुँची,,,,परिस्थितियों की गरमी से 'अभिरुचियों की नदी' प्रायः सूख चुकी थी,,,अवशेष स्वरूप पत्थर या कहीं-कहीं इन्ही पत्थरों पर मध्यम स्वर मे कोलाहल करती छोटी-छोटी जलधाराँए अपनी मस्तानी चाल से आँखों के सामने से गुजर रही थी। मेरी जीप के टायर इन से मिलकर 'छपाककककककक्' ध्वनि के साथ अपना उल्लास व्यक्त करते हुए निकलते गए।
  द्वेष,ईष्या,अंहकार,क्रोध, क्षोभ,तृष्णा, भय,भेद,ग्लानि,हास्य,क्रन्दन,उल्लास जैसे मनोभाव रूपी कई वन्य जीवों को एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांगे मारते पाया।
    प्रेम के सूरज की किरणों को घनी वृक्षों की छाँव के बीच झाँकता पाया। अनुभूतियों की निर्मल शीतल बयार का सुखद स्पर्श इस यात्रा को और भी रोमांचक बना रहा था।
   विस्मित थी मै,,,इन जंगलों मे न जाने कितने रहस्य छिपे हैं??? शायद एक यात्रा मे इनका उदघाट्य असम्भव था।
उस पर मेरी जीप के कौतूहल का शोर,,,,,इंजन की आवाज ने कुछ ' गूढ, शांत, शर्मिले' भावों को मेरे पास तक फटकने न दिया। मैने कई बार सोचा इस कौतूहल के शोर को कम कर किसी वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठ जाऊँ,,,, अपनी श्वास और ह्दय स्पंदन की ध्वनि तक को इन 'गूढ़, शांत, शर्मिले' भावों रूपी पक्षियों एंव वन्य जीवों तक न पहुँचने दूँ,,,,,इन भावों को जानू,,,समझू,,,,आत्मसात करूँ ,,,,,पर यह सम्भव ना हो सका,,,,इसके लिए ऐसी कई यात्राएँ करनी होंगी,,,,।
     भविष्य मे ऐसी रहस्यमयी, विस्मयकारी, रोमांचक जंगलों  की यात्राओं की योजना बनाली है,,,,,देखती हूँ और कितने अनछुए तथ्यों और भेदों से रुबरू हो पाती हूँ ।

   

सोमवार, 20 जून 2016

मेरी नृत्यमयी ईश्वरीय आराधना

                                   (चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)

 'कथक' नृत्य के तीन मूल शब्द 'तथई' ,,,,'त'-अर्थात 'तन' , -थ'अर्थात- 'थल', 'ई' -अर्थात 'ईश्वर' ,,,चरम आनंद के स्रोत को व्यक्त करता है। 'तथई' अर्थात "इस नश्वर शरीर द्वारा ,,इस थल पर  मै जो भी करूँ वह उस परमपिता को समर्पित हो" का गूढ़ भाव लिए हुए है।
   मै यहाँ किसी विशिष्ट नृत्य शैली का वर्णन नही करना चाहती, वरन् अपनी अनुभूतियों को शब्दों के 'घुघरूँ' बाँधकर नृत्य के प्रति मेरे अनुराग की ताल पर अभिव्यक्ति का नृत्य प्रस्तुत करना चाहती हूँ।
    'नृत्य' आन्तरिक आनंद की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम साधन है। तबले की थाप पर जब घुँघरूओं की झनकार ताल देती है,,,,एक ऊर्जा का संचार होता है,,,, नख से शिख तक तरंगित आनंद को अनुभव किया जा सकता है। संगीत की धुन पर थिरकते पैर एक असीम उल्लास,ऊर्जा,एवम् अद्भुत अलौकिक सुखानुभूति कराते हैं।
      नृत्य मात्र आनंद अनुभूति या अभिव्यक्ति का साधन नही,,,,बल्कि यह 'मन','  मस्तिष्क' एवम् शरीर के विभिन्न अंगों मे पारस्परिक तालमेल कराता है। शरीर रूपी संस्था मे एक अनुशासन की व्यवस्था भी करता है। एक निश्चित 'लय', 'ताल' और समय मे अनुबद्ध अंगों का संचालन करते हुए, भावाभिव्यक्ति करता अनुशासित शरीर जब नृत्य करता है,,,,तब उसके अंग-प्रत्यंग से सौन्दर्य प्रस्फुटित होने लगता है। जो नर्तक और दर्शक दोनो को मंत्रमुग्घ कर एक अलौकिक सुख देता है।
    गीत, वाद्य और नृत्य परस्पर ऐसे जुड़े हैं कि एक के बिना दूजे की कल्पना नही की जा सकती,अतः तीनों के सही तालमेल से उत्पन्न  संगीत की तरंगे वातावरण मे लहराने लगें,,,, और पैर ना थिरके,,,,,,क्या ऐसी कल्पना आप कर सकते हैं?????? मैं तो कदाचित नही कर सकती,,,!!
   नृत्य एक आराधना है हमारे अन्तरमन मे छिपे ईश्वरीय अंश को खोज निकलने का,,,,एक मार्ग है स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित करने का,,,।
   ईश्वरीय आराधना की यह नृत्यमयी मेरी यात्रा अवश्य मुझे अन्तरमन के ईश्वरीय अंश से एकीकार करवाएगी,,,, यही आशा लिए मन नाच उठा,,,,, ' तथई थेई तत्' ,,,,।
      

मंगलवार, 14 जून 2016

अन्तरद्वंद का फुटबाॅल मैच

                                      (चित्र इन्टरनेट की सौजन्य से)

  रोज़मर्रा की भाग दौड़ से जब थोड़ा सुकून पाया तो खुद को एक 'अन्तरद्वंद' से घिरा पाया। ऐसा लगा मन के दो पक्षों के बीच फुटबाॅल मैच छिड़ा हो,,,,फुटबाॅल की भाँति द्वंद कई पक्षों के पैरों की ठोकरों को झेलता हुआ इधर-उधर लुढकता पाया,,,कभी हवा मे उछलता हुआ तो कभी निष्कर्ष रूपी 'गोलकोस्ट' के काफी करीब,,,कभी सीमा छू कर बाहर की ओर एकदम विपरीत 'पाले' मे पहुँचता हुआ पाया।
      भावनाओ का परस्पर द्वंद वास्तविक जगत के प्रामाणिक मानदंडों के साथ,,,,कुछ पूर्व अनुभवों के साथ। जिस पल मन की कोमल भावनाएँ एक ज्वारभाटे की तरह उत्तेजित हो जाती हैं,,,,सभी प्रामाणिक मानदंडों और तथ्यों को अपने प्रबल उन्मादी वेग मे पता नही कहाँ बहा ले जाती है। उचित-अनुचित,,, अच्छा-बुरा कुछ समझ नही आता,,ह्दय एक ही गुहार लगाता है,,, सोचो मत बह चलो,,इसी 'बहाव' में असीम आनन्द छुपा है।
      एक' श्वेत अंधकार 'सा 'अन्तरद्वंद' ,,,अस्पष्ट सा,,,भय, भ्रम और अनिश्चितता का 'श्वेत अंधकार' ,,,,किसी निर्णय पर पहुँच पाना आसान नही,,,फुटबाॅल की तरह इधर-उधर लुडकते रहना।
   अन्तरभावों का जब प्रामाणिक तथ्यों के साथ टकराव होता है,,,,तब भावनाएँ वर्तमान क्षण को जी लेने की कहती हैं,,, तो द्वतीय पक्ष कहता है- भावनाओ को महत्व दिया तो भविष्य बिखर जाएगा,,,,तृतीय पक्ष आवाज़ देता है,,,, आजि छोडिए कल किसने देखा,,,?? विषम हालात् किसी एक को चुनने की विवषता,और निष्ठुर काल गति को रोक पाना अस्मभव,,,!!
     ये अन्तरद्वंद कभी समाप्त नही होते, प्रतिदिन एक नए विषय के साथ हमारे सम्मुख मुहँ बाए खड़े हो जाते हैं। आने वाला समय हर समस्या का निदान साथ लाता है, परन्तु इस मन का क्या????? फुरसत के दो पल साथ क्या बिताने बैठी,,ये तो मेरे साथ 'अन्तरद्वंद का फुटबाॅल मैच' खेलने लगा
     मानव-मन की एक बड़ी स्वाभाविक प्रक्रिया,,, थोड़ी देर के इस मैच मे,,उत्तेजना है,,छटपटाहट है,,अनिश्चितता है,,अस्पष्टता है,,उथल-पुथल है,,,,, परन्तु कब एक "परफेक्ट किक" के साथ फुटबाॅल 'गोलकोस्ट' मे पहुँच जाती है, और हम खुद को द्वंद से बाहर पाते हैं।
   अकस्मात् मन कह उठता है,,,जो होगा देखा जाएगा,,,,,,,परन्तु कुछ पलों का भावनाओं का यह मंथन बहुत से तथ्य सामने लाता है, एक नई सोच को दिशा देता है,,,, तब मानव मन के अन्तरद्वंद एक वरदान प्रतीत होते हैं ।
    

शनिवार, 11 जून 2016

प्रीत का हरश्रृंगार

                      (चित्र इंटरनेट की सौजन्य से)

इस भीषण तपती गरमी मे एक अद्भुत शीतल कल्पना होचली,,,,खुली आँखों ने एक प्यारा स्वप्न दिखाया,और मै शरद ऋतु की प्रभात बेला मे, तुम्हारे संग सैर पर निकल चली।
  हाथों मे डाले हाथ लहराते हुए , सुबह की हल्की गुलाबी ठंड,,,,,,,,, ।एक 'हरश्रृगांर के पेड़' पर बरबस दृष्टी चली गयी,,,,,,हरी घास के गलीचे पर पेड़ फैलाव के अनुरूप पुष्प ऐसे झर कर बिछे थे मानो,,,, हरी घास के प्यार भरे निवेदन पर खुद को पुर्णतः समर्पित कर दिया हो।
   मंद शीतल बयार मे हरश्रृंगार की , समस्त इन्द्रीयों को वशीभूत करदेने वाली सम्मोहिनी सुगंध से हमारा मन अछूता न रह सका,, और हमारे प्रेम का 'हरश्रृंगार' प्रस्फुटित होने लगा।
  तुम्हारी गोद मे अपना सिर रख मेरा 'पुष्प मन' ऐसा झर कर बिखर गया जैसे,,, हरी घास के निवेदन पर हरश्रृंगार ने खुद को समर्पित कर दिया था ।पवन के हल्के शीतल झोंके हम पर प्रेम  पुष्प वर्षा करते रहे,,।
   सम्पूर्ण वातावरण पक्षियों के कलरव और हमारे नयनो की मूक भाषा से गुंजाएमान हो उठा। मुझे नही अनुमान था कि शांत दिखने वाले दो नयनों का 'हरश्रृंगारिक प्रेम' जब कुलाचे भरता है,,, तो इस कदर शोर करता है,,,,।
     कभी अपलक दृष्टी से तुम्हारा मुझे निहारना और मेरा शर्मा कर पलके झुका लेना,,,धड़कनों के स्पन्दन को तीव्र कर देता है। मेरे खुले केशों पर स्वतंत्र होकर हरकत करती तुम्हारी उगँलियाँ असीम सुख की अनुभूति करती हैं।
   जीवन की उलझनों भरी इस ग्रीष्म ऋतु मे तुम्हारा साथ शरद ऋतु मे महकते 'हरश्रृंगार ' की तरह एक नयी ऊर्जा देता है,एक नई दिशा देता है,,,नही तो क्या मेरी आँखें ऐसे स्वप्न की कल्पना कर पाती,,,??????
   कल फिर किसी नये अद्भुत, असीम ,आनंद की अभिव्यक्ति की आशा लिए हमारी 'हरश्रृंगारिक प्रीत' वापस घर लौट गई ,,,,,,।

बुधवार, 8 जून 2016

मन के साथ कुछ क्षण,,,,

                     (चित्र के लिए मेरे मित्र कर्नल गोरखनाथन जी को आभार)

आज कुछ पल 'मन' के साथ बिताए,,,,,, समुद्र के किनारे रेत पर बैठा,,, उगलियों से कुछ आकृतियाँ खींचता है,,,,,,फिर उन्हे मिटा देता है,,,फिर खींचता,,,,,घंटों इसी प्रक्रिया मे खोया हुआ उसे जारी रखता है।
   अचानक एक लम्बी गहरी साँस लेकर अंतरिक्ष की ओर देख खड़ा हुआ,,,,हाथों मे लगी रेत को झाड़ा,,, दो कदम चला। अहहहहहहहहहह ! जाने किस उहापोह मे है????
   शाम ढलते ही सूरज को हसरत भरी निगाहों से देखता है, शायद कोई बहुत बड़ी उम्मीद लगाई थी,प्रभात की प्रथम किरण से,,,,,,,,जिसके पूरा ना होने पर बड़ी उदासीनता के साथ, अपलक दृष्टी से तब तक देखता रहा, जब तक सूरज दूर समुद्र की हलचल करती लहरों मे डूब नही गया ।
  एक मुस्कान के साथ वापस  चल पड़ा। ऐसा लगता था,,,,,,,मानो जीवन के सफर मे अकेला जूझ रहा था, और टूट सा गया था। हम्म्म्म्म्,,,,, हाथ बाँधें, गरदन झुकाए, किनारे-किनारे रेत के साथ खिलवाड़ करता हुआ, अपनी असमर्थता को कह पाने मे असफल।
   अकेला था,,,,कोई विश्वासपात्र नही था,,अतः यह प्रण कर लिया था, किसी से कुछ ना कहूँगा,,,,,,हसूँगा,,,, बोलूंगा,,,,, चेहरे पर बेबसी??????? नही,,,,,कभी नही,,,,। लेकिन कब तक????????थकान भरे दिन के बाद जब शाम आती है, एकाकीपन साथ लाती है,, तब स्वतः नम आखों के साथ बुदबुदा उठता है- "हाय मै अकेला"!!!!!!
    सम्भाला उसने स्वयं को और तेज गति से गन्तवय की ओर चल पड़ा। उफ्फ,,,, ये बेबसी ये निराशा !!! रेत पर लकीरें खींचने, ढलते सूरज अपलक देखने को विवश कर देती है।
    परन्तु येम 'मानव मन' है, एक नयें प्रभात के साथ नई आशा करना इसका स्वभाव है। आशा है एक नए प्रभात का उदय शीध्र होगा।।।।।

मंगलवार, 7 जून 2016

कोमल अभिव्यक्ति अतीत के गलियारे से

                                                  (चित्र इन्टरनेट से लिया गया है)




 नीरव रात,ठंडी ठंडी पवन का मधुर स्पर्श मात्र मन को प्रसन्न कर गया। चाँद छिपा है बादलों की ओट में, देख रहा है चुपचाप कि मेरी अनुपस्थिति मे ये धरती कैसी लगती है? और इस आँख मिचौली का आभास पृथ्वी को हो चुका है, शायद दूर क्षितिज पर आसमान ने यह बात पृथ्वी के कान मे फुसफुसाई है-" क्यों विह्वल नेत्रों से चन्द्रमा को खोजती हो? वो वही बादलों की ओट मे बैठ इस सुहावनी रात मे तुम्हारे शांत, धीर रूप और गति को देख प्रभावित हो रहा है।
    यह सुन पृथ्वी लजाती है, नेत्र झुकाती है, मुस्कान बिखेरती है, जैसे अन्तरमन मे हुई अद्भुत हलचल को छिपाना चाहती हो। लेकिन वो यह अनुभूति छिपा नही पाती   वह रात्रि के इस मनोहरित वातावरण के रूप छलक जाती है। 
    पृथ्वी के इस अद्भुत सौन्दर्य को देखकर चन्द्रमा छुप नही पाता,,,,,,   और तब होता है धरती और चन्द्रमा का मिलन,,,, पर दूर से,,,क्योकी उन्हे डर है कोई उन्हे देख न ले । ये दूर के इशारे दोनो को सन्तोष देते हैं।
     रात मे खिलती कुमुदिनी चाँद और पृथ्वी के मिलन पर दोनो की प्रसन्नता की अभिव्यक्ती है। धीमे-धीमे बहती पवन से नदियों और झरनों की लहरों से उठने वाले संगीत मे तल्लीन चन्द्रमा की आगोश मे पृथ्वी,,,,,,, आह!!!!! ये दैविक अनुभूति,,,,,,।
    इस प्रेम और सुकून की मौन बेला मे कब समय बीत गया पता ही नही चला,,,,,। अचानक पक्षियों के कोलाहल और सूर्य की प्रथम किरण,,,,,,,जैसे आँख मलते हुए उठा हो।यह देखते ही दोनो ने एक दूसरे से विदा ली
   चन्द्रमा बार बार पीछे मुड़कर पृथ्वी को देखता गया, जैसे कह रहा हो- प्रिय !चलता हूँ, रात्रि मे फिर मिलेंगें ,,,,जब वातावरण मे प्रेम होगा, सरसता होगी , मौन होगा,,,पुनः मिलन की आशा लिए दोनो ने एक दूजे से विदा ली।

सोमवार, 6 जून 2016

अमलतास

  
         शुष्क गर्मियों मे भी मिलती भीगी हुई  रात है..
         दिल मे हो जोश और हौसला बुलंद ,बन जाती बिगड़ी             हुई बात है ..
          जो मिला खुशी उसे अपनाते चले तो ज़िन्दगी
          महकता हुआ 'अमलतास' है .....
     
          हर मोड़ पर एक नई चुनौती एक नए इम्तिहान की
          शुरूवात है
         जूझं कर उभरा है जो,नए युग का आगाज़ है
         मुस्कुराता हर दर्द में तो झूमता हर साज़ है
         ज़िन्दगी हर मोड़ पर महकता हुआ ' अमलतास' है  ।।
         
 
       


शनिवार, 4 जून 2016

तोते राम


                         स्कूल से आए तोते राम,
                          आते ही शुरू हुआ बखान,
                          बंटी ने थी काॅपी फाड़ी,
                          अंकित ने थी पेंसिल तोड़ी,
                          पी गया पानी चिंटूराम,
                           मैडम ने नही छिला आम।
                           मै तो बैठा था चुपचाप,
                           टीचर ने यूँही मारी डाँट।
                           माँ बोली अब मेरे लाल,
                           छोड़ दे गुस्सा पी ले दाल।।

दशहरा

             
                    वीर ,साहसी और बलवान
                    सबके मन मे बसते राम ।
                     दशरथ की आँखों के तारे,
                     अवध नगरी मे सबके प्यारे।
  रावण को था मार गिराया,
  पाप अधर्म का किया सफाया।
  पाप पर पुण्य की जीत हैं राम,
  विजयदशमी का प्रतीक हैं राम।
                  लखन ,सिया और हनुमान,
                   सबके मन मे बसते राम ।।
         
          ।। जय श्री राम ।।

शुक्रवार, 3 जून 2016

छोटू मेरा नटखट

               
                छोटू मेरा नटखट है,
                भागे देखो सरपट है,
                 सारे दिन शैतानी करता,
                 नही किसी से है वो डरता।
                  सोफे से नीचे वो कूदे,
                  दादा जी का ऐनक छेड़े।
                  नल का पानी खुल्ला छोड़े,
                   कभी पटक कर चीजे तोड़े।
                   डाँट पड़े तो प्यार दिखाए,
                   सारा गुस्सा दूर भगाए।
                   करता कितनी बड़बड़ है,
                   चुप्पी इसकी  गड़बड़ है।
                   छोटू मेरा नटखट है,
                   भागे देखो सरपट है।