शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

काफ़ी है,,,



पहुँच जाता है हूजूम
हर जगह
एक कदमों के निशां
काफी हैं,,,

शहरों में भी होते हैं
कोने सुबुकते
सन्नाटा दिले दरमियां
हो काफ़ी है,,

तलाश ठोंकरे खाती
दर ब दर
नही दिखते पत्थरों पे
निशां,काफ़ी है,,

मंज़िलों के बड़े ऊँचे
चढ़े हैं भाव,
जेबें तार तार हो देती
हैं जवाब,काफ़ी है,,

नसीब फिसलती रेत सा
झरता शबाब,
हथेली में चिपका रहे ज़रा
सा आब,काफ़ी है,,,

उम्मीद की लौ फड़फड़ा
के जले,,
दिख जाए सामने का
सैलाब,काफ़ी है,,,

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

ना जाने कैसा हो अवसान मेरा,,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मै गुज़रते वक्त की
दरख़्तों पर
कुछ कोपलें लम्हों की
रख आती हूँ,,
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
मैं खिड़कियों के करीब
बड़े पेड़ों की पंगत गोड़ आती हूँ,,,,,,

बरसाती मौसम की लाचारी
भांपते हुए
देखती हूँ चींटियों को अथक,
एकजुट दाना जुगाड़ते हुए,,
यही सोच मै भी
सुनहरे दानों का जुगाड़
करती हूँ,,
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
मै दिल के गोदाम में
यादों के भोज्य पहाड़
करती हूँ,,,,

दीवारें कमरों की रंगीन
ही सही मगर
छतों की कैनवास सफेद
ही रखती हूँ
ना जाने कैसा हो
अवसान मेरा
सीधे लेटकर उकेरने
के लिए कुछ तस्वीरें करीबी
मैं आंखों में बहुरंगीं जमात
रखती हूँ,,,

लिली






मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

दिल की सिगड़ी,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

दिल की सिगड़ी में ,
इश्क जला रखा है।
मैने शब्दों   को ही ,
महबूब बना रखा है।

एहसासों की लकड़ी,
का टाल बना रखा है।
जला के जज़्बातों को,
लाल  सुलगा रखा है।

गर फासलों ने दरमियां,
कश्मीर    बना रखा है।
मैने कल्पनाओ में सही,
बर्फ को पिघला रखा है।


रविवार, 17 दिसंबर 2017

काव्य तो अभी बाधित है,,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

काव्यसागर     तो
अभी     बाधित है,
स्व में     हिंडोलता
चरम उत्पलावित है।

बहेगा तब तट तोड़
कर,अभी तो  लहरें
अधीर हैं,चंचल  हैं,
अदम्य,परन्तु  भाव
घनत्व  फकीर   हैं।

गुरूत्व का  सामिप्य
अभी दूर है,अपनत्व
का चुम्बकत्व  अभी
चूर है,स्पर्श का प्रदत्त
अभी  प्रातीक्ष्य     है

ज्वार उच्छवास् तेज़
हैं,भाटों के निश्वास
निस्तेज हैं, कामिनी
काव्य की रही मचल
रूपमाधुर्य शेष    है।

लहरदेह   लहराएगी
अभिव्यक्तियां    तब
गहराएगी,  मिलन के
गहन चीत्कार से कवित्त
का श्रृंगार अभिषेक है।

काव्यसागर        तो
अभी     बाधित    है,
स्व मे        हिंडोलता
चरम् उतप्लावित  है।

ऐ ज़िन्दगी! तू मेरे झरोखों को किवाड़ क्यों नही देती,,,,

                           (चित्राभार इंटरनेट)

पिस रही हूँ
मैं भी पत्थरों
के बीच पर,
हिना सी रंगत
तो नही देती?
ऐ ज़िन्दगी !
तू मुझे मेरी
मुहब्बत तो
नही देती,,,

खूँटियों से बाँध
देती है किस्मत,
कभी बेखुदी में
बहक के चल
भी दूँ तों,
रस्सी की लम्बाई
तक भटका कर
खींच लेती है,
जब बेखुदी देती है
ऐ ज़िन्दगी!
तो उन खूँटियों
को उखाड़ क्यों
नही देती,,,?

खिड़कियों के
होते भी रोशनदानों
का वजूद बनाया
हवा और रोशनी
का संतुलन बनाया
पर मैं जो बनाऊँ
यही हिसाब
ऐ जिन्दगी!
तू मेरे झरोखों
को किवाड़ क्यों
नही देती,,?

अरमानों के पंख
दे दिये फड़फड़ाने
को,एक खुला
आसमान भी सजा
दिया आगे,
टकटकाई आंखों
में कई भी सपने जागे?
ज्यों उड़ान भरने
को पंख फैलाती हूँ
ऐ ज़िन्दगी!
तू मेरे पिंजरे में
सलाखों की टूटी
दीवार क्यों
नही देती,,,?

लिली 

चिड़ियारानी

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

#बालकविता

चिड़िया रानी बड़ी सयानी
अपने मन की हो तुम रानी।
 
छोटे छोटे पैरों से तुम
फुदक फुदक कर चलती हो।

जाँच परख कर अच्छे से
फिर चोंच से दाना चुगती हो।

बड़ी गजब की फुर्तिली हो
चंचल कोमल शर्मिली हो।

कभी घास पर कभी डाल पर
चीं- चीं करती फिरती हो ।

खुले गगन में पंख पसारे
करती रहती हो मनमानी

चिड़िया रानी चिड़िया रानी
अपने मन की हो तुम रानी।

🐥लिली🐥

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

विजय दिवस श्रृद्धांजली

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

दुश्मन के छक्के
छुड़ा दिए
दंभ के परचम
गिरा दिए
वीर सपूतों ने हंसकर
सीने को ढाल
बना दिए,,

परिवार के ऊपर
उन वीरों नें
देश को सर्वोपरि
माना,,
वीर सिपाही रहा
डटा
जब तक ना बैरी
धूल चटा
हुँकार भरी टंकारों
से शत्रु के
सीने चीर दिए,,

उस पुण्यतिथि के
अवसर पर
हृदयातल से मन
नतमस्तक है,
उन गौरवमयी
बलिदानों पर
'विजय-दिवस' की
दस्तक है,,
शत् शत् नमन
उन वीरों को
श्रृद्धा का सुमन
चढ़ा दिया,,,,

हाथों की लकीरें

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

जब भी बैठती हूँ
खुद के साथ अपनी
हथेलियों को बड़े गौर
से देखती हूँ,,,,

आड़ी तिरछी इन लकीरों
में ना जाने क्या खोजती हूँ,,

सिकोड़ कर कुछ गाढ़ी
खिंची लकीरों की गहराई
नापती हूँ,,,
पता नही इन गहराइयों में
खुद को कहाँ तक डूबा
देखती हूँ????

सोचती हूँ,क्या सच में मेरी
ज़िन्दगी इन रेखाओं से
आकार पाती है,
मेरी मुट्ठी में रहकर
भी मेरी किस्मत
मुझे नचाती है,,,,!!

जो गुज़र गया वह भी तो
दर्ज होगा यहीं,
पता चल जाए कहाँ?
तो मिलाऊँ के,जो खिंचा था
 जी आई हूँ वही,,,,

अजब दस्तकारी है
खुदा की,
इंसा की जिन्दगी
उसकी ही
हथेलियों में पहेलियों
सी सजा दी,,
कुंजी को कर्मों के गहरे
समन्दर में गिरा दी,

किसी तिलस्मी कहानी
की तरह,
हर रोज़ नए मक़ामों
से गुज़रती हूँ
एक से उबर दूसरे में
जा फंसती हूँ

कभी दो घड़ी मिली
फुरसत तो बैठ कर
हथेलियां तकती हूँ
इन उलझी लकीरों
को समझने की
एक नाकाम कोशिशें
करती हूँ,,,

लिली 😊

मथनी मन की

                              (चित्राभार इन्टरनेट)

परमात्मा का
अंश आत्मा,
मिलकर बने
एक दिव्य
ज्योति पुंज,
एक विराट
ऊर्जा कुंड,,,

एक सूर्य,
करता सम्पूर्ण
ब्रह्मांण को
ऊर्जायमान्
दैदिप्यमान्

एक पदार्थ,
अनगिनत
अणुओं का
संघटित रूप
ठोस,द्रव्य,गैस
को देता स्वरूप

सूर्य की
धधकती गात,
नही पड़ती
निस्तेज,करती
सह्स्त्राब्दियों से
सृष्टि का संचार
किन्चिद वह
भी तो पाती
होगी सूक्ष्म
ऊष्मा रश्मियों
से भभकते
कुंड में आग?
परावर्तन का
सिद्धांत तभी
शोध पाया
होगा विज्ञान!

यदि देता है ऊर्जा
तो सोखता भी
होगा ऊर्जा दिव्य
दिवाकर महान!
ब्रह्मांण अपना
अस्तित्व बनाए
रखने के लिए
नित्य गढ़ता नए
ग्रह-उपग्रहों सम
निमित्तो का जहान,,
वरना तो कब का
खुद के हवन-कुंड
में जल कर हो जाता
भस्म आयुषमान!!

विश्वरूप में पाते
प्रतिक्षण कितने
आत्मअंश स्थान
रोग,जरा,दुर्घटनाओं
में खोता मानव प्राण
सृजन-विनाश की
यह आहुतियां
जिलाए रखती हों
किन्चिद 'विश्वरूप'
का विराट अभिमान,,

सृष्टि की दिव्यता,
अलौकिकता रखने
को अक्षुण्य,पुण्य
आत्माओं के विलयन
का रचा होगा प्रावधान
वेद-पुराणों ने कह डाला
इसे विधि का विधान,,,

मन की मथनी
मथे नित नए
मंथन अविराम
निष्कर्षहीन,
किन्तु कुछ तो
लिए होगा अंश
सत्यता का विद्यमान,,,

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

सृजन,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

सृजन
🍃🍂🍂🍃

सृजन सृष्टि
का चलता
प्रतिपल,,,,
सरिधार बहे
ज्यों निर्झर
कल-कल,,

प्रश्न जुड़े
जब 'कारण'
से,,,,,,
एक नूतन
सिरजन अस्तित्व
लिए,,,
नव शोध,निष्कर्ष,
निर्धारण से,,,

एक सोच
लहर सी आती है
मन चेतन सजग
बनाती है,,
सब इंद्रियां संचालित
हो जाती हैं
एक चक्र सृजन
का चलता है,,
कुछ नवल नया
गढ़ जाती हैं,,,

माटी का मोल
नही होता,,
पर जीवन का
अंत वहीं सोता,,
वही माटी सोना
बनती है
जब चाक कुम्हार
के चढ़ती है,,
कितने रूपों में
ढलती है
और कितने सृजन
गढ़ती है,,,

यह जीवन समझो
माटी सम
मत भूलो अपना
अंत गमन,
तो क्यों ना हम
कुम्हार बनें?
नित सुन्दर कृतियां
चाक ढले,
जो आत्मसंतुष्टि
देता हो,,
सृजन महत्ता
कहता हो,,,

लिली 😊

शशि की संगिनी,,,

                            (चित्राभार इन्टरनेट)

शशि शान्त शिशिर रात्रि में,
नीरव सुप्त व्योम शिविर में,
निस्तेज शून्य सा था घूमता,
कोई प्रिये संगिनी था ढूँढता।

निशा कामिनी बन दामिनी,
अरविंद  लोचन   स्वामिनी,
सघन आरण्य से केशलहर,
चलत छम छम गजगामिनी

कटि लचक सरि प्रवाह सी,
 दीप्त देह  कंचन दाह  सी,
अदम्य गर्वित माधुर्य संग,
दिखे यामिनी बड़ी साहसी।

दृगपात हुआ ज्यों चंद्र का,
हियहरण हुआ त्यों तंद्र का,
रूप निरख  सुध खोय रहे,
फुटित चंदन मन सुगंध का।

रूपरजनी झरे तारिका,
चहक उठी मन सारिका,
कलानिधि कला भूल कर,
मद मस्त मदन श्रृंगारिका।

विधु निशि का मिलन हुआ,
ज्योत्सना का प्रस्फुटन हुआ,
कण कण  सब  दैदिप्तमान,
युग युग्म मिलन युगल हुआ।

व्योम शिविर नही क्लांत है,
पथसंगिनी पा तुष्ट शांत  है,
धरा  गगन  तरू ताल  सब,
विधुज्योत्सनामय अब प्रांत है।।

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

तलबगारी तेरे नाम की,,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)


बेचैन करवटों ने चादरी सिलवटों को गहरा दिया,
रात पिसती रही जागकर  चाँद ने पहरा दिया।।

तलबगारी तेरे नाम की दावानल सी भड़कती रही,
हर सांस बड़ी गर्म थी धड़कनो को ठहरा दिया।।

उम्मीद एक बस छूअन की नस नस में उमड़ती रही,
दूर बहुत वह चाँद था बस आह संग कहरा दिया।।

शय डूबी हुई तेरे जिस्म में रह रह कर मचलती रही
तड़पनो को समेट कर एक ग़ज़ल को बहरा दिया।।

सरदियां मौसमे इश्क़ की तन्हाईयों में ठिठुरती रही
लिहाफ़ मेरे जिस्म का कहीं और था फहरा दिया।

लिली 🌷

रविवार, 3 दिसंबर 2017

लुढ़कता आँसू


                           (चित्राभार इंटरनेट)



दाईं आंख
से लुढ़का नसिका
के उभार को बड़ी
कुशलता से पार करता,
अपना मार्ग खुद प्रशस्त
करता,तेज़ी के साथ
तकियें पर,,,,,,,,
अपने निश्चित गन्तव्य
पर पहुँचने की तस्सली लिए
वह गिर गया,,,,

उसका वह पतन
एक समर्पण लिए,
एक नेतृत्व लिए,कई
पथिकों के लिए राह
बनाता,वह गिर गया
झरते रहे कई और
उसके बाद भी,,
पर नेपथ्य में वह था,
स्रोत बना फूटते झरने
का,वह गिर गया,,,,

कर्णों ने सुनी
वह आवाज़
जिसमें भरी थी
भारी मन की भर्राई
भड़ास,एक 'टप्प्'
का था स्वर,और
निकल गए कितने
अकथनीय विशादों
का आभास,,,,,
लिए वह गिर गया,,

उसके बाद निर्झर
धारा बहती रही,
पर नेपथ्य में वह
था,वह प्रथम बिन्दु
तकियें में समाहित
और खोता अपना
अस्तित्व,,,,,,,
वह दाईं आंख से
लुढ़का 'अश्रु बिन्द',,
वह गिर गया,,,

यह कैसी हसरत लाई है शाम,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

यूँ ही लुकते छुपते
किसी क्षितिज पर
अस्त हो जाने की
हसरत,लाई है शाम

एक दीर्घ स्वास संग
खींच लूँ सब कोहराम
निर्मित हुआ यह कैसा
भंवर दिखाती है शाम।

पूछेगा ना कोई मेरे बाद
ज्ञात है मुझे मेरा अंजाम
फिर भी संचय की चाह
प्रश्न कैसा लाई है शाम।

बेवजह बहती है भावो
की नदि,तृष्णा है बेलगाम
ढूबते सूरज संग गहराती
उदासी क्यों लाई है शाम

अच्छा है नदी रूख मोड़ ले,,


                      (चित्र जिमकार्बेट से, मेरा द्वारा )

अच्छा है नदी
रूख मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे

अपने किनारों
को छोड़,हुई
जाती है कृषगात
बड़े पथरीले लगते
हैं आने वाले हालात्

तक्लुफ़ो कों जगह
ही क्यों देना?
फिर उन्हे प्रेम की
नई परिभाषाओं का
रूप देना!!
यह कैसे मरूस्थल में
आ पहुँची है नदिया की
धार,,
मुश्किल हैं खींच पाना
उष्ण बहुत है ये तपता
रेतीला कगार,,

बेहतर है वह खुद को
यहीं से मोड़ ले,
खनिज-लवणों से भरे
खादानों को
खुद में पनपता ही
छोड़ दे,,,

बहुत कुछ संजों कर
लाई है,उन जंगली
पहाड़ों से,,
एक संगीत के स्वर में
बलखाई है,मैदानी
कछारों में,,,
चंचलता की उन उन्मुक्त
धाराओं को,,
रेगिस्तानी ताप में सुखाना
नही चाहती,,

अच्छा है अपने स्वर्णिम
खज़ाने को खुद में
छुपाए
वह चुपचाप
एक मोड़ ले
सागर से मिलने
की ज़िद छोड़ दे।




शनिवार, 2 दिसंबर 2017

वह सुबह दिसम्बर की,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

याद है वह
दिसम्बर की भोर
घने कोहरे को चीरती
बस तुम्हे करीब से
देखने की कसमसाती
तड़प,ठिठुरती ठंड में
नरम कम्बल के आवरण
सा सुकून देगी,,,,

कोई और ख्याल फटकता
नही था दिल के दरवाज़े पर
ना जाने क्यों पहली बार महसूस
किया तंरगे सागर के सतह पर
बहुत चंचल थीं,
अंतस की गहराइयों
में एक असीम सा ठहराव था,,,,
ठहरावी उन्माद अधिक हठीला
होता है,
एक ज़िद के पूरा होने
तक खुद को बंध लेता है,,,,,

एक बेहद हठीले उन्माद को
बंधे मन,चीरता चला था,हर
घने कुहासे के दौर को,,,,
देखिए परिवेश भी कैसे मन
के भाव भांप जाता है,उसी के
मुताबिक समा बनाता है,
रेडियो पर लगातार मिलन गीतों
की धुन लहराता है,,,,

जैसे-जैसे तुम्हारे और मेरे बीच
भौगोलिक दूरियों का फासला
घटता चला,
मेरे अंतस का ठहराव
गहराता चला,,
कहाँ लगता था तुम्हे इतने करीब
देख,दबे अंगार फट के छितर
जाएगें,
बेखुदी में बहकी लड़खड़ाहट
से कदम मचल जाएगें
पर ऐसा तो कुछ भी ना हुआ
ऐसा लगा की चेतनाएं शून्य में
पहुचँ गई हैं,
और हम पूरे दौर को एक शून्य
में जी आए,,

होश पता नही कब आया,,??
अब हर घटनाक्रम को सोच
संवेदनाओं की शिराएं
गुदगुदाती हैं,
गुलाब पर पड़ी शबनमी बूँदों
सी,स्मृतियों को तरो-ताज़ा
बनाती हैं,,

आज फिर सुबह है
दिसम्बर की,,
तारिख में लिपटी
हमारी स्मृतियों को
गुनगुनाते धूपीले अम्बर की,,
रह रह कर स्मृतियों के पटल
पर तुम साक्षात् अवरित हो
रहे हो,
गुलाब पर गिरी इन शबनमी
बूँदों से मुझे भिगो रहे हो,,

लिली🌹

रविवार, 26 नवंबर 2017

मै औरत हूँ,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)
 कागज़ पर
ही सही
मैं अपनी
कल्पनाओं के
बादल रचती हूँ
मै औरत हूँ
मै अपना
आसमान खुद
रचती हूँ,,,

घर-गृहस्थी के
कैनवास पर
भी सबकी
खुशियों के
रंग भरती हूँ
मै औरत हूँ
मै अपना
कैनवास रंगीन
रखती हूँ,,

ख्वाब आंखों में,
पर यथार्थ
के चश्में से
सब परखती हूँ
मै औरत हूँ
बड़ी महीन नज़र
रखती हूँ,,

अपनी चंचलता
से जहान को
शोख हसींन
रखती हूँ
मै औरत हूँ
मै फूलों में
खुशबू बन
महकती हूँ,,

नरम दिल ही
सही,हौंसले
बुलंद रखती हूँ
मै औरत हूँ
हर हालात में
जीने का दम
रखती हूँ,,,

लिली ☺

क्यों हर बार औरत को विषय बनाया जाय?

                          (चित्राभार इन्टरनेट)

   क्यों हरबार औरत को विषय बनाएं??
*****************************

रचनाकारो से कह दो
खुली छाती और चिथड़ों
में लपेट किसी औरत को,
अपने सृजन पर ना इतराएं
कभी विकृत मनोभावों और
कुलषित विचारों की अंधेरी
कोठरी में छुप छुप कर रोते
पुरूषों को अपने सृजन का
विषय बनाएं,,,,,,

कहकर,रोकर सबके सम्मुख
औरतें खुद को संभाल लेती हैं
वह धरा सम हर विकारव्यवहार
डकार लेती है,उन पुरूषों को
चाहिए सहानुभूति आपकी जो,
पौरूष के झूठे दंभ में अपना दर्द
हैं छुपाते,दमित कुंठाओं के उद्गारों
से समाज को विकृत हैं बनाते,,

ईश का सृजन दोनों,क्यों किसी
एक पर हो चर्चा? कभी पुरूष
भी अपने मन की खोह में दबे
दर्द,भय,अहम्,उत्पीड़न,शोषण
के चीथड़ों में लिपटा अपना वजूद
दिखलाएं,क्यों हर बार औरत को
ही आयोजनों का विषय बनाएं,,?

लिली 😊

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हे साहित्य! तुम्हे आत्मसात् करती हूँ,,

(चित्राभार इन्टरनेट)

आसान नही होता
सांसारिकता में बंध
तुम्हे रचना,,
फिर भी मै प्रयास 
करती हूँ,,
हे साहित्य! 
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,,,

मिले हो ईशाषीश से
तुम्हे प्रीत का मुधरतम्
गीत मान 
मै तुम्हे काव्यसात्
करती हूँ,,
हे साहित्य!
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,

हाँ प्रेमासक्त हुई तुम
संग,मै प्रेम शंख का
निनाद् करती हूँ
मै तुम्हे विख्यात्
करती हूँ,,
हे साहित्य!
मै तुम्हे आत्मसात 
करती हूँ,,

लिली🌷

शिव सम साहित्य मेरा,,,

                       (चित्राभार इंटरनेट)
शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,
भावनाएं मेरी
गौरी सम,चाहती
हैं उसे जागृत करना
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,

उसे समर्पित
करनाचाहती हूँ
तपस्या मेरी,,
कर अर्पित मेरी
संवेदनाओं के
बेलपत्र,शब्दों
का दुग्धाभिषेक
मदार,धतुर से
उद्गार,मधु लेप
से रसालंकार,
सब उसे अर्पण
करना चाहती हूँ,
भावाभिव्यक्तियां को
गौरी बना उसे वरण
करना चाहती हूँ,,
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,

हो प्रसन्न मेरे
तप अर्चन से
जब वह खोलेगा
अपने योग मुदित
नयन,देखेगा मुझे,
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
दृष्टि से, मै शिवमयी
हो उसे खुद में समाहित
कर,बह जाऊँगीं,,,,
बन भावभागीरथी
स्वर्ग से धरा तक
अंतस से बाह्य तक
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,

चिरकाल से
हृदय कैलाश में
तपलीन, वह मेरी ही
तलाश में शायद
मै भी सती से
पार्वती सी तुम
से तुम तक पहुँचने
को अधीर,कितने
युग,कितने युग्मों
से उलझती निकलती
आ पहुँची हूँ,अपने
 इष्ट के निकट
अपने शिव के निकट
अपने साहित्य के निकट
शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,,,

लिली🌷

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

कृष्ण कृष्ण होय रहे,,,

                             (चित्राभार इन्टरनेट)


 🌷कृष्ण🌷
**********

कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

कृष्ण बदन रूप मदन
मनन मनन मोह रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

कमल नयन कुंज सघन
मगन मगन खोय रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

हिया हूँक पिया मिलन
सजन सजन रोम कहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

प्रेम सुधा झरत नयन
रहत रहत रोय रहे
कहो कृष्ण कैसे
समेटिहो हमें
हम कृष्ण कृष्ण होय रहे

लिली😊

रविवार, 19 नवंबर 2017

कुछ शब्द यूँ ही गिर जाते हैं,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

हवा ,घटा
नभ,चन्द्र चीर
उड़ते पक्षीं
नदिया का नीर
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,,
कुछ शब्द यूँ हीं
गिर जाते हैं,,,

उदधि हिंडोलें
सूरज की पीर
परवत का पौरूष
धरती का धीर
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ हीं
गिर जाते हैं,,,

नव कोपल की
शैशव सी गात
हिलती शाखों की
झनकीली बात
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द
यूँ ही गिर जाते हैं,,

उबड़-खाबड़
पथरीले पाथ
मै तुम और
कविता का साथ
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ ही
गिर जाते हैं,,

भौतिकता की
भड़कीले भेद
कुछ आत्मबोध
करवाते खेद
जब रह रह कर
छू जाते हैं,,
कुछ शब्द यूँ ही
गिर जाते हैं,,

लिली🌷

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

हे कावित्य! बस तुम्हे समर्पित,,

                          ( चित्राभार इन्टरनेट)

मेरी कविताओं के कावित्य को समर्पित,,


हे कावित्य!
रहते हो मेरी
कविताओं के साथ
कभी तो पकड़ों
जीवन पथ पर भी
मेरा हाथ,,,,,,,,,,,,,

शब्दों और भावों से
आओ निकल कर बाहर,
जिन सड़कों पर तुम्हे 
सोच कई बार मुस्कुराती,
कई बार नयन छलकाती
चलती हूँ,, चलो ना कभी
पकड़ कर मेरा हाथ,,,

हे कावित्य!
रहते हो मेरी 
कविताओं के साथ
कभी तो पकड़ो
जीवनपथ पर भी
मेरा हाथ,,,,

क्यों तुम मेरी कल्पनाओं
में रचते हो? 
एक मौन से
परन्तु नित नए काव्य 
गढ़ते हो?

ख्यालों की रसोई में
पकवानों से पकते हो,
खटकते पटकते बरतनों
में किसी 'राग' से बजते हो,
कभी आओ ना पास,
तुम्हे भी खिलाऊँ 
अपने हाथों से पके
भोजन के ग्रास,,
कहो तुम भी नयनों
में भर अह्लादित नेहपाश
मेरी प्रिये सम नही कोई 
दूजे का साथ 
हे कावित्य!
कभी तो बैठो
मेरे साथ,,,,

क्यों तुम्हे नित नए
उपमानों से सजाऊँ?
गीतों में ढालूँ और दुनिया
को सुनाऊँ?
क्यों तुम्हे एकान्त में समेटूँ
और भीड़ से छुपाऊँ?
तुम क्यों नही मेरे यथार्थ 
का धरातल बनते?
तुम में 'बोए' मेरे सपनों
के अंकुर पनपते,
मैं इन पौध की एक
बगिया सजाती,
बढ़ती फलती 
शाखाओं को तुम संग
देख तुममें सिमट जाती
'शाम' सीढ़ियां चढ़ती 
तुम्हारी आहटों पर,
धड़कनों का होता साथ
हे कावित्य!
कभी तो बैठो 
मेरे साथ,,,
जीवन पथ पर 
पकड़ो मेरा भी हाथ,,

लिली😊

सोमवार, 13 नवंबर 2017

निक्कर नई सिलो दो,,,

                          (चित्राभार इन्टरनेट)

#बालदिवस पर मेरे सभी बाल मित्रों के लिए ☺☺

घप्पूऊ घप्पूऊ
घप घप घप
मुहँ फुलाए
बैठा हप्प
निक्कर छोटी
होगई मेरी
नई सिला दो
झट झट झट

ऊँची ऊँची
दिखती है
कक्षा की टोली
हसँती है,,
मैडम भी
मुझसे कहती अब
नई सिला ले
झट झट झट

माँ बोली
सुन मेरे लाल
टेलर अंकल
नही दिखे थे कल
आते ही सही
करा दूँगीं
आज चला ले
बस बस बस

आज पहन
कर जाता हूँ
कमर के नीचे
खिसकाता हूँ
जो कल ना
निक्कर ठीक हुई
फिर  मानूँगा
ना कोई  बात
चाहे लगा लो
जितनी डांट
पापा से कह दो
कर के फोन
नई दिला दे
झट झट झट

👶👶👶 लिली 👶👶

शनिवार, 11 नवंबर 2017

अपराजिता की अभिलाषा,,,

                     
                           (चित्राभार इन्टरनेट)

मै आत्माओं का संभोग चाहती हूँ
वासनाओं के जंगलों को काट
दैविक दूब के नरम बिछौने
सजाना चाहती हूँ,,,

करवाऊँ श्रृगांर स्वयं का तुमसे
हर अंग को पुष्प सम सुरभित
खिलाना चाहती हूँ,,,,,

अधरों की पंखुड़ियों पर सिहरती
तुम्हारी मदमाती अंगुलियों की
चहलकदमी चाहती हूँ,,

भोर की लाली लिए अंशुमाली से
नयनों को तुम्हारी नयन झील
में डूबोना चाहती हूँ,,,,,

तन की अपराजिता बेल को सिहराते
तुम्हारे उच्छावासों की बयार से अपनी
हर पात को हिलाना चाहती हूँ,,,

खिल उठेगा भगपुष्प भुजंगीपाश से
प्रीत का रस छोड़ देंगी पुष्प शिराएं
यह रसपान तुम्हे कराना चाहती हूँ,

चहचहा उठेगीं खगविहग सी उत्कर्ष
की अनुभूतियां,मै आनंदोत्कर्ष का
यह पर्व मनाना चाहती हूँ,,,,

भौतिकता का भंवर अब नही सुहाता
संतुष्टि की जलधि में ज्वारभाटा बन
अपने चांद को छूना चाहती हूँ,,,

मै तुम संग आत्मिक संभोग चाहती हूँ

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

कुछ तार सुरों के बहके हैं,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कुछ तार सुरों के     बहके हैं,
मतवारे     पंछी      चहके हैं।
दिनमान में भी अब दीप जले,
रात में अब  दिनकर   चमके।

मन  सुन्दरवन  सा  घना घना
लिपटा भावों से हर तरू तना
वनजीवों सी चंचल अभिलाषा
नही निर्धारित कोई इनका बासा
सब अपनी ही  धुन में लहके हैं
कुछ तार सुरों    के  बहके   हैं
मतवारे    पंछी      चहके     हैं।

मन चाहे बस सब लिखती जाऊँ,
कभी कवँल कुमुदिनी बन जाऊँ।
फिर रूप   अनोखा लिए खिलूँ,
मंडराते भ्रमरदलों के हृदय हरूँ।
नव पल्लव झनझन खनके   हैं,
कुछ तार   सुरों के    बहके   हैं,
मतवारे      पंछी      चहके   हैं।

उन्माद उमड़   उर धड़क  रहा,
दमित दावानल अब भड़क रहा।
घनघोर घटा भी झमझम बरसी,
भरती नदियां भी प्यासी  तरसी।
काव्यकोष  भर   छलके      हैं,
कुछ तार सुरों    के बहके     हैं,
मतवारे  पंछी        चहके    हैं।

मन क्या कहने को व्याकुल है,
बंधेपाश खुलने को  आतुर हैं।
गगन भी अब उड़ता दिखता,
चन्द्र नही अब सीधा  टिकता।
सब बीच  अधर में  लटके हैं,
कुछ तार     सुरों के बहके हैं,
मतवारे    पंछी     चहके   हैं।

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

खुद को एक समुद्री लहर सा पाती हूँ,,,

                       (चित्राभार इन्टरनेट)

कभी कभी खुद को
एक समुद्री लहर सा
पाती हूँ,,,,,,,,,

कई मनोभावों का एक
समग्र गठा हुआ रूप
जो किसी ठोंस अडिग
चट्टान से टकरा जाने
को तत्पर है,,,,,,,,,,

क्षितिज की अवलम्बन
रेखा से बहुत कुछ भरे हुए
खुद में,लहराती बलखाती
तरंगित होती,एक लम्बा
सफर तय करती हुई 'मैं'
चली आ रही,,,
मै बही आ रही,,,,,,,,

कई बार टूटी हूँ,कई बार
जुड़ी हूँ,यह मेरा व्यक्तित्व
यूँ ही नही गढ़ गया,असंख्य
छोटी बड़ी लहरों में घुली हूँ
भंवर में खींची हूँ,तब कहीं
अनुभवी हिंडोलों संग
तट तक पहुँचती, देखो!
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,



बहुत कुछ बर्फ के शिला
खंडों में जमा दिया मैने
फिर भी बढ़ती रही शेष
के अवशेष को   समेटे
किनारे पर घंसी हुई मेरी
चट्टान से टकराने को व्यग्र
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,

एक गहन शोर है उल्लास का
एक जोश है आनंदानुभूति का
जो बहुत तेज़ है,शान्त किए दे
रहा है यह  निनाद,आस -पास
का सब कुछ,,,,एक वेग
से टकरा कर छिटक जाने को
जो भर कर लाई हूँ दूर से, उसे
असंख्य जलबिन्दुओं में फैला
कर छितरा देने को, देखो !
मै चली आ रही हूँ,,
मै बही आ रही हूँ,,,

मुझे है दृढ़ विश्वास के तुम
सह जाओगे मेरा वेग,,,,
लेट जाओगे 'शिव' से शान्त
होकर धरा पर,'काली' के
प्रचण्ड रौद्र को सह लोगे
अपने वक्षस्थल पर,और
कर दोगे सब शान्त,,देखो !
मै चली आ रही हूँ,,,
मै बही आ रही हूँ,,

लौट जाऊँगीं फिर मै एक
शांत 'गौरी' बनकर 'शंकर' की
पुनः नव निर्माण करने,,,
बस यही आस लिए ,तुमसे
मिलकर खुद को विखंडित
कर,पुनः निर्मित करने, देखो !
मै चली आ रही,,
मै बही आ रही,,,

शनिवार, 4 नवंबर 2017

सीमाओं का बंधन ,,उच्छृंखल बना देता है,,,

                      ( चित्राभार इन्टरनेट)

पड़ी हुई हैंउनींदी
आंखें तकिए पर
खिड़की से बाहर
झांकती हुईं,,,,
आसमान तो यहाँ से
भी दिखता है लेकिन
खिड़कियों की सलाखों
और जालियों में जकड़ा हुआ,,,,

चहकती गौरैया
पलड़ों पर फुदक
जाती है, झांक जाती है,,
हिलती पेड़ों की शाखों
से चलती बयार रह रह
कर मेरे चेहरे पर फूँक
सी मार कर छू जाती है,,,

सब कुछ तो मिलता है
बंद कमरों में बनी इन
खिड़कियों से, फिर भी
आंखें पुतलियों को फैलाकर
सलाखों और जालियों
के बंधन से परे क्यों देखना
चाहती हैं,,,???

कैसी चाहत है ये, जो
जालियों के छोटे से छेद
से आंखों का 'लेंस' पूरे
आकाश को खींच लेना
चाह रहा,,???
बहुत देर तक पड़ी
रहती हैं तकिये पर शून्य
को निहारती आंखें,,,,,

सरदियों की दोपहर
और गुनगुनी धूप तो
पड़ती है मेरे बिछौने पे
घंटों पड़े रहकर बदन भी
कुनकुना हो जाता है,,
फिर भी चाह किसी
फैले समुन्दर की रेत पर
औधें पड़ी रहूँ,,,,

रात का चाँद भी समा
जाता है इन खिड़कियों
के नक्काशीदार 'फ्रेम' में,,
फिर क्यों मन नदी का
किनारा और किसी पेड़
कि शाखाओं से झांकते
चाँद की तमन्ना करता है,,,??

मन बड़ा चंचल
सीमाओं का बंधन
इसे उच्छंख्ला बना देता है,,,,

बुधवार, 1 नवंबर 2017

निष्कर्षविहीन मंथन,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)

दमघोटूँ कालकोठरी
सा एक कोना मन का
एक दरार सा
झरोखा खींसे
निपोड़ता हुआ

दबी कुचली कुंठाएं
अपनी उखड़ी सांसों
का मातम मनाती हुई
विद्रोह जैसे अभी भी
बाकी है,इस बेदम शरीर में

एक मास्क लगा दे
कोई ऑक्सीजन का
तो थोड़ी देर और जी लें
जानती हैं कि इन कुंठाओं
कि नियति कुचल कर
मसल जाना ही है,,
फिर भी सिर पटक रही हैं

एक झरोखा खोज ही लेती हैं
और खोजना प्रकृति है
विकारों का जमावड़ा
स्व के लिए विस्फोटक,,,,
और विकारों का उद्गार
समाज के लिए विकृतिकारक,,

क्या किया जाए????????
स्व का सुधार या,
समाज का सुधार?????
चलो एक ऐसे विकृत
मनोभावों का एक
'डंपिंग ग्राउंड' बनाएं
अंतस के उस खींसे
निपोड़ते झरोखे के
आमंत्रण को अपनाएं,,,

कुछ सांसे तो खींच ली
बाह्य का आवरण अब
मुस्काए,तनाव,खींझ
कुछ हद तक शांति पाए,,
चलो अब समाज को
सुधारने का अभियान चलाएं,,,

लिली 😊

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

कविताओं को बंधन मुक्त कर दिया,,,,

                      ( तमाम विषमताओं को समेटे  मशीनीयंत्रों सी उपमाओं और बिम्बों से सजी 'कविता' आज भी भावाभिव्यक्ति का सुकोमल साधन,,, चित्र मेरे द्वारा 😊)

                 
चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं
को विधाओं के
बंधनों से मुक्त
कर दिया,,,,,

ये जीवन की
विषमताएं,सड़कों
सी उबड़-खाबड़
हो चली हैं,,,
कहीं गड्ढे तो
कहीं असमान उभार
मरम्मतें भी
पैबंदों सी
हो चली है,,,

कैसे कोई इन
खबड़ीले उछलते
रास्तों पर अपने
भावों की स्कूटर
चलाए?????

चलो अच्छा हुआ
जो कविताओं को
विधाओं के बंधनों
से मुक्त कर दिया,,,,

सुकोमल पुष्पों
की उपमाओं
चांद,तारों के
आंचल में अब
नही लहराते बिम्ब
मशीनी यंत्रों सी
शब्दावलियों का
है प्राचुर्य,,,,,

कैसे इस शुष्क
परिवेश को रसायुक्त
गीतों का मधुपान
कराया जाए,???

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त
कर दिया,,।

मात्राओं,तुक, लय
की कीलों पर,
चुभती मोटी नारियल
की रस्सियों सी
सामाजिक विद्रुपताओं
को कैसे अटकाया जाए??

भरे पड़े हैं मनोद्गार
गागर में सागर से
बहुत तेज प्रवाह
बह रहे हैं अतुकान्त
स्वतंत्र,निर्बाध, निर्झर,

चलो अच्छा हुआ जो
कविताओं को विधाओं
के बंधनों से मुक्त कर दिया।

सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

अधरन से मुरली ना लिपटाओ घनश्याम

                         (चित्राभार इन्टरनेट)
         

🍃🌺 अधरों पर बड़े प्रेम से सजाकर अपनी बांसुरी को जब कान्हा मगन हो तान छेड़ते रहे होंगें,,,, कभी ना कभी तो राधा के मन में ऐसे भाव अवश्य उपजे होंगें 😊🍃🌺


अधरन से नहि लिपटाओ,
मुरली  मोरे   घनश्याम।
सूखी पाती ज्यो जरती,
मोरि सूरत की मुस्कान ।

पलक मुंदि के तुम  छेड़ों,
जब मनोहारनि   सुरतान।
मुँह बिरावत  सौतन सी,
 यह मुरली बनी शैतान।

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे घनश्याम,,,

भरि के नेह ऊँगलिन मे,
छुवो मुइ काठी निष्प्रान।
जरि-जरि जाव देह मोरिे,
 ज्यों जेठी के अपराहन। 

अधरन से नहि लिपटाओ
 मुरली मोरे घनश्याम,,,

हरखि निरखि के तकत रही,
      मोहे  कनखियन     के तान।     
      न सुहाए लगन       तुम्हारी,   
औ इहि बँसुरियाँ के  गान। 

अधरन से नहि लिपटाओ
मुरली मोरे   घनश्याम,,,

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

निज जीवन तुम पर वारा है,,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)


हृदय  कुंड में  प्रेम  सरीखे ,
जल की  अविरल  धारा  है ।
भाव  समर्पण  के   पुष्पों से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

तुम कहते  हो   मैं बँट जाऊँ,
व्यवहार कुशलता दिखलाऊँ।
तो सुन लो सिरजन हार मेरे!
यह बात तुम्हारी ना रख पाऊँ।
कोई प्रस्तर खंड सी धंसी हुई,
हिल जाऊँ तनिक ना गवारा है।
भाव    समर्पण   के  पुष्पों  से,
निज जीवन तुम पर वारा है।

जलधार हुई कभी बाधित तो,
अश्रुधारा से उसको भर दूँगीं।
प्रीत सुमन सब रहे सुवासित,
मन बंसत क्षणों से भर लूँगीं।
व्यथित हृदय ,रूधिर कंठ हो,
सब कुछ मन ने स्वीकारा  है।
भाव समर्पण   के   पुष्पों  से,
निज जीवन  तुम  पर वारा है।

हृदय   कुंड   में  प्रेम  सरीखे,
जल की  अविरल    धारा  है।
भाव   समर्पण  के  पुष्पों  से,
निज जीवन  तुमपे  वारा   है।

🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺
🌺लिली 🌺

बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

तुम टिप्पणी रच दो,,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)

मेरे शरीर के भूगोल का
मानचित्र तुम रच दो,,
हर उभार हर ठहराव पर
अपने पथचिन्ह रच दो,,
उभरे पहाड़ों को अपनी
हथेलियों से मथ दो,,
मेरी गहराइयों में अपने
प्रेम का सागर भर दो,,
आहों का बवंडर तुम्हे
ले कर उड़ जाए ,,
दो खंडों का मिलन
एक धरातल कर दो,,
गीत कोई गा उठे
तुफान उच्छावासों का
तुम झूमकर उस पर
अपनी टिप्पणी रच दो,,,,,।

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

कोना भी जगमगाया है,,,,,

             (" किसी कोने को भर दिया उजाले से
              एक बाती,थोड़ा सा तेल,एक माटी के दियाले से")

     🌺🍃इस सुन्दर चित्र के लिए मेरी मित्र 'सोनू' को हृदयातल से आभार,, चित्र देखकर ही मन में एक रचना जल उठी🌺🍃

वो रात अंधेरी थी,,,पर बहुत उतावली थी। घर के उस कोनें की,,धड़कने बेचैन थीं। छत की खुली एक फांक से आसमान भी कुछ खोजती निगाहों से ताक रहा था।
         बेसब्री से शाम को विदा कर 'कोना' फिर से बैठ गया दिल को दबोचे,,के शायद धड़कनों को थोड़ा सुकून मिले,,,! तभी पूजा घर से आने वाली धूप, कपूर की भक्तिपूर्ण सुगन्ध ने किसी के आने का शंखनाद कर दिया था।
       एक सुर में गूंजते आरती के स्वर, शंख,घंटी की आवाज़,,अब उस कोने को उतावला बना रही थीं। सब स्वर धीरे धीरे वातावरण में धूप की गंध से विलीन हो गए।
      तभी गृहलक्ष्मी एक थाल में कई प्रज्जवलित दीपों को सजाए ,,आभामंडित मुख मंडल लिए दीपकतार सजाने लगी।
      प्रतीक्षारत् उस कोने पर रूकी और दो जलते दीपों को बड़े प्रेम के साथ वहाँ सजा दिया। दीपों के प्रकाश से 'कोना' असीम आनंद के प्रकाश से जगमगा उठा।
       वर्ष भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज वह 'कोना' भी झिलमिलाया है,,,मिलन के प्रकाश ने अमावस की रात को चांदनी रात सा सजाया है। दीपों की शिखाएं हल्के हवा के झोंकों से थर्राती थीं,,,कभी एक विपरीत दिशा में मुड़ती,,,तो  कभी आपस में चिपक जाती थीं। रह रह कर उजाला आस-पास को सहलाता था,, उस कोने के हृदय को एक गर्म एहसास से छू जाता था।
      आसमान भी उस ऊर्जा के प्रकाश को पेड़ों की आड़ से ताकता है,,,,जैसे हल्की सरदी से ठंडे पड़े हाथों को तापता है।
         ना जाने कितने ऐसे अन्दर और बाहर के कोने एक दिये के प्रकाश से चमके होंगें,,,,,तम के हरण और अंतस के उजास की दीपावली में चहके होंगें।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

एक शाम प्रतीक्षारत,,,,

                           (चित्राभार इन्टरनेट)
दिन बीत गया बेचैन खामोशियों के साथ,,,।
शाम की हवा भी बड़ी उदास,,,, एक झलक तो मिले नज़रों में छुपी एक यही आस,,,,,,,,। पर तुम तो जैसे अमावस के चांद से छुप गए हो,,,,। एक हल्की सी आवाज़ भी शोर लगती है। बस तुम्हारे तस्व्वुर में तन्हाइयां बजती हैं,,।
      चुपचाप सा चीत्कार सुनाई देता हैं,,,,पर अधरों पर गहन मौन का पहरा है। उदास हवाओं ने तुम्हारी यादों के पुष्प पग पग पर बिखराए हैं,,,,,। मैने चुनकर इन पुष्पों का एक गजरा बनाया है,,,अपनी वेणी में गुथ तुम्हारे सानिध्य को पाया है।
        तुम्हारी बातें सुनकर ही मेरी चंचलता बन तितली मंडराती है,,बिन तुम्हरी बतियां सूनी रात के झींगूरों सी झीनझीनाती हैं। सब कुछ बेरंग,,,स्याह रात सा काला है,,आ जाओ बस तुम्हारे आने में ही चरागों सा उजाला है।
          दो शब्द तुम्हारे , मेरे एकान्त का तम हर लेगें,,,,वरना अंतर का वीराना हम आमावस की रात से भर लेगें। कितना निष्ठुर हैं प्रियतम तुम्हारा व्यस्तता भरा दिन!! एक पल भी लेने नही देता मेरे नाम का पल-छिन,,,,!!
           डूबते सूरज के संग मेरा मन भी डूबता जाए ,,,भेज दो कोई संदेस के अब रहा ना जाए। मन करता है हर दीप बुझा दूँ,,,,,चुपचाप अपने अस्तित्व को अंधकार में गुमा दूँ। कुछ पल की प्रीत भरी बतिया ही तो मांगू,,,, इन्ही एहसासों की महक लिए सोऊँ और जागूँ,,,।
      एक शाम प्रतीक्षारत,,,,,,,

खामोशियों में खुसफुसाहट सुनती रही

                   (चित्राभार इन्टरनेट)

खुद ही मना कर
उसके आने की राह
तकती रही
लम्बी खामोशियों
में उसकी खुसफुसाहट
सुनती रही।

बंद पलकों से
अश्कों की धार
टपकती रही
मै अपनी हथेलियों
में उसकी लकीरें
तकती रही।

गहरी उदासियों में
उसकी खनक
बजती रही
मेरी पेशानियों
पर उसकी तस्वीर
उभरती रही।

पहचानी गलियों में
उसकी धूल सी
उड़ती रही
हर आहट पर
नज़र खिड़कियां
झांकती रही

उसके इश्क की
गलियां गुलाबों से
महकती रही
दूरियां बीच की
काटों सी
चुभती रही।









गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

मन आंगन में मने दीवाली,,,,

                     (चित्राभार इन्टरनेट)
 
तेरे मेरे इस
बंधन की
एक बंदनवार
बनाई है,,,,
अंतर मन के
द्वारे पर इसकी
लड़ी सजाई है।

अपनी प्रीत के
हर रंग से मैने
अनुपम रंगोली
बनाई है,,,,
निरख चटख रंगों
की छटा हर्षित
मन अरूणाई है।

नयनों के दीप
जला कर मैने
दीप कतार
लगाई है,,,,
तेरे नयनों की
प्रज्जवलित बाती
हर दीप शिखा
लरजाई है।

हरित वसन पर
जड़ित बूटियां
स्वर्णिम आभा
बिखराई है,,,
धारण कर मैं
लगूँ सुहागन
अनुभूति बहुत
सुखदायी है।

मन आंगन में
मने दीवाली
पावन पर्व बेला
मधुमायी है,,,
साथ चलों तुम
पग पग पर
अभिलाषा ऐसी
जायी है,,,,।

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

बेसबब बेवजह की ये बातें

                        (सोचा आज अपनी ही फोटो लगा दूँ😀)


बेसबब बेवजह की ये बातें
***********************

बस तुमको रोके
रखने के खातिर
बुनती हूँ कितनी
बातों की महफिल
बेवजह,बेअदब
बेसबब हैं ये बातें,,
तुम्हे भी कभी तो
थकाती हैं ये बातें,,,

कहाँ तुम संग
कोई गृहस्थी है मेरी
एक बादल के टुकड़े
सी हस्ती है मेरी
फिर कहाँ से लाऊँ मैं
सागर सी बातें
कभी खत्म ना होने
वाली वो बातें,,,

जीवन का साथी
बनकर के चलना
पथ की धूप-छांवों
में जलना-सम्भलना
वो पूजा की वेदी पर
साथ मंत्रों का पढ़ना
कुछ भी तो नही है
जिसका दंभ भर लूँ
फिर क्या तर्क छेड़ूँ?
मै क्या बात कर लूँ?

बड़ी अनबुझी
पहेली से ये रिश्ते
खामोश रातों में
चीखते से ये रिश्ते
नही कोई मंज़िल
नही कोई ठिकाना
बस चले जारहे हैं
गुमराह से ये रिश्ते
आनंद देती हैं बस
बंधनों की ये बातें
समाज की मोहरों
पर खरे उतरते
संबन्धों की बातें

खत्म करना भी
चाहूँ तो लिपटती
बहुत हैं, झटकना
भी चाहूँ तो चिपटती
बहुत हैं,,,
बेसबब, बेअदब
बेवजह की ये बातें,,,,,,,।

लिली 😊

गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

पर्यावरण सुरक्षा सर्वोपरि


           
    (2016 की दीपावली के बाद दिल्ली का आसमान, चित्राभार इन्टरनेट)


 सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार दिल्ली में पटाखों पर बैन ने केवल दिल्ली ही नही पूरे भारतवर्ष में हाहाकार मचा दिया है। लोग क्षुब्द हैं, रोष से भरे पड़े हैं, के बिना पटाखे कैसी दिवाली,,???
     व्हट्सऐप पर इस आदेश के विरोध में तमाम कटाक्ष कसे जा रहे हैं ,,हिन्दू धर्म और संस्कृति पर कुठाराघात सा बताया जा रहा है।तमाम तर्कपूर्ण अकाट्य तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
     नासा के परमाणु परिक्षण से लेकर 365 दिन यातायात के साधनों द्वारा फैलने वाले प्रदूषणों पर भी विचार करने की सलाह सुझाई जा रही।
       मै दिल्ली एन सी आर मे 16 साल से रहती हूँ और अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव या आंखों देखी आपके सामने रखना चाहती हूँ।
    चकरी और फुलझड़ी से मुझे भी कोई आपत्ति नही मै भी दो पैकेट फुलझड़ी अपने छोटे बेटे को लाकर देती हूँ। परन्तु 300,500 ,1000 लड़ियों वाली देर तक धमाकेदार आवाज़ और धुआं करने वाले चटाई बम चलाना किस बात का प्रदर्शन करना होता है,,? अथवा किस प्रकार का आनंद प्राप्त होता है ? यह समझ नही आया मुझे।
        यदि आपके घर में कोई बड़े बुज़ुर्ग हैं और वह अस्वस्थ हैं,,कभी सोचा है आपने कि उनके लिए दीपावली का दिन कितना कष्ट प्रद होता है? आतिशबाज़ी शुरू होने के घंटेभर बाद, लाख खिड़की दरवाज़े आप बंद कर लिजिए आपके घर दमघोटूँ धुओं से भर चुके होते हैं।
         दीवाली के पश्चात कितने दिनों तक दिल्ली के आसमान पर प्रदूषण की धुंध छाई रहती है,,जो कि नानाप्रकार की श्वास सम्बन्धी बिमारियों को जन्म देती है।
       हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चे जिनके 'बचपन' पटाखे बैन होने की वजह से  छिनते हुए देखे जाने की दुहाई दी जा रही है,,,वही बच्चे इन पटाखों से फैले प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार होते हैं क्योंकि उनमे वयस्कों सी प्रतिरोधक क्षमता नही होती। वातावरण में फैले प्रदूषण से एलर्जी ,सर्दी,खांसी, बुखार भोगते हैं। दीपावली की मिठाइयों के बाद कठोर एंटीबायॅटिक सेवन करने पर मजबूर हैं। सोच कर देखिए उस समय जन्म लेने वाले नवजात शिशुओं को हम क्या परिवेश दे रहे हैं?
      कुछ तर्क ऐसे भी उठे,,, बारूद की गंध से कीट पतंगें मरते हैं,,। हर त्योहार के मनाए जाने के पीछे धार्मिक सदभावना के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य भी होता है। दीपावली में दीप जलाने का एक प्रमुख कारण यह भी है। परन्तु आजकल बिजली की झालरों से सजाए जाने की प्रथा के कारण कीट पंतगें खत्म तो नही होते बल्कि उनकी संख्या में बढोतरी हो रही है। पटाखे चलाने के बजाय यदि झालरों कम और अधिक दीप जलाएं तो कीट-पतंगें भी मरेगें और गरीब कुम्हारों की भी आमदनी होगी। मोमबत्तियों जैसे लघु उद्योगों को भी प्रश्रय मिलेगा।
       लोगो को पटाखे वालों के जमा स्टाॅकों के बेकार जाने की चिन्ता खाए जा रही है,,,,पर यदि कोर्ट के आर्डर ना आते तो क्या वे लोग केवल चकरी और फुलझड़ियां चलाकर संतुष्ट हो जाते,,,जिनके लिए महगी अतिशबाजियों का प्रदर्शन करना अपने वैभव और प्रतिष्ठा का प्रतीक लगता है?
        नियम कानूनों का पालन यदि हर नागरिक अपना कर्तव्य समझ कर करता तो शायद ऐसे जनमानस को आन्दोलित कर देने वाले अप्रत्याशित हुक्मनामे जारी करने की नौबत ना आती।
         विदेशों में नववर्ष पर पटाखे अवश्य चलाए जाते हैं पर वह हमारे देश में बनने वाले अत्यधिक धुएंदार और हृदय कंपा देने वाली आवाज़ों वाले नही होते। विदेशों के नागरिकों को अपने घर के साथ-साथ अपने आस-पड़ोस और पर्यावरण का भी ख्याल होता है।
         सरकारियों नीतियों मे ढीलापन, बाजारीकरण,और उद्योगपतियों की स्वार्थपरता से आंखे नही मुंदी जा सकती । परन्तु दोस्तों अगर वह हमारे हित और संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं तो हम तो देख सकते हैं। दिल्ली में रहने वाले लोग दीपावली के बाद होने वाले स्वास्थ को हानि पहुँचाने वाले वातावरण को देखते हैं दुष्परिणाम भी भुगतते हैं। आंखों मे जलन, स्वास सम्बन्धी कठिनाइयां,खांसी, बुखार ,सीने की जलन,दम अटकना जैसी कठिनाइयां हमे ही सहनी पड़ती हैं।  जो लोग अन्य प्रांत से हैं,,,और बिना देखे अपनी जगहों पर बेकार की जिरहबाज़ी कर रहे हैं,,उनके लिए यह एक पूर्व चेतावनी है,,,पर्यावरण केवल दिल्ली का ही नही प्रभावित हो रहा आपका शहर भी आज नही तो कल चपेट में आएगा।
           अतः कोर्ट के फैसले की निन्दा नही स्वागत कीजिए ,वह चाहे 10 दिन पहले आया हो,,या एक महीने पहले,,,,आपके और मेरे स्वस्थ हित के लिए शुभ ही है। नासा परमाणु परिक्षण और 365 दिन होने वाले कारकों को रोक पाना हमारी पहुँच से दूर हो शायद पर पटाखों को ना चला कर हम एक छोटा सा योगदान अवश्य दे सकते हैं।
     



मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

कहानी एक एहसासी लम्हे की,,,,,,,,,,

                         (चित्राभार इन्टरनेट)

नरम हरी घास,रात की शबनम से धुली धुली,,,,। सरदियों की शुरूवाती गुनगुनाहट लिए इतराता सूरज,,,,,माहौल में एक अलसाया पन,,,,। परिंदों की चहचहाहट जैसे कह रही हो उठ जाओ,,पर दिल नही चाहता नरम घास के बिछौने को तजना।
      ऊहूँऽऽऽऽऽऽ का एक अनमना सा जवाब दे तीन-चार ढुलकियों के साथ बदन को बिस्तर पर लुढ़का कर,,, फिर से स्थिर हो कुछ पल औंधे मुँह पड़ा रहता है। आंखों की पलकें बार बार झपकती हुई,,,,, मन कुछ सोचता हुआ,,, अचानक नलिनी एक स्पूर्ति का अनुभव कर बाईं हथेली पर अपने चेहरे को टिका,, खिड़की के बाहर निहारने लगती है,,,,।  विनोद का एहसास कुछ ऐसी ही प्रभाती मुलायमियत लिए नलिनी के चेहरे पर एक सौम्य मुस्कुराहट बिखेर जाता था।

                        ।। 2।।
         नलिनी का जीवन विनोद से जुड़ने के बाद एक रोमांचक उपन्यास सा बन गया है। जिसकी हर पंक्ति खिलखिलाती सुबह सी,, हर परिच्छेद चिलचिलाती तपती दोपहरी ,,हर पृष्ठ सुबकती रात सा और हर अध्याय एक कौतूहल पूर्ण नवीनता लिए हुए है।
        जीवन से लेकर मृत्यु तक एक समग्र निश्चित सफर के बीच में भी हम कितने छोटे बड़े सफर तय करते हैं,,,,,,,। हर सफर का एक निश्चित पड़ाव भी होता है। परन्तु विनोद और नलिनी के सफर का कोई पड़ाव स्थूल रूप में नज़र तो नही आता,,,परन्तु दो किनारों के बीच बहती नदिया सा एक जुड़ाव अवश्य है। सब कुछ है भी और नही भी,,,,,,।
     जब कभी नलिनी विनोद से अपने इस अद्भुत रिश्ते का आधार पूछती है तो विनोद इसे आत्मिक मिलन का नाम दे देता है,,,,।
     नलिनी इस रिश्ते का रूप,गुण,आकार-प्रकार पूछती है तो,,,विनोद कहता है,,,-" नदी उद्गम के बाद जब पहाड़ों में रहती है तो चट्टानों को तोड़ फोड़ नया रास्ता बना लेती है पर जब मैदान में आती है तब ढर्रे पर चलती है। बस तटबंध तोड़ती है। हम मैदानी नदी हैं। " बड़ा अद्भुत,,,,बड़ा अनोखा,,अदृश्य परन्तु दृश्यमान,,,,,,,,,,,,।
 
                       ।। 3 ।।
  बहाव के साथ एक ठहराव लिए,,, हर क्षण में एक छोटी कहानी बन जाती है। कई छोटी-छोटी कहानियां मिल एक उपन्यास बन जाता है।
     अभी नलिनी और विनोद के जुड़ाव के इस सफर में छोटी छोटी कहानियां जन्म ले रही हैं। जैसे कि आज ,, एक अलसाई सुबह ने ,, नरम घास के बिछौने पर पड़े नलिनी ने आपको सुनाई।
       जानती हूँ आप भी पूरा उपन्यास पढ़ने को आतुर हो गए होगें,,,,,,,ठीक मेरी तरह,,,,,,। मै क्या नलिनी भी कभी-कभी बहुत बेकल हो जाती है,, अपने और विनोद के रिश्ते का भविष्य जानने को,,,,,। पर यह उसके बस में नही,, क्योंकि दोनो को मिलकर रचना है आगे का अध्याय,,,, ।
      यह कहानी शुरू तो कर दी मैने,,,,पर अंजाम तक पहुँचाने के लिए मुझे अपने पात्रों संग सम्पर्क साधे रखना होगा।
एक राज़ की बात बताऊँ तो मैं चाहती नही इस कहानी को कोई अंजाम देना,,,,,,,,नलिनी और विनोद भी नही चाहते,,क्योकि उनकी नित निर्मित अनेकों कहानियां उन्हे संबल प्रदान करती हैं। जीवन संघर्ष में ऊर्जा का संचार करती हैं।
                              ।।4।।
  बहुत देर तक हथेली पर अपने चेहरे को टिकाए रहने से, कलाई में हुए हल्के से दर्द ने नलिनी की तन्द्रा भंग कर दी। उसने देखा कि सूरज बड़ी चौड़ी तपन लिए चमक रहा था। घड़ी कि सुइयां टिकटिका कर यह कह रही थीं अब तो उठना ही पड़ेगा। अतः नलिनी ने विनोद के एहसास को अपने खुले बालों में लपेट एक क्लचर से अटका लिया । और एक नए जोश के साथ उठ पड़ी,,,,,।
          मै भी अपनी लेखनी को विराम दे रही हूँ इस आस के साथ , कि ,,,,,,,, कल कुछ नये एहसास लिखूँ और 'एक क्षण' के इन जज्बातों को एक छोटी कहानी में समेट सकूँ,,,,,।


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मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

तकिए,,

                        (चित्राभार इन्टरनेट)
 
दिल के भेदों को पहले
शब्दों मे ठूँसती है
फिर शब्दों को रचनाओं
के लिहाफ मे ठूँसती है
हाशिए,विराम के चिन्ह
लगा किनारों को मजबूती
से सी देती है,,,,,,,,,,,,,,,,
हाय री किस्मत कुछ दर्द
छुपाने को तू कितने तकिए
सी ती है,,,,,,,,????

इन तकियों को अपने
सिरहाने लगाती है
अकेली रातों में अश्कों
से भिगोती है,,,,
गीले तकियों पर ही
रात सुबककर सोती है,,
कोई सुन ले सुबकियां
इसलिए मुँह दबा के
रोती है,,,,,,,।

दर्द से दुखते बदन को
इन मसनदी सहारे पर
टिकाती है,,,,,,,,,
दोनो बाहों में भींच
दिल के दर्द को दबाती है
बैचैनी को मुस्कान से छुपाती है
ऐ ज़िन्दगी !तू दर्द के साथ
उन्हे दबाने के नुस्खे
भी बताती है,,,,,,,।
~लिली 😊

मुझे पाओगे,,,,

(चित्राभार इन्टरनेट)

बालों की सफेदी
 से उजली चांदनी 
रातों में,जब अपनी 
स्टडी टेबल पर बैठ, 
अपनी ही लिखी
रचनाओं के पन्ने 
उलटाओगे,देखना कंधे 
पर अचानक मेरे हाथों की 
गरमाहट पाओगे,,

भौंवें उठाकर 
नाक पर अटकी
ऐनक से नज़रे घुमा 
कर देखोगे,,
मेरे मुस्कुराते चेहरे 
पर ठहर जाओगे
तुम्हारे शब्द फिर 
एकबार मुझे
तुम तक ले जाएगें,
गुज़रे ज़माने के अक्स 
मेरी आंखों में छलक जाएगें,,,

मेरी तलाश से
लेकर मुझे पाने का,
मुझे पाकर मुझे जीने
तक का हर लम्हा 
गुनगुनाएगा
मेरी सांसों में तुम्हारे
प्यार का समन्दर
तब भी वैसे ही 
लहराएगा,,,,

एक आलिंगन की 
चाह हर कविता 
में बाजुएं फैलाएगीं
और मैं कांधों से हट
तुम्हारी बाहों में
सिमट जाऊँगीं,,,।

मौन का वो संवाद
ना जाने कब तक
हमें उलझाएगा
और पता नही कब
कितना वक्त
 गुज़र जाएगा,,,
मै तुमसे अपनी हर 
प्रिय रचना को
पढ़वाऊँगीं,
तुम पढ़ोगे और मैं
वैसे ही शरमाऊँगीं,,

सुनो ! तुम अपनी
रचनाओं का संकलन
ज़रूर छपवाना 
हम साथ-साथ ना रहे
तो क्या? तुम्हारे 
काव्य संकलन में
हमारा साथ एक 
पड़ाव पाएगा,,
जब तुम्हे मेरी याद
आएगी मेरा हाथ
हमेशा तुम्हारे 
कांधों को सहलाएगा,,,,,,,

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

किनारे मिलते नही कभी,,

(चित्राभार इन्टरनेट)



नीरव रात में नदी के एक किनारे को सुबकते देखा,,,
सजल नयनों को खुद पर उगी नरम घास पर रगड़ते देखा।
दरिया का पानी रह रह कर टकराता रहा,,
दूसरे किनारे की दिलासी लहरों से भिगोता रहा,,
"एक पुल तो बना दिया है देख, आऊँगा गले लगाने, तू यूँ हौसलाहारी बातें ना फेंक "
हवा के झोंकों से ऐसे कई पैगाम पहुँचाते देखा
नदी को उनकी बातों पर मचलते देखा,,
उसकी लहरों को बेचारगी पर उफनते देखा,,
पुल की पुरजोर कोशिश की मिला दूँ उनको,,
कभी कभी उसकी सख्ती को भी लरजते देखा,,
एक सफीना पर कुछ सवार को देखा,,
पतवार से बहाव हो विपरीत बहाते देखा,,
मैने अपनी आंखों से जद्दोजहद मिलने की होते देखा,
नदी सिकुड़ी नही,ना पुल को मुड़ते देखा,,
दोनो छोरों पर दो किनारों को सुबक कर सोते देखा,,।

लिली😊

शनिवार, 30 सितंबर 2017

शक्ति स्वरूपा नारी,, सुरक्षा की मोहताज,

                      (चित्राभार इन्टरनेट)



शक्ति स्वरूपा नारी की सुरक्षा,सम्मान,और गौरव,,, एंव समाज में उनकी प्रतिष्ठा को प्रतिस्थापित करने की गुहार लगानी है,,,,कलम उठा कर समाज के सभ्य जनों जागरूक बनाना है,,।
बेटी बचाओ ,,बेटी पढ़ाओ का नारा दीवारों ,, गाड़ियों बसों,गली -कूचों में चलते फिरते इश्तेहारों की तरह छापना है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण लगता है!!!!!
   नारी को अबला बना कर हर कोई उसका तबला बजाता दिखता है,,, बस एक अति संवेदनशील मुद्दा । द्रवित भावनाओं का प्रवाह,, दयनीय अस्तित्व के चीथड़े उड़ाती रचनाएं। आंसू बहाती महिलाओं के  दारूण चित्र,,,,कभी-कभी लगता है हम जागरूक बना रहे हैं या अपनी नुमाइश लगा रहे हैं।
     हर पुरूष नारी मनोभावों से भली-भांति परिचित दिखता है, नारी की गरिमा के सामने  नतमस्तक है,,फिर भी पुरूषों द्वारा महिलाओं के साथ दुरव्यवहार की खबरों में कमी आती नही दिखती,,। महिला,अन्य महिला के मन को समझती है,, फिर भी सांसे बहुओं को प्रताड़ित और बहुएं सासों की निन्दा करती नज़र आती हैं। महिला दिवस के नाम पर आयोजनो और चर्चाओं का माहौल गर्म रहता है,,,अमल कितने करते हैं उन पर यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए। हाथी के दांत सा है यह विषय ,,दिखाने के अलग ,खाने के अलग।
     कैसा विरोधाभास है ये,,,,?????? किसको क्या याद दिलाना है,,,, किसको क्या समझाना है,,,? मन भ्रमित हो जाता है।
    माँ बेटी की सबसे बड़ी हितैषी,,,पर जब वही माँ अपनी बेटी को कुलक्षनी कहती है,,,बेटे और बेटी में भेदभाव करती है,, तो बेटियों का परम हितैषी किसे समझा जाए?
     पिता पुत्री का संरक्षक,,,, पर जब घर के किसी कोने में वही पिता 'भक्षक' बन जाए तो ,,, बाहर समाज मे घूमते भेड़ियों को क्या कहा जाए,,? पैसे के लोभ में अपना ही भाई अपनी बहन को वैश्या बना दे,,तो  बहन की रक्षा की प्रतीक  राखी किसकी कलाई पर बांधी जाय,,? यह भी एक कटु  सत्य है,,,यूँ कहिए तस्वीर का एक रूख यह भी है ।लिखते हुए अच्छा नही लगा,,पर लिखा । घर से बाहर सुरक्षा तो बाद में आती है,,घर की चार दीवारी में कितनी लड़कियां सुरक्षित हैं यह भी विचारणिय है।
     सोशल मीडिया पर बाढ़ की तरह बहते 'नारी के सम्मान और अस्तित्व की सुरक्षा' से सम्बन्धित लेख रचनाएं,, विज्ञापन,कहानियां और ना जाने क्या क्या,, देखने को मिलता है,,, हैरानी होती है ,,, फिर भी नारियों के प्रति समाज का नज़रिया बद से बदत्तर ही होता जा रहा है। दोषी केवल पुरूष वर्ग ही नही ,, महिलाएं भी इसके लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं।
     देश भर मे देवी के नौ रूपों की पूजा पूरी श्रृद्धा और निष्ठा से समपन्न हुई,,,पर देवी का जीता जागता प्रतिरूप नारी कितनी पूजनीय है यह एक ज्वलंत प्रश्न है,,,केवल पुरूष वर्ग के लिए ही नही महिलाओं के लिए भी।

लिली

दुर्गापूजा,,,, एक आनंदोत्सव



       ( मनमोहक सिन्दूरदान चित्र हेतु बहन मिनी को आभार )

दशमी के दिन माँ कि प्रतिमा देखती हूँ तो आंखे भर आती हैं,,,दुर्गा जी के नयन भी छलछलाते से प्रतीत होते हैं। कैसे पांच दिन पहले उनके आगमन के उल्लास से पूरा वातावरण जैसे नाच रहा था,,,और आज जाने का दिन आ गया। यह भाव देवी प्रतिमा के मुखमंडल पर भी झलकता सा प्रतीत होता है।
   पता ही नही चलता पूजा के ये दिन कैसे बीत जाते हैं।
'महालया' की प्रभात माँ की अलौकिक आगमनी प्रकाश से प्रकाशमान हो जाती है। कानों में ढाक और घंटे का नाद,,और नसिका में लोहबान की महक सुवासित हो जाती है। दिनों की गिनती शुरू हो जाती है।
     पूजा पूजा सारा वातावरण,,,मन का नर्तन आंनद से । अश्विन मास का नीला आकाश,,कास के लहलहाते फूल,,और बयार में हरश्रृंगार की महक,,शरद ऋतु की दस्तक का बिगुल बजाती हुई। मौसम संग उत्सवी उमंग,,,,हर मन उल्लासित।
       नव वस्त्र, नव साज, पूजा, पुष्पांजली,भोग,प्रसाद, खेल-विनोद, नाच-गान, नाटिकाएं, रवीन्द्र संगीत,, घूमना-टहलना ,,,टोलियों में बैठ ठहाके लगाना,,खान-पान,,और बेफ्रिक्री दुर्गा पूजा का दूसरा नाम,,।
      संध्या की आरतियां धुनिची नाच, ढाक की ताल पर ताल मिलाना,,और भाव भंगिमाओं की जुगलबंदियां ,,आहाआआआ उस पल तो लगता है जीवन कितना संगीतमय,,,!!! लोहबान की खुशबूँ दिनो बाद भी कपड़ों से जाती नही,,,।
       पंडाल के किसी कोने में चुपचाप बैठ माँ दुर्गा की प्रतिमा को निहारने का भी एक अपना ही आनंद होता है। ऐसा लगता है जैसे हमारे साथ माँ दुर्गा भी अपनी सारी चिन्ताएं और दायित्वों का भार कुछ दिनों के लिए भूल हमारे साथ उत्सवमयी हो रही हैं।
      पंचमी के बोधन(प्रतिमा के मुख से आवरण हटाना) और प्राण प्रतिष्ठा ,आनंद मेला, महाषष्ठी के दिन अपने संतान के मंगल हेतु माताओं का उपवास, महासप्तमी की पूजा, महाअष्टमी की पुष्पांजली, अष्टमी नवमी की मिलन बेला की 'संधि पूजा' 108 दीपदान, 108 कमलपुष्पों की माला बना माँ को पहनाना, नवमी की कुमारी पूजा(बेलूर मठ) और हवन,,,और अंत में दशमी के दिन पूजा के बाद दर्पण विसर्जन के बाद माँ की प्रतिमा को 'सिन्दूर दान' और 'देवी बरण' के लिए रखा जाता है।
     सभी विवाहिताएं ,पान मिष्ठान्न खिला माँ को सिन्दूर लगा कर अपने सुहाग और सौभाग्य की कामना का आशीष मांगती हैं।
उसके बाद होता है 'सिन्दूर-खेला'  सिन्दूर एक दूसरे को लगा कर मुँह मीठा किया जाता है।
    ऐसा माना जाता है कि माँ दुर्गा इस समय अपने मायके आती हैं,,और दशमी के दिन माँ का इसप्रकार वरण कर ससुराल भेजा जाता है इस कामना के साथ कि अगले साल माँ इसी उल्लास और सौभाग्य लिए फिर आएगीं ।
     फिर क्या नाचते गाते,,'दुर्गा माई की जय' ' आशते बोछोर आबार होबे' के जयकारे लगाते हुए माँ की प्रतिमा को नदी घाट पर लेजाकर जल में विसर्जित कर दिया जाता है। एक घट में विर्सजित स्थान का जल एक घट में भर लिया जाता है, जिसे 'शांति जल' कहते हैं। समूचा दल जब विसर्जनोपरान्त वापस पंडाल में आता है,,तब यह 'शांति जल' पुरोहित सभी के सिर पर छिड़क सुख और शांति की कामना मंत्रोच्चारण सह देवी से करते हैं।
       इसके उपरांत सभी गुरूजनों के पैर छूकर छोटे उनसे आशीष प्राप्त करते हैं। एक अन्य को विजयादशमी की शुभ कामनाएं देते हैं। खान-पान मेल-मिलाप का यह अवसर  'बिजोया मिलन' कहलाता है। इसी के साथ सब एक नए जोश लिए,,उत्सव की मीठी-मीठी यादों को मन-मस्तिष्क में भर अपनी दैनिक दिनचर्या में लौट जाते हैं इस कामना के साथ,,,,,, #आशतेबोछोर आबार होबे',,,

🌺शुभो बिजॅया🌺